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Friday, 22 November, 2024
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महिलाओं के स्तन ढंकने के हक के लिए आंदोलन करने वाले महात्मा अय्यंकालि

केरल के नवजागरण के अग्रदूत अय्यंकालि के गुजरे 78 साल हो गए हैं. इस समाज सुधारक के बारे में उत्तर भारत के स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता, जबकि उनका असर समाज में बहुत ज्यादा है.

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भारत को आधुनिक बनाने, दलितों और पिछड़ों में आत्म सम्मान की भावना पैदा करने और महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने में महात्मा अय्यंकालि की भूमिका ठीक वैसी ही है, जैसी ज्योतिबा फुले, डॉ. भीमराव आंबेडकर, नारायण गुरुऔर ईवी. रामासामी पेरियार की है. दलित महिलाओं की अस्मिता और सम्मान की रक्षा के लिए उनके योगदान को आज भी याद किया जाता था. उनके आंदोलन की वजह से दलित महिलाओं को केरल में अपना स्तन ढंकने का अधिकार मिला और वे भी ब्लाउज पहनने लगीं. ऊंची जाति की उपस्थिति में पहले उन्हें अपने स्तन के कपड़े हटा लेने होते थे.

अय्यंकालि का जन्म तिरुवनंतपुरम् से 13 किलोमीटर दूर वेंगनूर में 28 अगस्त 1863 को हुआ था. पिता अय्यन और मां माला की आठ संतानों में वे सबसे बड़े थे. उनकी जाति पुलायार (पुलाया) थी, जो वहां अछूत जातियों में भी सबसे नीचे की मानी जाती है. उनकी हैसियत भू-दास के समान थी. जमींदार लोग, मुख्यतः नायर, अपनी मर्जी से किसी भी पुलायार को काम में झोंक देते थे. सुबह से शाम तक काम करने के बाद उन्हें मिलता था, बामुश्किल 600 ग्राम चावल. कई बार वह भी गला-सड़ा होता था.

बचपन के अपमान की वजह से विद्रोही बन गए अय्यंकालि

अछूत होने के कारण अय्यंकालि को केवल अपनी जाति के बच्चों के साथ खेलने का अधिकार था. एक दिन फुटबॉल खेलते समय गेंद एक नायर के घर में जा गिरी. क्रोधित गृहस्वामी ने अय्यंकालि को डांटा और ऊंची जाति के बच्चों के करीब न आने की हिदायत दी. आहत अय्यंकालि ने भविष्य में किसी सवर्ण से दोस्ती न करने की ठान ली. उन्हीं दिनों उनका गाने-बजाने का शौक पैदा हुआ. लोक गीतों में रुचि बढ़ी. गीतों और नाटकों के माध्यम से वह समाज को जगाने का काम करने लगे.

बैलगाड़ी से क्रांति

उन दिनों दलितों को गांव में खुला घूमने, साफ कपड़े पहनने और मुख्य मार्गों पर निकलने की आजादी नहीं थी. अय्यंकालि को बनी-बनाई लीक पर चलने की आदत न थी. 25 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने अपने ही जैसे युवाओं का मजबूत संगठन तैयार कर लिया था. 1889 में सार्वजनिक रास्तों पर चलने के अधिकार को लेकर आंदोलनरत दलित युवाओं पर सवर्णों ने हमला कर दिया. दोनों पक्षों के बीच जमकर संघर्ष हुआ. सड़कें खून से लाल हो गईं.

अय्यंकालि के सामने पहली चुनौती थी, पुलायारों को सार्वजनिक सड़कों पर चलने का अधिकार दिलाना.


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1893 में उन्होंने दो हृष्ट-पुष्ट बैल, एक गाड़ी और पीतल की दो बड़ी-बड़ी घंटियां खरीदीं. घंटियों को बैलों के गले में बांध, सज-धज कर बैलगाड़ी पर सवार हो, अय्यंकालि ने बैलों को हांक लगाई. उनका गाड़ी पर सवार होकर सड़कों पर निकलना शताब्दियों पुरानी समाज व्यवस्था को चुनौती थी. बैलों के गलों में बंधीं घंटियां जोर-जोर से बज रही थीं. सहसा कुछ सवर्णों ने आकर उनका मार्ग रोक लिया. एक पल की भी देर किए अय्यंकालि ने दरांत (धारदार हथियार) निकाल लिया. एक पुलायार से, जिसकी सामाजिक हैसियत दास जैसी थी, ऐसे विरोध की आशंका किसी को न थी. उपद्रवी सहमकर पीछे हट गए.

25 वर्ष की अवस्था में अय्यंकालि का चेल्लमा से विवाह कर दिया गया. आगे चलकर उस दंपति के यहां सात संतानों ने जन्म लिया.

दलितों में आत्मविश्वास जगाने लिए अय्यंकालि का अगला कदम था तिरुवनंतपुरम् में दलित बस्ती से पुत्तन बाजार तक ‘आजादी के लिए जुलूस’ निकालना. जैसे ही उनका काफिला सड़क पर पहुंचा, विरोधियों ने उन पर हमला कर दिया. अय्यंकालि के इशारे पर सैकड़ों दलित युवक, विरोधियों से जूझ पड़े. उस संघर्ष से प्रेरित होकर दूसरे कस्बों और गांवों के दलित युवक भी सड़कों पर चलने की आजादी को लेकर निकल पड़े.

शिक्षा क्रांति

1904 में अय्यंकालि ने पुलायार और दूसरे अछूतों के शिक्षा के लिए वेंगनूर में हला स्कूल खोला. परंतु सवर्णों से वह बर्दाश्त न हुआ. उन्होंने स्कूल पर हमला कर, उसे तहस-नहस कर दिया. बिना किसी विलंब के अय्यंकालि ने स्कूल का नया ढांचा खड़ा कर दिया. अध्यापक को सुरक्षित लाने-ले जाने के लिए रक्षक लगा दिए गए. तनाव और आशंकाओं के बीच स्कूल फिर चलने लगा.

1 मार्च 1910 को सरकार ने शिक्षा नीति पर कठोरता से पालन के आदेश दे दिए. शिक्षा निदेशक मिशेल स्वयं हालात का पता लगाने के लिए दौरे पर निकले. दलित विद्यार्थियों को स्कूल में प्रवेश करते देख सवर्णों ने हंगामा कर दिया. उपद्रवी भीड़ ने मिशेल की जीप को आग लगा दी. उस दिन आठ पुलायार छात्रों को प्रवेश मिला. उनमें 16 वर्ष का एक किशोर भी था जो पहली कक्षा में प्रवेश के लिए आया था.

1912 में अय्यंकालि को ‘श्री मूलम पॉपुलर असेंबली’ का सदस्य चुन लिया गया. राजा और दीवान की उपस्थिति में अय्यंकालि ने जो पहला भाषण दिया, उसमें उन्होंने दलितों के संपत्ति अधिकार, शिक्षा, राज्य की नौकरियों में विशेष आरक्षण दिए जाने और बेगार से मुक्ति की मांग की.

साधु जन परिपालन संघम

अय्यंकालि ने 1907 में ‘साधु जन परिपालन संघम’ की स्थापना की थी. उसके प्रमुख संकल्प थे— प्रति सप्ताह कार्य दिवसों की संख्या 7 से घटाकर 6 पर सीमित करना. काम के दौरान मजूदरों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से मुक्ति तथा मजदूरी में वृद्धि. इसके अलावा सामाजिक सुधार के कार्यक्रम, जैसे विशेष अदालतों तथा पुस्तकालय की स्थापना भी उसकी गतिविधियों का हिस्सा थे.

अय्यंकालि दलितों की शिक्षा के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे थे. कानून बन चुका था. सरकार साथ थी. मगर सवर्णों का विरोध जारी था. रूस की बोल्शेविक क्रांति से एक दशक पहले 1907 की घटना है. पुलायारों ने कहा कि जब तक उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश और बाकी अवसर नहीं दिए जाते, वे खेतों में काम नहीं करेंगे. जमींदारों ने इस विरोध को हंसकर टाल दिया. मगर हड़ताल खिंचती चली गई. उसमें नौकरी को स्थायी करने, दंड से पहले जांच करने, सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आज़ादी, परती और खाली पड़ी जमीन को उपजाऊ बनाने वाले को उसका मालिकाना हक देने जैसी मांगें भी शामिल होती गईं.


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क्षुब्ध सवर्ण पुलायारों को डराने-धमकाने लगे. मार-पीट की घटनाएं हुईं. लेकिन वे हड़ताल पर डटे रहे. धीरे-धीरे दलितों के घर खाने की समस्या पैदा होने लगी. उसी समय अय्यंकालि ने एक उपाय किया. वे मछुआरों के पास गए. उनसे कहा कि वे एक-एक पुलायार को अपने साथ नाव पर रखें और बदले में दैनिक आय का एक हिस्सा उसे दें. गुस्साए जमींदारों ने पुलायारों की बस्ती में आग लगा दी.

अंततः जमींदारों को समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा. सरकार ने कानून बनाकर पुलायार सहित दूसरे दलितों के लिए शिक्षा में प्रवेश का रास्ता साफ कर दिया. मजदूरी में वृद्धि, सार्वजनिक मार्गों पर आने-जाने की आजादी जैसी मांगें भी मान ली गईं.

महिलाओं के स्तन ढंकने के अधिकार के लिए संघर्ष

उन दिनों दलित महिलाओं को वक्ष ढंकने का अधिकार प्राप्त नहीं था. शरीर के ऊपर के हिस्से पर केवल पत्थर का कंठहार पहनने की इजाजत थी. वैसा ही ‘आभूषण’ उनकी कलाई पर बंधा रहता था. कानों में लोहे की बालियां पहननी पड़ती थीं. ये पुरुषसत्ता और जातिसत्ता का सबसे क्रूर उदाहरण था. गुलामी के प्रतीक उस परिधान से मुक्ति के लिए अय्यंकालि ने दक्षिणी त्रावणकोर से आंदोलन की शुरुआत की. अन्य जातियों में भी ऐसे आंदोलन पहले चलाए जा चुके थे.

सभा में आईं स्त्रियों से उन्होंने कहा कि वे दासता के प्रतीक आभूषणों को त्यागकर सामान्य ब्लाउज धारण करें. सवर्णों को महिलाओं का ये विद्रोह पसंद नहीं आया. उसकी परिणति दंगों के रूप में हुई. दलित हार मानने को तैयार न थे. अंततः सवर्णों को समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा. अय्यंकालि तथा नायर सुधारवादी नेता परमेश्वरन पिल्लई की उपस्थिति में सैंकड़ों दलित महिलाओं ने गुलामी के प्रतीक ग्रेनाइट के कंठहारों को उतार फेंका.

आदर्श जनप्रतिनिधि

पुलायार खेतिहार मजूदर के रूप में, बेगार की तरह अपनी सेवाएं प्रदान करते थे. भूस्वामी उन्हें कभी भी बाहर निकाल सकता था. ‘श्री मूलम् प्रजा सभा’ के सदस्य के रूप में अय्यंकालि ने मांग की कि पुलायारों को रहने के लिए आवास तथा खाली पड़ी जमीन उपलब्ध कराई जाए. फलस्वरूप सरकार ने 500 एकड़ भूमि आवंटित की जिसे 500 पुलायार परिवारों में, एक एकड़ प्रति परिवार बांट दिया गया. यह अय्यंकालि की बड़ी जीत थी.

अय्यंकालि 1904 से ही दमे की बीमारी के शिकार थे. 24 मई 1941 को उन्होंने पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया. 18 जून 1941 को उस अनथक न्याय-योद्धा का निधन हो गया.

(साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करने वाले ओमप्रकाश कश्यप की लगभग 35 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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