आम चुनाव के परिणामों ने एक अहम सवाल को जन्म दिया है कि ऐसी क्या वजह है कि बीएसपी से मात्र तीन साल पहले बनी बीजेपी आज पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में है, जबकि बीएसपी को अपना राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. इस लेख में बीएसपी के संगठन की कार्य प्रणाली और समय-समय पर उसमें आए परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की गई है. इसकी शुरुआत बीएसपी के संगठन को समझने से करते हैं, जिसके लिए हमें इस पार्टी पर लिखी प्रमुख किताबों पर एक नज़र दौड़ानी होगी.
बीएसपी पर लिखी गईं प्रमुख किताबें
बीएसपी पर सबसे प्रमुख किताब अम्बेथ राजन, प्रो कंचन चंद्रा, प्रो सुधा पाई, प्रो विवेक कुमार और डॉ. प्रदीप कुमार ने लिखी है. अम्बेथ राजन बीएसपी के संस्थापक कांशीराम के निजी सचिव थे. इसके अलावा वे बामसेफ, डीएसफ़ोर और बीएसपी के कोषाध्यक्ष भी रहे. अभी हाल ही में अम्बेथ बीएसपी के कोषाध्यक्ष पद से मुक्त हुए हैं. उन्होंने ‘माई बहुजन समाज पार्टी’ नाम से एक किताब लिखी है, जो कि इस पार्टी के साथ उनके काम करने की एक जीवनी जैसी है.
बीएसपी पर जो सबसे महत्वपूर्ण शोध हुआ है, उसे प्रो. कंचन चंद्रा ने किया है. वे आजकल न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफ़ेसर हैं. चंद्रा की बीएसपी पर लिखी किताब, अमेरिका के हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में की गई उनकी पीएचडी थीसिस है, जिसे उन्होंने Why Ethnic Parties Succeed: Patronage and Ethnic Headcounts in India के नाम से प्रकाशित कराया है.
भारत में दलित आंदोलन पर अध्ययन करने वाली राजनीति विज्ञानी प्रो सुधा पाई ने Dalit Assertion and the Unfinished Democratic Revolution: The Bahujan Samaj Party in Uttar Pradesh नाम से किताब लिखी है, जिसमें वो बताती हैं कि कैसे उत्तर प्रदेश में आज़ादी के दौरान और उसके बाद हुए छोटे-छोटे आंदोलनों को समाहित करके बीएसपी बनी. उनका मानना है कि इन छोटे-छोटे आंदोलनों की मांगों और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति ही बीएसपी को लम्बे समय तक ज़िंदा रखेगी.
जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग के चेयरपर्सन प्रो विवेक कुमार ने भी Dalit Assertion and Bahujan Samaj Party: A Perspective from Below नाम से एक महत्वपूर्ण किताब लिखी है, जिसमें बीएसपी संगठन और मायावती सरकार द्वारा किए गए कार्यों का विवरण है. इन सभी अध्ययनों की समीक्षा करते हुए राजनीति विज्ञानी डॉ प्रदीप कुमार ने पिछले वर्ष ‘दलित आंदोलन: बीएसपी एक विकल्प’ नाम से एक किताब लिखी.
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कंचन चंद्रा का अध्ययन और बीएसपी
इन सभी किताबों में प्रो कंचन चंद्रा का अध्ययन सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विकासशील देशों में उभर रही राजनीतिक पार्टियों को समझने में मदद करता है. अपनी इस ख़ूबी कारण ही आज यह किताब और एथिनिक पार्टियों पर उनकी थ्योरी दुनियाभर के विश्वविद्यालयों में ‘पार्टी सिस्टम’ को समझने के लिए पढ़ाई जाती है.
कंचन चंद्रा अपने अध्ययन में बीएसपी को एक एथिनिक पार्टी पाती हैं. राजनीति विज्ञान में एथनिक पार्टी उन पार्टियों को कहा जाता है जो किसी जाति, धर्म, नस्ल, रंग, भाषा के आधार पर बनती हैं. विकसित देशों में अक्सर विचारधारा के आधार पर राजनीतिक पार्टियों का निर्माण होता है. वहीं, भारत जैसे विकासशील देशों में, जहां सामाजिक विविधता ज़्यादा होती है, वहां एथनिक पार्टियों का जन्म होता है.
कैसे काम करती हैं एथनिक पार्टियां
एथनिक पार्टियां कुछ जाति/समूहों का गठजोड़ बनाकर सत्ता पर क़ब्ज़ा करती हैं, और सत्ता में आने पर उन समूहों में ही ज्यादातर अवसर एवं संसाधनों का बंटवारा करती हैं. एथनिक पार्टियों के ऐसा करने से तमाम वे सामाजिक समूह नाराज़ हो जाते हैं, जिनको अवसर-संसाधन में उचित हिस्सेदारी नहीं मिलती. अपनी नाराज़गी की वजह से ये समूह दूसरा गठजोड़ बनाकर सत्ता में क़ाबिज़ समूह को शासन से बाहर कर देते हैं और सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं.
एथनिक पार्टियों की एक अन्य समस्या होती है कि कोई एक जाति/समूह धीरे-धीरे उस पार्टी की पूरी मशीनरी को अपने क़ब्ज़े में कर लेता है, जिससे अन्य जातियों/समूहों का उससे तेज़ी से मोहभंग होता जाता है. एथनिक पार्टियों में यह प्रक्रिया कुछ एक परिवारों के हाथों में पार्टी के आ जाने पर रुकती है. इन दोनों अवधारणाओं को हम बीएसपी के परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करते हैं.
बीएसपी का एथनिसाइजेशन बनाम बीजेपी की संरचना
बीएसपी का गठन 1984 में भले ही हुआ, लेकिन वह अपने पूर्ववर्ती संगठन डीएसफ़ोर (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) से बनी थी. बीएसपी के गठन से तीन साल पहले 1981 मेंबीजेपी का गठन हुआ था. अगर हम बीएसपी और बीजेपी के पार्टी अध्यक्षों की लिस्ट बनाएं तो बीएसपी में मात्र दो व्यक्ति कांशीराम (पंजाब) और मायावती (उत्तर प्रदेश) राष्ट्रीय अध्यक्ष बने वहीं, इतने ही समय में, बीजेपी में कुल 10 व्यक्ति अटल बिहारी बाजपेयी (मध्य प्रदेश), लालकृष्ण आडवाणी (गुज़रात), मुरली मनोहर जोशी (उत्तर प्रदेश), कुशाभाऊ ठाकरे (मध्य प्रदेश), बंगारू लक्ष्मण (आन्ध्र प्रदेश), जना कृष्णमूर्ति (तमिलनाडु), वेंकैया नायडू (आध्र प्रदेश), नितिन गडकरी (महाराष्ट्र), राजनाथ सिंह (उत्तर प्रदेश), और अमित शाह (गुजरात) राष्ट्रीय अध्यक्ष बने.
बीएसपी के दोनों अध्यक्ष चमार/जाटव समाज के बने, जबकि बीजेपी के अध्यक्ष ब्राह्मण, दलित, पिछड़ा, बनिया, कम्मा, क्षत्रिय, जैन आदि समाज से बने. बीजेपी ने अध्यक्ष के साथ-साथ हर समय 5-6 उपाध्यक्ष, कई सारे राष्ट्रीय महासचिव, सचिव और फ़्रंटल संगठनों के अध्यक्ष बनाए जो कि अलग-अलग राज्य और समुदायों से थे और उन्हें महत्व भी दिया. बीजेपी की रणनीति यह थी कि पार्टी केवल कागज पर राष्ट्रीय न दिखे, बल्कि जनता के अलग अलग तबकों के दिलों-दिमाग़ में उतर जाए. अलग समूहों को प्रतिनिधित्व देने की वजह से बीजेपी एथनिक पार्टी होने (बीजेपी का कोर हिंदू सवर्ण वोटर है) के बावजूद भी एथनिक नहीं दिखती, वहीं बीएसपी अपनी संरचना और नेतृत्व के केन्द्रीयकरण की वजह से साफ़-साफ़ एथनिक पार्टी दिखती है.
वहीं बीएसपी ने अभी तक सिर्फ़ दो अध्यक्ष और पांच उपाध्यक्ष बनाए. स्थापना के शुरुआती दो दशक तक पार्टी का बेहतरीन संगठन भी था, जिसमें अलग अलग समुदायों से आने वाले महासचिव, सचिव, कोषाध्यक्ष आदि पदाधिकारी थे, लेकिन आजकल इन पदों पर नियुक्तियां केवल खानापूर्ति के लिए होती हैं. जब पार्टी बहुत ज़्यादा एथनिसाइज़ हो जाएगी, तो उसका नुक़सान उठाना ही पड़ेगा. भारत में एथनिसाइजेशन का मतलब किसी एक जाति या समुदाय द्वारा पार्टी पर क़ब्ज़ा करने से होता है.
बीएसपी में सत्ता संघर्ष और एक जाति का नियंत्रण
सवाल उठता है कि राजनीतिक पार्टियां एथिनिसाइज़ कैसे हो जाती हैं? इसका जवाब राजनीतिक पार्टियों में सत्ता हस्तांतरण में है, जिसके जरिए एक पीढ़ी के नेताओं से दूसरी पीढ़ी के नेताओं में पार्टी ढांचे का संक्रमण होता है. एक बात स्पष्ट है कि अगर पार्टी एथनिसाइज हो गयी और एक समुदाय से चिपक गई, तो उसके लिए अपनी बदौलत चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जाता है.
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बीएसपी में नेतृत्व के लिए संघर्ष दो बार हुआ. पहला संघर्ष 1995 के आसपास शुरू हुआ, जब पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने मायावती को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया. दरअसल कांशीराम ने पिछड़े वर्ग के तमाम नेताओं को यह आश्वासन देकर अपनी पार्टी से जोड़ा था कि उनको सत्ता में आने पर बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनाएंगे. ये नेता अपने समाज/जाति की रैलियों में इस बात की घोषणा करते थे. इसलिए जब कांशीराम ने मायावती को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया, तो उनके कई सहयोगी उनसे अलग हो गए. राजनीति का बेमिसाल खिलाड़ी होने की वजह से कांशीराम उस झटके से पार्टी को तो संभाल ले गए, लेकिन उन्होंने मैसेज दे दिया कि बीएसपी किस समुदाय की पार्टी रहेगी?
बीएसपी में नेतृत्व के लिए दूसरे दौर का संघर्ष तब हुआ जब कांशीराम बीमार पड़े. बीएसपी नेताओं ने मायावती से मांग करनी शुरू की कि वे भी अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करें. इसके जवाब में उन्होंने हरियाणा की एक रैली में घोषणा कर दिया कि उनका उत्तराधिकारी उनकी अपनी जाति से होगा, उम्र में काफ़ी छोटा होगा, लेकिन उनके परिवार से नहीं होगा.
लखनऊ में अपनी पार्टी की एक रैली में तो उन्होंने एक पर्ची पर लिखकर अपने सिपहसलारों को वह नाम तक दे दिया था, यह अलग बात है कि आज उनके वो सिपहसलार उनको छोड़कर जा चुके हैं. मायावती द्वारा यह कहना कि उनका उत्तराधिकारी उनकी ही जाति से होगा, बीएसपी के लिए आत्मघाती हुआ. मायावती की अपनी जाटव/चमार जाति के अलावा अन्य दलित जातियों और ओबीसी को इस घोषणा ने बीएसपी से दूर कर दिया. ओबीसी और मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा 1995 के आसपास हुए सत्ता संघर्ष के बाद इस पार्टी से दूर जा ही चुका था.
बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट के जरिए संसाधन पर कब्जा
नेतृत्व परिवर्तन के दूसरे दौर के संघर्ष के दौरान ही एक अन्य घटना हुई, जिसके तहत मायावती ने बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट नाम से एक नयी संस्था का गठन कराया, जिसकी वे ख़ुद अध्यक्ष बनीं, और अपने भाई आनंद कुमार को इसका सदस्य बनवाया. धीरे-धीरे करके लखनऊ, दिल्ली एवं नोएडा की बहुमूल्य ज़मीनें, जो कि बीएसपी के नाम पर ख़रीदी गयीं थी, उसको इस ट्रस्ट के नाम करा लिया, जिसको लेकर समय-समय पर मीडिया में काफ़ी बवाल मचता रहा है.
इसके तीन परिणाम हुए; पहला, बाहर से बीएसपी ऐसे पार्टी दिखने लगी जिसके पास सम्पत्ति नहीं है, जबकि अंदर से मामला कुछ और ही है; दूसरा, कानूनी तौर पर पिछले दरवाज़े से मायावती के परिवार की बीएसपी की संरचना में एंट्री हो गयी, क्योंकि ट्रस्ट को मैनेज करने के बहाने बीएसपी का पूरा का पूरा संसाधन ही उनके कंट्रोल में आ गया. दिल्ली में बीएसपी को नज़दीक से जानने वाले बताते हैं कि 2009 से आनंद कुमार इस पार्टी की समूची वित्तीय गतिविधियों को मैनेज करते हैं.
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण परिणाम ये हुआ कि बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट के नाम पर सम्पत्तियों के ट्रांसफ़र की वजह से ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज के बचे खुचे नेताओं में एक अलग तरह की बेचैनी पैदा हो गयी, क्योंकि बीएसपी की सम्पत्ति को दलित-आदिवासी-पिछड़े सभी समाज के लोगों के चंदे से ख़रीदा गया था. कुल मिलाकर कहें तो ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज के नेता अपने को शक्तिहीन महसूस करने लगे और एक-एक करके बाहर जाने लगे. इसका परिणाम यह हुआ कि ओबीसी समाज में इस पार्टी का समर्थन समाप्त हो गया. अल्पसंख्यक भी पार्टी से काफी हद तक अलग हो चुके हैं. हालांकि सपा के साथ गठबंधन और विकल्पहीनता के कारण अल्पसंख्यक वोट इस बार बीएसपी को मिला है, लेकिन इससे बीएसपी की वह समस्या दूर नहीं होती, जो इसकी संरचना में आ चुकी है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं )