नरेंद्र मोदी सरकार ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के नियमों की अधिसूचना पिछले दिनों जिस तात्कालिक मकसद से जारी की वे, ऐसा लगता है कि पूरा होने से रह गया. यह मकसद था चुनावी बॉण्ड्स पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खबर को दबाना, लेकिन इस खबर में इतना दम था कि वे दब न सकी.
सीएए वाली खबर तो अपनी मौत खुद मर रही थी, लेकिन दो बातों ने उसे ज़िंदा कर दिया. एक, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस कानून पर यह कहते हुए हमला कर दिया कि यह पाकिस्तान और बांग्लादेश के लाखों “अवैध गरीब और बेकार प्रवासियों तथा घुसपैठियों” के लिए निमंत्रण पत्र के जैसा है. इस बयान के विरोध में दिल्ली की अवैध बस्तियों में अमानवीय स्थितियों में रह रहे सैकड़ों पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थियों ने केजरीवाल के निवास के आगे प्रदर्शन शुरू कर दिया.
इससे भी ज्यादा अहम भूमिका अमेरिका के विदेश विभाग ने निभाते हुए इस खबर को वापस चर्चा में ला दिया — कम-से-कम अखबार के निचले हिस्से में छापी जाने वाले खबर के रूप में. विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने अपनी सामान्य ‘ब्रीफिंग’ में कहा कि अमेरिका इस कानून को लेकर चिंतित है तथा इसका गंभीर अध्ययन कर रहा है और वे सभी धर्मों/आस्थाओं की समानता के पक्ष में खड़ा रहेगा.
यहां पर मैं उनसे और विदेश विभाग के उनके बड़े अधिकारियों से विनम्र अनुरोध करूंगा कि अगर गहन अध्ययन करने के बाद आप लोग इसमें कुछ गलत पाएं तो इसे हम, भारत के लोगों को भी समझाएं, जैसा कि 1965 की फिल्म ‘तीन देवियां’ में देवानंद ने किशोर कुमार की आवाज़ में मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गाना गया था — ‘अगर तुम्ही समझ सको, मुझे भी समझाना’.
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पुराने हिंदी फिल्मी गानों के प्रति अपने मोह को उजागर करने के लिए मुझे माफ कीजिए, लेकिन मैं यही कहूंगा कि हकीकत यह है कि गहन अध्ययन करने के बाद भी मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं कि सीएए और इसके नियम अपने वर्तमान रूप में अच्छे हैं कि बुरे हैं —कुछ-कुछ दोनों हैं — बेमानी हैं. आइए इसकी जांच इससे कथित रूप से फायदा पाने वालों, नुकसान उठाने वालों और इसके पक्ष में सैद्धांतिक तर्क देने वालों के नज़रिए से करते हैं.
- इससे फायदा मुख्यतः पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदुओं, कुछ सिखों, ईसाइयों, और कुछ बौद्धों को हो सकता है. इनकी वास्तविक संख्या मालूम होना मुश्किल है. हालांकि, भारत के विपरीत पाकिस्तान में 2023 में ही जनगणना की गई है. फिलहाल मान लें कि यह संख्या 2 करोड़ है जिसमें 95 फीसदी हिंदू हैं. मान लेते हैं कि उनमें से अधिकतर को या किसी को वहां घोर यातना महसूस हो रही हो और वे भारत आना चाह रहे हों, तो क्या वे सीएए को देखकर बेहद खुश नहीं होंगे? बदकिस्मती से इसका जवाब ‘ना’ है. वे 10 साल पीछे हैं. इस कानून से केवल उनको फायदा होगा, जो 31 दिसंबर 2014 तक भारत आ गए हैं, क्योंकि अर्ज़ी देने के लिए यही ‘कट-ऑफ’ तारीख तय की गई है.
- यह एक शर्त है, लेकिन क्या उपरोक्त तारीख से पहले भारत आने वालों को फायदा मिलेगा? मिलेगा, लेकिन वे यह सवाल पूछ सकते हैं कि मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार अगर उनके लिए इतनी ही चिंतित थी तो उसने पिछले 10 साल में उन्हें नागरिकता क्यों नहीं दी? भारत सरकार को पूरा अधिकार है कि वह जिसे चाहे उसे भारत की नागरिकता दे सकती है. इसके लिए उसे किसी समुदाय की खातिर कोई विशेष कानून बनाने की ज़रूरत नहीं है. गायक अदनान सामी को भारतीय नागरिकता देने के लिए किसी नए कानून की ज़रूरत तो नहीं पड़ी और यह बड़े धूमधाम से केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू की मौजूदगी में कैमरों के सामने दी गई. तो पाकिस्तान और बांग्लादेश के हम गरीब और बदहाल हिंदुओं को इतने साल तक अमानवीय स्थितियों में अवैध प्रवासियों की तरह रहने को मजबूर क्यों किया गया? क्या हमें 10 साल तक इसलिए इंतज़ार करवाया गया कि भाजपा अपनी सियासत के लिहाज़ से ज्यादा माकूल समय का इंतज़ार कर रही थी?
- जिन्हें फायदा मिल सकता था उनका मामला तो आपने देख लिया, अब हम उन्हें देखेंगे जिन्हें इस कानून से खतरा महसूस हो सकता है. आज शाहीन बाग जैसा विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं हो रहा है? क्योंकि 2019 में विरोध का जो कारण था वो आज मौजूद नहीं है. तब, सीएए के बाद देशभर में नागरिकता का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) बनाने की प्रक्रिया चलाने की भी घोषणा की गई थी. एनआरसी के डर को खत्म कर दिया गया है. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी ने 22 दिसंबर 2019 को रामलीला मैदान में दिए अपने भाषण में इसे हास्यास्पद बताया था. ज़ाहिर है उनकी पार्टी को यह एहसास हो गया था कि यह कुछ अति ही होगी. इससे साफ इनकार तब सामने आ गया जब प्रधानमंत्री प्रमुख इस्लामी मुल्कों से उनका सर्वोच्च सम्मान हासिल करते हुए गर्व महसूस कर रहे थे और पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए मध्यपूर्व के अरब देशों के साथ अपने नए रिश्ते के महत्व को समझ रहे थे. इसके बाद से बीजेपी के किसी नेता ने एनआरसी का नाम नहीं लिया. जब कोई एनआरसी नहीं होगा, तो भारत में किसी मुसलमान को डरने का कोई कारण नहीं होगा.
- इस कानून से अगर देश के किसी हिस्से को फर्क पड़ेगा तो वो है — असम. भारतीय नागरिकता कानून में अब तक जितने भी परिवर्तन किए गए हैं उनसे असम को अलग रखा गया है. यह इस राज्य में अवैध प्रवासियों के विरोध (बाद में इसे विदेशियों का विरोध कहा गया) में 1979 के बाद हुए जन आंदोलन का ख्याल रखते हुए किया गया. ब्रह्मपुत्र घाटी और जनजातीय क्षेत्रों के असमिया भाषी स्थानीय लोगों का मानना है कि करोड़ों बांग्लादेशी उनके राज्य में अवैध रूप से आकर बस गए हैं, जिसके चलते आबादी का संतुलन बिगड़ गया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) चार दशकों से ज्यादा समय से असम के हिंदुओं को यह समझाने का अभियान चलाता रहा है कि वे बंगाली मुसलमानों और हिंदुओं के बीच फर्क करें. इसमें वह सफल तो रहा, मगर पूरी तरह नहीं.
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असम का मामला अलग है क्योंकि वहां एनआरसी की प्रक्रिया पहले ही शुरू कर दी गई थी. असम दोहरे पेंच में फंस गया. पहले तो एनआरसी की प्रक्रिया में कई हिंदू प्रवासी विदेशी निकले. भाजपा/आरएसएस के तमाम प्रचार और उभार के बावजूद बड़ी संख्या में ऐसे असमी हैं, खासकर छात्र समुदाय, जो बंगाली हिंदुओं को स्वीकार करने को राज़ी नहीं हैं. यही वजह है कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा अब किसी नए आंदोलन को रोकने के लिए यह कह रहे हैं कि लाखों-करोड़ों बंगाली हिंदुओं को शामिल करने का विचार हास्यास्पद है. उनका कहना है कि बस बराक घाटी में करीब “50-80 हज़ार लोगों (हिंदुओं)” को ही शामिल किया जा सकता है. राजनीतिक रूप से विभाजनकारी इस कानून से अगर महज़ इतने ही लोगों को लाभ मिलेगा, तो आप सवाल कर सकते हैं कि तब इसकी ज़रूरत ही क्या थी?
यह निष्कर्ष निकालना ठीक होगा कि भाजपा की यह सियासी चाल बहुत कारगर नहीं रही क्योंकि इससे जिन लोगों को लाभ मिलता उन्हें पहले से मौजूद कानून के तहत भी आसानी से शामिल किया जा सकता है और नए प्रवासियों को अलग-थलग रखा जा सकता है. प्रधानमंत्री ने एनआरसी को खेल से खुद ही अलग कर दिया, तो देशव्यापी ध्रुवीकरण की उम्मीदें हवा हो गईं.
मुस्लिम समुदाय ने भी ताज़ा घटनाक्रम पर कोई प्रतिक्रिया न करके उपेक्षित पक्ष की चतुराई भरी समझदारी का परिचय दिया है. सरकार आस्था के आधार पर नागरिकता को परिभाषित कर सकती है या नहीं, इस सवाल पर सैद्धांतिक, संवैधानिक बहस सुप्रीम कोर्ट में जारी रह सकती है. उसका जो भी फैसला हो, वो अकादमिक महत्व का ही होगा, उससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ सकता है.
नागरिकता प्रमाण पत्र सौंपे जाने को लेकर कुछ समारोह और शोर-शराबा हो सकता है. इसके अलावा, यही कहा जा सकता है कि जल्दबाज़ी और राजनीतिक गड़बड़झाले के कारण सीएए का मकसद नाकाम हो गया है. इसमें जान तभी आ सकती है जब या तो देशव्यापी एनआरसी की बात फिर उठाई जाए, या कट-ऑफ तारीख 31 दिसंबर 2014 से आगे बढ़ाई जाए, या दोनों साथ-साथ किया जाए. क्या यह मुमकिन है? मैं कहूंगा कि 2029 के चुनाव से पहले आप इस कॉलम पर नज़र रखिएगा.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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