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Friday, 22 November, 2024
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कांशीराम 6,000 जातियों को जोड़ना चाहते थे, मायावती तीन जातियों को

मायावती को उम्मीद थी कि 2019 में अगर जाटव, यादव और कैंडिडेट की अपनी जाति इकट्ठा हो जाए और उसमें मुस्लिम वोटर जुट जाए, तो उनके उम्मीदवार जीत जाएंगे. ऐसा न होना था, न हुआ

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बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती जिस समय पार्टी के पदाधिकारियों के साथ लोकसभा चुनाव परिणामों की समीक्षा कर रही थीं, ठीक उसी दिन समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव आजमगढ़ में मतदाताओं के प्रति आभार व्यक्त कर रहे थे.

अखिलेश की सभा खुली थी. फेसबुक, ट्विटर पर लाइव चल रहा था, समाचार माध्यमों में खबरें चल रही थीं. इसमें अखिलेश को मतदाताओं के साथ बसपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के प्रति आभार व्यक्त करते दिखाया जा रहा था. गठबंधन के मिल जुलकर काम करने की कामना की जा रही थी. वहीं मायावती की समीक्षा के बाद ऑफ रिकॉर्ड प्रेस ब्रीफिंग में बसपा के नेता बता रहे थे कि मायावती की समीक्षा में यह निकलकर सामने आया है कि यादवों ने सपा दिग्गजों धर्मेंद्र यादव और डिंपल यादव तक को वोट नहीं दिया. यादवों का वोट बसपा को भी पूरी तरह ट्रांसफर नहीं हुआ, जिससे बसपा को नुकसान हुआ. साथ ही यह भी खबर आई कि कभी भी मध्यावधि चुनाव न लड़ने वाली बसपा ,उत्तर प्रदेश के उपचुनाव अकेले लड़ेगी.

दूसरे दिन मायावती ने मीडिया को बुलाकर बड़ी शालीनता से अखिलेश यादव और डिंपल यादव का आभार जताया. यह भी बता दिया कि यादवों ने गठबंधन को वोट नहीं दिया और उपचुनाव में बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी.


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हार की जिम्मेदारी पहले ईवीएम और फिर यादवों पर

उत्तर प्रदेश में गठबंधन के बुरी तरह से पिटने के बाद सबसे पहले मायावती ने ही ईवीएम पर सवाल उठाया था. वह अपने उस रुख पर 15 दिन भी कायम नहीं रह पाईं. 23 मई को परिणाम आने पर ईवीएम पर संदेह था और 3 मई आते आते उन्हें यह भरोसा हो गया कि यादवों ने वोट  नहीं दिया, जिसके कारण गठबंधन चुनाव में पिट गया.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिस तरह से धुर प्रतिद्वंद्वी दल जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल ने गठबंधन कर बिहार के विधानसभा चुनाव में सफलता हासिल की, उसके आस पास भी सपा-बसपा-रालोद गठजोड़ नहीं फटक सका. इसकी तमाम वजहें हो सकती हैं और तमाम समीक्षाएं. गठबंधन ने लगातार यह संदेश दिया कि दलित, यादव और मुस्लिम का अजेय समीकरण है. इसे हराया नहीं जा सकता. वहीं बिहार में इस तरह का कोई जातीय गणित नहीं जोड़ा गया था. दोनों दलों के प्रमुख नीतीश कुमार औऱ लालू प्रसाद लगातार इस बात पर जोर दे रहे थे कि हम वंचित तबके की भलाई के लिए एकजुट हुए हैं. यूपी के गठबंधन को भाजपा ने बड़ी आसानी से साबित कर दिया कि बेर-केर इसलिए संग आए हैं कि इन्हें सत्ता चाहिए. यह जातीय समीकरण बनाकर सत्ता हथियाना चाहते हैं. इनका कोई विजन नहीं है.

जातियों का गणित चुनावी जीत के लिए काफी नहीं

मायावती की यह गलतफहमी बसपा के लिए जानलेवा नजर आती है कि यादवों ने वोट दे दिया होता तो गठबंधन की यह दुर्गति न होती. य़ूपी में केंद्र की आरक्षण सूची में ओबीसी की 76 जातियां मौजूद हैं, जिनमें से एक अहिर/यादव जाति के अखिलेश यादव हैं. वहीं राज्य की अनुसूचित जाति की सूची में कुल 66 जातियां हैं, जिसमें 24वें स्थान पर चमार, धूसिया, झूसिया, जाटव दर्ज है. इसी में से जाटव जाति की मायावती हैं, जिन्हें चमार, धूसिया, झूसिया से भी अलग माना जाता है. ऐसे में यह गणना कर लेना कि जाटव, यादव और मुस्लिम मिलकर किसी चुनाव में जीत दिला सकते हैं, यह कल्पना भी मुश्किल है. बसपा की हाल के वर्षों में गणना यह भी रही है कि जिस जाति के कैंडीडेट को टिकट दे दिया जाए, उनके वोट भी आ जाते हैं और इससे चुनाव में जीत मिल जाती है.


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कांशीराम हजारों जातियों को जोड़ना चाहते थे

अभी भी मायावती इसी जातीय गिनती पर चल रही हैं. काशीराम ने हजारों जातियों को बहुजन बनाने का सपना देखा था, जिसमें वह देश की 85 प्रतिशत आबादी के हक की बात करते थे. वहीं मायावती ने लोकसभा चुनाव में संभवतः उत्तर प्रदेश की 3 जातियों यादव, जाटव और प्रत्याशी की जाति व मुसलमानों को जोड़कर अप्रत्याशित जीत का सपना देखा था, जो हकीकत में तब्दील नहीं हो सका. मायावती के बयान से अब भी यही लगता है कि इन तीन जातियों और मुस्लिम का गठजोड़ बहुत ही मजबूत होता, लेकिन यादवों ने चुनाव में धोखा दे दिया.

उधर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कानपुर की कोरी जाति में जन्मे रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बना दिया. कोरी जाति जाटव से ऊपर मानी जाती है और उनका रहन सहन बिल्कुल अलग है. मध्य उत्तर प्रदेश में इनकी बड़ी संख्या है, जो अनुसूचित जाति में आते हैं. वहीं पासवान और खटिक जैसी जातियों को भाजपा ने अपनी ओर जोड़ लिया, जो हाल के वर्षों में हिंदुत्व के बड़े पैरोकार बनकर उभरे हैं. बनारस और गोरखपुर में बड़े पैमाने पर खटिक और पासवान जातियों की मौजूदगी है, जो भाजपा की बहुत ही कट्टर मतदाता बन चुकी हैं.

राज्य में 20.7 प्रतिशत आबादी एससी की है. वह भी लोकसभावार कहीं कम, तो कहीं ज्यादा असरदार हो सकते हैं. अगर किसी एक दल को इन मतों का मालिक भी मान लिया जाए (हालांकि यह संभव नहीं होता क्योंकि तमाम दलित जातियां एक नेता का नेतृत्व नहीं मानतीं) तो वह सभी लोकसभा सीटों पर दलित मत ट्रांसफर कराकर जीत हासिल कर लेगी, यह सोचना भी अजीब लगता है. पूरे दलित वोट का ट्रांसफर भी वही जाति कर सकती है, जो तमाम दलित जातियों को साथ लेकर चलती है और सबके हितों का खयाल रखती है.

बीजेपी का दलित मतदाताओं पर दांव

भाजपा को उत्तर प्रदेश में ओबीसी पर भरोसा नहीं है. केंद्रीय मंत्रिमंडल में जिस तरह से मंत्रियों के चयन में कुर्मी, कोइरी जैसी जातियों की उपेक्षा की गई, उससे यह तय हो गया है कि पार्टी ने इन्हें नेतृत्व न देकर क्षेत्र विशेष में टिकट देकर इन जातियों का वोट लेने का मन बनाया है. भाजपा को यह अहसास है कि कुर्मी, कोइरी, निषाद, राजभर जैसी जातियां कभी भी भाजपा के खिलाफ एकजुट हो सकती हैं और वे भाजपा से दूर जा सकती हैं. ऐसे में भाजपा ने अब दलितों को अपने पाले में करने का मन बनाया है. इसके लिए वह विभिन्न दलित जातियों को टिकट देने से लेकर उन्हें संगठन में जगह देने की रणनीति पर काम कर रही है. इसके अलावा आरएसएस भी लगातार दलित जातियों के बीच सक्रिय है और उन्हें हिंदुत्व के एजेंडे से जोड़ने में लगा है. कई दलित जातियों के नेता इस बीच बीजेपी से जुड़े भी हैं.

बहुजन एजेंडे, बहुजनों की समस्याओं, उनकी आकांक्षाओं और सपनों से दूर हट चुकीं बसपा प्रमुख मायावती अब सिर्फ जातीय गणित पर केंद्रित हैं. मायावती अब नीतियों की बात कम करती हैं और उन्हें लगता है कि वोट लेने के लिए जाति ही अपने आप में मुकम्मल है. वहीं भाजपा उनके पैर के नीचे से जमीन खींच चुकी है. शायद अब उनके कार्यकर्ता उन्हें सही बात बताने का साहस नहीं रखते, या मायावती हकीकत सुनना नहीं चाहतीं. यह भी संभव है कि मायावती ने अब अपनी और बसपा की राजनीतिक पारी खत्म करके और केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, खुफिया जांचों, न्यायालयों से दूर रहकर शेष जिंदगी सुकून से जीने का मन बना लिया हो.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.) 

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