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Friday, 22 November, 2024
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भारत के बुनियादी विचार के खिलाफ है नागरिकता संशोधन विधेयक

ये विधेयक भारत में बाहर से आकर बसे हुए लोगों को, धार्मिक आधार पर विभेद करते हुए, नागरिकता प्रदान करने की बात करता है. इस दृष्टि से ये विधेयक संविधान निर्माताओं की भावना के खिलाफ है.

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लोकसभा भंग होने के साथ ही सरकार द्वारा लाया गया विवादित नागरिकता संशोधन विधेयक भी रद्द हो जाएगा. सरकार ने 8 जनवरी, 2019 को इसे लोकसभा में पेश किया था, जहां ये पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में ये बिल पास नहीं हो सका. लोकसभा में बीजेपी की पूर्ण बहुमत से वापसी के बाद बहुत संभव है कि इसे फिर से पास कराने की कोशिश की जाए.

क्या है नागरिकता संशोधन विधेयक

इस विधेयक द्वारा अफगानिस्तानबांग्लादेश और पाकिस्तान से 31 दिसंबर, 2014 से पहले आने वाले धर्मों के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने का रास्ता खोल दिया जाना था. ये धर्म हैं – हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी और ईसाई. गौरतलब है कि इस्लाम मानने वालों को इसमें शामिल नहीं किया गया था. नागरिकता के लिए उन्हें सात साल भारत में रहना सिद्ध करना होगा. नागरिकता देने के लिए उनसे कोई दस्तावेज नहीं मांगा जाएगा.

इस बिल को लोकसभा में पेश करते हुए तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि इन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर तरह तरह के जुल्म होते हैं और इन लोगों के पास रहने के लिए भारत के अलावा कोई देश नहीं है.

विधेयक का विरोध और तर्क

नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर विवाद और विरोध इसलिये रहा है क्योंकि माना जा रहा है कि ये भारतीय संविधान की भावना के खिलाफ है. इसे भारत को, जो कि एक सेकुलर स्टेट है, हिन्दू राष्ट्र बनाने की दिशा में एक कदम के तौर पर देखा जा रहा है, जहां नागरिकता का आधार धर्म भी होगा.

विधेयक पर विचार करने के लिए बनी सयुंक्त संसदीय समिति में इस बारे में आम सहमति नहीं बन पाई और विपक्षी दलों ने नागरिकता को धर्म से जोड़ने का विरोध किया. इसके अलावा ये तर्क भी दिया गया कि ये विधेयक असम समझौते का भी उल्लंघन है, जिसके तहत 1971 के बाद भारत आने वाले लोगों को नागरिकता नहीं दी जा सकती. लेकिन संयुक्त संसदीय समिति में सत्ता पक्ष के सदस्यों का बहुमत होने के कारण उसकी रिपोर्ट को मंजूर कर लिया गया. 8 जनवरी, 2019 को ये विधेयक लोकसभा में पारित हो गया.

आइये देखें क्यों इस विधेयक को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं.

क्या है नागरिकता के अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत

नागरिकता प्रदान करने के मुख्यतः दो सिद्धांत विश्वभर में चलते हैं. पहला ज्यूस सैंग्यूनिस (jus sanguinis). इसके मुताबिक नागरिकता नस्ल या रक्त सम्बन्ध के आधार पर दी जाती है. माता-पिता की नागरिकता के आधार पर नागरिकता देना इसी का रूप है. और दूसरा ज्यूस सोलि (jus soli) यानि ज़मीन के आधार पर जो कि एंग्लो-अमेरिकन कांसेप्ट है. नागरिकता के इस सिद्धांत को मानने वाले देश अपनी भूमि पर पैदा होने वाले हर बच्चे को नागरिकता प्रदान करते हैं. एक भारतीय अमेरिका जाकर अमेरिकी नागरिक हो सकता है बशर्ते वो नेचुरलाइज़ेशन की प्रक्रिया पूरी करे. लेकिन एक अमेरिकी दंपति की भारत में पैदा हुई संतान भारतीय नागरिक नहीं होगी.

भारत पहले ज्यूस सोलि के आधार पर नागरिकता देता था लेकिन अब यहां ज्यूस सैंग्यूनिस का भी समावेश किया गया है. नागरिकता कानून 1955 के तहत भारत में जन्म लेने वाले बच्चों को भारतीय नागरिकता दी जाती थी. लेकिन 2004 में नागरिकता कानून में संशोधन के बाद भारत में जन्म लेने वाले बच्चे को भारतीय नागरिकता तभी मिलेगी जब उसके माता या पिता में से एक जन्मजात भारतीय नागरिक हो. यानी अब जन्मभूमि के अलावा रक्त संबंध भी भारत में नागरिकता का आधार हैं. अगर भारत नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 को कानून बनाता है तो सैद्धान्तिक रूप से हम ज्यूस सैंग्यूनिस की संकीर्ण संकल्पना की ओर और आगे बढ़ेंगे.

संविधान निर्माताओं का मत

संविधान बनाते समय संविधान सभा में नागरिकता सम्बन्धी प्रावधानों पर हुई चर्चा में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जो कहा वो गौर फरमाने लायक है. पटेल कहते हैं –

‘आधुनिक दुनिया में राष्ट्रीयता के बारे में दो विचार हैंएक व्यापक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर आधारित है और दूसरा संकीर्ण राष्ट्रीयता है. दक्षिण अफ्रीका में हम वहां पैदा हुए भारतीयों के लिए दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रीयता का दावा करते हैं. संकीर्ण दृष्टिकोण रखना हमारे लिए सही नहीं है.’

इस पर सभापति राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, ‘हम दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए उस देश की राष्ट्रीयता का दावा न केवल जन्म से, बल्कि वहां बसने के कारण करते हैं.’

लेकिन ये विधेयक भारत में बाहर से आकर बसे हुए लोगों में, धार्मिक आधार पर विभेद करते हुए नागरिकता प्रदान करने की बात करता है. इस दृष्टि से ये विधेयक संविधान निर्माताओं की भावना के खिलाफ है.

धर्म आधारित विधेयक

कब कोई कानून किसी धर्म विशेष को स्थापित करता है या आगे बढ़ाता है, इसे जांचने के लिये 1971 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने लेमन बनाम कर्ट्ज़मेन केस में एक टेस्ट किया, जिसमें किसी कानून को निम्न कसौटी पर खरा उतरना जरूरी बताया.

1कानून आवश्यक रूप से सेक्युलर होना चाहिए,
2कानून का प्रभाव ऐसा नहीं होना चाहिये कि किसी धर्म विशेष को बढ़ावा मिले या किसी धर्म का निषेध हो, 
3कानून धर्म और राज्य में सम्बन्ध स्थापित न करता हो.

अगर इसको नागरिकता संशोधन विधेयक के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो ये विधेयक इस टेस्ट में फेल हो जाता है क्योंकि ये विधेयक सेकुलर नहीं हैं और इसमें धर्मों के आधार पर भेद किया गया है.

क्या धर्म‘ नागरिकता प्रदान करने का आधार हो सकता है?

बिना किसी लाग लपेट के इसका सीधा जवाब है नहीं. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 और 15(1) ऐसा करने की इजाजत नहीं देता. अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण करने का मैंडेट देता है. विधियों के समान संरक्षण का अर्थ है कि एक जैसी परिस्थितियों में एक सा कानून. ये औपचारिक समानता (formal equality) की बजाय, तात्विक समानता (substantive equality) को तरजीह देता है. अनुच्छेद 15(1) भी धर्म के आधार पर भेदभाव करने की इजाजत राज्य को नहीं देता. कानूनी शब्दों में बात करें तो ये अनुच्छेद क्लासिफाइड लेजिस्लेशन की जगह रिज़नेबल क्लासिफिकेशन की बात करता हैलेकिन ये क्लास इस तरह से नहीं बनाया जा सकता कि संविधान के खिलाफ जाये. नागरिकों के बीच विभाजन किया जा सकता है, लेकिन ये मनमाने तरीके से नहीं हो सकता.

सवर्ण (ईडब्ल्यूएस) आरक्षण की तरह, नागरिकता संशोधन विधेयक के लिए न तो एम्पेरिकल य़ानी पुष्टि योग्य डेटा है, न न्यायसंगत उद्देश्य और न ही नागरिकों के बीच विभाजन का कोई उचित आधार. सरकार इनके बिना ही ये कानून लाना चाहती है. सरकार ने इस बात का भी कोई उचित जवाब नहीं दिया है कि अहमदियाशिया और रोहिंग्या मुस्लिम जैसे समुदाय जिनका लगातार उत्पीड़न होता रहा है, उनको इसमें नागरिकता की योग्यता सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया.

संघीय ढांचे पर असर

जब भी देश की विविधता को नकारते हुए हिंदी, हिन्दू, हिंदुस्तान की बात की जाती है तब भारत के कई हिस्सों में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिलती हैखास तौर से उत्तर पूर्वी राज्यों और दक्षिणी भारत में. जाहिर है इस विधेयक के साथ भी ऐसा ही कुछ होना था. असममेघालयमिजोरम आदि राज्यो में इसका जबर्दस्त विरोध हुआ. वहां के लोगों की मुख्य चिंता इलाके की आबादी की संरचना और अल्पसंख्यक बन जाने का भय है. उनकी समस्या हर तरह के शरणार्थी हैं. उन्हें इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि शरणार्थी किस धर्म को मानने वाले हैं.

पहले किए गए समझौते का उल्लंघन

इसके अलावा इस कानून के आने से असम समझौता और एनआरसी पर भी प्रभाव पड़ेगा. असम समझौता बिना किसी धार्मिक भेदभाव के 1971 के बाद बाहर से आये सभी लोगों को अवैध घुसपैठिया ठहराता है. जबकि नागरिकता संशोधन क़ानून बनने के बाद 2014 से पहले आये सभी गैर मुस्लिमों को नागरिकता दी जा सकेगीजो कि असम अकॉर्ड का उल्लंघन होगा.

हालांकि अनुच्छेद 11 के तहत नागरिकता सम्बन्धी कानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, लेकिन मौजूदा स्वरूप में नागरिकता संशोधन विधेयक संविधान, विधि और लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ जान पड़ता है. इस विधेयक पर विचार करते समय संसद को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में लॉ के स्टूडेंट हैं) 

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