रॉबर्ट फ्रॉस्ट की मशहूर कविता ‘मेंडिंग वाल’ ने इस विचार को अमर बना दिया है कि अच्छी बाड़ें अच्छे पड़ोसियों का निर्माण करती हैं. यह उक्ति हम लोगों को घुट्टी में पिला दी गई है कि किसी भी रिश्ते में सीमाओं का सम्मान गलतफहमियों को पनपने से रोकता है, लेकिन फ्रॉस्ट ने इसके उलट यह विरोधाभास पेश किया कि जिस रिश्ते में भय या गलत काम किए जाने का कोई कारण न हो उसके बीच किसी बाड़ की ज़रूरत नहीं होती. हम प्रायः पुरानी लीक पर ही चलते रहते हैं, खासकर अगर पहले हम इस पर सफल रहे हों, चाहे ज़मीनी हकीकत कुछ भी हो.
म्यांमार-भारत की 1,643 किलोमीटर लंबी सीमा पर बाड़ लगाने के बारे में गृह मंत्री अमित शाह की हालिया घोषणा के बाद इस मुद्दे को लेकर काफी बहस छिड़ गई है. क्या बाड़ लगाना सचमुच एक अच्छा सुझाव है, या हम अलग तरह का समाधान खोजने की जगह आजमाए गए फॉर्मूले का ही सहारा ले रहे हैं, फ्रॉस्ट की कविता के पड़ोसियों की तरह? भारत को अपने हरेक पड़ोसी देश से सुरक्षा के मामले में अलग तरह की चुनौती पेश होती है. इन अंतर-राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों में कई तरह के मुद्दे शामिल हैं, मसलन अवैध विस्थापन, मानव तस्करी, ड्रग्स-हथियार-पशु अंगों की तस्करी, सीमा पार से आतंकवादी गतिविधियां आदि. इन चुनौतियों का सामना करने का व्यावहारिक तरीका तो यही है कि सीमा पर बाड़ लगाई जाए और आवाजाही के लिए चेकपोस्ट स्थापित किए जाएं, मगर दूसरे उपायों पर भी विचार किया जाना चाहिए.
सीमा पर बाड़ लगाना एक जटिल मुद्दा हो सकता है, जो स्थान, उद्देश्य और राजनीतिक माहौल जैसे विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है. हालांकि, यह अवैध इमिग्रेशन, तस्करी और अन्य सुरक्षा खतरों को रोकने में मदद कर सकता है, लेकिन इससे राजनयिक तनाव, मानवाधिकारों का उल्लंघन और पर्यावरणीय क्षति भी हो सकती है.
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म्यांमार-भारत सीमा पर बाड़ लगाने से जुड़े पेंच
‘इकोनॉमिक टाइम्स’ में छपे एक लेख के मुताबिक, सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) फिलहाल म्यांमार-भारत की रणनीतिक सीमा पर बाड़ लगा रहा है, जिसकी शुरुआत मणिपुर में 10 किलोमीटर की सीमा से हो रही है. गृह मंत्रालय ने 1,700 किमी लंबी सीमा की पहचान की है, जहां बाड़ लगाने की ज़रूरत है, मणिपुर में बाड़ के लिए अगली 80 किमी लंबी सीमा चिन्हि कर ली गई है, जबकि इस राज्य में 250 किमी लंबी सीमा के बारे में योजना तैयार की जा रही है.
म्यांमार-भारत सीमा पर बाड़ लगाने का कई हलकों से विरोध भी हुआ है, जिनमें मणिपुर की कुकी-ज़ो समुदाय और मिज़ोरम का मिज़ो समुदाय भी शामिल हैं, जिनके जातीय संबंध म्यांमार के चिन समुदाय से जुड़े है. नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रायो ने भी इस प्रस्ताव का यह कह कर विरोध किया है कि म्यांमार सीमा पर बाड़ लगाने के बारे में एकतरफा फैसला नहीं किया जा सकता, यह सभी पक्षों से बातचीत करने के बाद ही किया जा सकता है. यह पेचीदा मामला है, क्योंकि साझा जातीय पृष्ठभूमि वाले लोग सीमा के दोनों ओर रह रहे हैं. लोगों के कई गांव कृत्रिम रूप से खींची गई सीमारेखा के एक तरफ हैं, तो उनके खेत दूसरी तरफ हैं.
इस पेचीदा स्थिति से निबटने के लिए काफी पहले ‘फ्री मूवमेंट रेजाइम’ (एफएमआर) व्यवस्था की गई थी जिसके तहत भारत और म्यांमार के नागरिक एक-दूसरे के इलाके में 16 किलोमीटर तक बिना वीज़ा के आवाजाही कर सकते हैं. सीमा पर बाड़ लगाने से स्थानीय वासियों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.
इसके अलावा, नागालैंड में स्थित बागी गुट नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (इसाक-मुइवा) या एनएससीएन (आइएम) ने, जिसने फिलहाल सरकार के साथ युद्धविराम समझौता किया है, इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया है. देसी ट्राइबल लीडर्स फोरम सरीखे कई मिज़ो जनजातीय संगठनों ने भी विरोध जताया है.
अंतिम फैसला करने से पहले सरकार को स्थानीय समुदायों की चिंताओं पर विचार करके उनका समाधान करना चाहिए. इसका एक तरीका यह है कि जनता से संवाद किया जाए और स्थानीय समुदायों की चिंताओं तथा दृष्टिकोण को समझने के लिए उनसे बात करना चाहिए और उन्हें सुरक्षा के बारे में सरकार की प्राथमिकताओं से अवगत कराना चाहिए. इससे भरोसे का माहौल बनेगा, निर्णय-प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी और सबको शामिल किया जा सकेगा, कोई अशांति नहीं पैदा होगी.
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क्या खर्च मुनासिब होगा और दूसरा कोई विकल्प है?
बाड़ लगाने की बात करना आसान है, बाड़ लगाना मुश्किल, खासकर म्यांमार-भारत सीमा पर बीहड़ पहाड़ों और जंगली इलाके के कारण. सड़कों की बात तो दूर रही, अधिकतर जगहों तक कच्चे रास्तों से पहुंचना भी मुश्किल है. यह भारत-पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाके से बिलकुल उलट है, जहां सड़क से पहुंचा जा सकता है इसलिए वहां सीमा पर बाड़ लगाना आसान है. बाड़ भी तभी कारगर साबित होती है जब उस पर बराबर नज़र रखी जा सके और उसकी पूरी लंबाई तक गश्त की जा सके. बाड़ तोड़ने के खिलाफ कार्रवाई न की जा सके तो उसका शायद ही कोई मोल है.
खर्च का भी ध्यान रखना पड़ेगा. मोटे अनुमान के मुताबिक इसके निर्माण में प्रति किलोमीटर 2 करोड़ रुपये का खर्च आ सकता है. उदाहरण के लिए सरकार ने भारत-बांग्लादेश की 4,000 किमी सीमारेखा में से 3,326 किमी (बाकी नदी क्षेत्र है) पर दो चरणों में बाड़ लगाने की मंजूरी दी है. पहले चरण में बाड़ और सड़कें बनाने पर 1,059 करोड़ का खर्च आया. दूसरे चरण के लिए सरकार ने 2,468.77 किमी बाड़ और 1,512.68 किमी सड़क बनाने की अनुमानित लागत 4,393.69 करोड़ रुपय मंजूर की गई है.
इस हिसाब से 1,643 किलोमीटर लंबी म्यांमार-भारत सीमा पर, दुर्गम इलाके और प्रतिकूल मौसम के मद्देनज़र, बाड़ बनाने पर आसानी से 3,200 करोड़ रुपये का खर्च आएगा. साल-दर-साल इस बाड़ के रखरखाव पर आने वाला खर्च पहले से ही दबावग्रस्त बजट पर और दबाव डालेगा. इसलिए, इस तरह की महत्वाकांक्षी योजना को लागू करने से पहले लागत-लाभ के अनुपात पर गहराई से विचार करना ज़रूरी है.
पाकिस्तान या बांग्लादेश की सीमा पर सरकार द्वारा प्रोत्साहित आतंकवाद का खतरा बड़ा है और वहां चुनौती लोगों के विस्थापन के कारण भी है. इसलिए वहां इस तरह का खर्च वाज़िब है, लेकिन म्यांमार सीमा पर आबादी काफी कम और बिखरी हुई है और आतंकवाद का खतरा भी कम है इसलिए इस प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है.
जो भी हो, पारंपरिक किस्म की बाड़ बेकार होती जा रही है क्योंकि राष्ट्र-विरोधी तत्व अब भौतिक बाधाओं को पार करने के लिए सुरंग खोदने या ड्रोन का इस्तेमाल करने जैसे उपायों में टेक्नोलॉजी का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं.
वैकल्पिक समाधान बांस की बाड़ या स्मार्ट बाड़ बनाना हो सकता है, जो पर्यावरण के अनुकूल हैं और पारंपरिक बाड़ के मुकाबले कम बाधक होती है. उदाहरण के लिए, ‘बंबूसा’ (बंबोज़) किस्म के बांस तेज़ी से बढ़ते हैं और कांटेदार, मोटे-तगड़े होते हैं. वे हर मौसम में मज़बूत रहते हैं और रखरखाव पर खर्च नगण्य होता है, जो हाथियों के झुंडों के हमलों को भी झेल सकती है. कम लागत वाले उपाय के तौर पर उन्हें सीमा पर उगाया जा सकता है और वे स्थानीय आबादी में अलगाव की भावना भी नहीं पैदा कर सकते हैं. इनके साथ, घुसपैठ का पता लगाने और पूर्व चेतावनी देने के लिए इस बाड़ के अहम स्थानों पर सेंसर लगाना लागत के हिसाब से लाभकारी समाधान हो सकता है.
एक राष्ट्र के नाते हमें अपनी सीमाओं को बाहरी खतरो से बेशक सुरक्षित करना है, लेकिन स्थानीय आबादी में अलगाव की भावना पैदा करने वाला कोई भी प्रस्ताव सीमावर्ती इलाकों में पहले से ही कानून-व्यवस्था की कमजोर स्थिति को और खराब करेगा. इसलिए हमें टेक्नोलॉजी और लीक से अलग सोच का इस्तेमाल करते हुए अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के बेहतर उपाय ढूंढने की ज़रूरत है.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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