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Friday, 3 May, 2024
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भारत-चीन सीमा विवाद सुलझाने के लिए वार्ता शुरू करने का यह माकूल वक्त, सैन्य समाधान व्यवहार्य नहीं

वार्ता तभी कीजिए जब आप मजबूत स्थिति में हों और अपने लक्ष्यों का स्पष्ट खाका आपके पास हो. कोई भी समझौता तभी सफल होता है जब उससे जुड़े सभी पक्ष को लगे कि उसकी जीत हुई है.

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पूरी दुनिया मानो बेलगाम लड़ाइयों की गिरफ्त में फंसी दिख रही है. म्यांमार में गृहयुद्ध अपने तीसरे साल में पहुंच गया है; यूक्रेन युद्ध भी लगभग इतने ही समय से जारी है; गाज़ा में इज़रायल की फौजी कार्रवाई तीन महीने से चल रही है. इन सबमें जो एक समानता है वह यह है कि इन सबका कोई अंत होता दिखाई नहीं पड़ रहा है.

भारत अपने विवादों को हमेशा वार्ताओं और विचार-विमर्श से निबटाने को तरजीह देता रहा है. कभी-कभी इसे कमज़ोरी का लक्षण मान लिया जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में भारत उकसावों का माकूल जवाब देने के अपने संकल्प का प्रदर्शन करता रहा है. कब वार्ता करनी है और कब युद्ध करना है, यह हमेशा बहस का एक विषय बना रहेगा. वैसे, आमतौर पर वार्ता को युद्ध से हमेशा बेहतर माना जाता रहा है. वैसे, हालात ऐसे भी हो सकते हैं जब लड़ना ज़रूरी हो जाए, खासकर तब जब आपके ऊपर खतरा आसन्न हो और खुद को या दूसरों को बचा पाने का कोई दूसरा रास्ता न रह गया हो. लड़ना तब भी ज़रूरी हो सकता है जब दूसरा पक्ष बात करने को राजी न हो या विद्वेष से भर कर कार्रवाई कर रहा हो और आपके लिए अपना लक्ष्य हासिल करने की दूसरा कोई रास्ता न बचा हो, लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि युद्ध को हमेशा अंतिम उपाय माना जाए और उसे तभी चुना जाए जब बाकी सारे उपाय विफल हो चुके हों.

दो विश्वयुद्धों के बीच की अवधि में यूरोप में जर्मनी और इटली के उत्कर्ष और प्रशांत क्षेत्र में जापान के उत्कर्ष से रू-ब-रू यूरोपीय शक्तियों और अमेरिका ने कई मोर्चों पर कई छूट दी थी. इनमें संधियों के उल्लंघन की अनदेखी करना, युद्ध टालने के लिए ‘एक्सिस’ शक्तियों में शुमार तीन देशों का तुष्टीकरण शामिल था, लेकिन तुष्टीकरण की इस नीति ने इन शक्तियों का हौसला और बढ़ा ही दिया और उन्होंने दुनिया को अंततः द्वितीय विश्वयुद्ध के कगार पर ला खड़ा किया. इससे यही संदेश मिलता है कि वार्ता तभी कीजिए जब आप मजबूत स्थिति में हों और अपने लक्ष्यों का स्पष्ट खाका आपके पास हो.

मजबूत स्थिति में होते हुए वार्ता करने का अर्थ है कि आपको दूसरे पक्ष के मुक़ाबले बढ़त हासिल है. इस बढ़त का और लाभ उठाने के लिए आपको गहरी तैयारी करनी चाहिए. दूसरे पक्ष के हितों, लक्ष्यों और प्राथमिकताओं की गहरी पड़ताल करनी चाहिए और अपनी क्षमताओं और कमजोरियों की पहचान करनी चाहिए. इतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि अहं भाव से मुक्त होकर सहानुभूति के साथ दूसरे पक्ष की बातों को ध्यान से सुनें और उसके साथ भरोसे का संबंध बनाएं. कामयाबी के लिए अपनी हैसियत की जगह हितों पर ज़ोर देना और दोनों पक्षों के अंतर्निहित हितों की पहचान करना तथा दोनों के लिए बातचीत को मूल्यवान बनाने के रास्ते ढूंढना ज़रूरी है. यह सब करते हुए विभिन्न विकल्पों और उपायों की खोज के साथ-साथ लीक से हट कर सोचने के लिए तैयार रहना भी ज़रूरी है.

अंतिम मगर अहम बात यह भी है कि अगर दूसरा पक्ष नेकनीयती से वार्ता नहीं कर रहा या जो शर्तें रखी जा रही हैं वे अनुकूल नहीं हैं, तो आप वार्ता भंग करने को तैयार भी रहें. वार्ता एक प्रक्रिया है और इसके लिए धैर्य, दृढ़ता और लचीलापन चाहिए. मजबूत स्थिति में होते हुए वार्ता करने का अर्थ यह नहीं है कि आप आक्रामक या झगड़ालू बन जाएं. बल्कि इसका अर्थ यह है कि आप पूरी तैयारी और आत्मविश्वास के साथ एक-दूसरे के लिए लाभकारी नतीजे के लिए प्रयास करें. कोई भी समझौता तभी सफल होता है जब उससे जुड़े सभी पक्ष को लगे कि उसकी जीत हुई है.

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सीमा विवाद का हल

भारत जिन खतरों का सामना कर रहा है उनमें सबसे गंभीर है तिब्बत-भारत सीमा पर चीन के साथ सीमारेखा को लेकर विवाद. सीमारेखा और सीमा जैसे शब्दों का प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है, लेकिन दोनों के बिलकुल अलग-अलग अर्थ हैं. सीमारेखा वह काल्पनिल्क रेखा है जो किसी विशेष क्षेत्र, मसलन सीमा की हद बताती है. सीमारेखा किसी जायदाद के दायरे को, उसके वैधानिक अधिकार-क्षेत्र, या निर्धारित क्षेत्र को परिभाषित करती है. इसके अलावा सीमारेखाएं अस्पष्ट; सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, या नैतिक संदर्भों में सीमाओं का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं और उन मानकों को तय करती हैं जिनके अंतर्गत कोई चीज़ अपना अस्तित्व रखती है और सक्रिय रहती है.

दूसरी ओर, सीमा का संबंध भू-राजनीतिक रेखा से होता है, जो किसी देश या राज्य की हदों को निर्धारित करती है. इसे आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय कानून और संधियों की ओर से मान्यता प्राप्त होती है और मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के अतिक्रमण को नियम-आधारित व्यवस्था में प्रायः कबूल नहीं किया जाता. एक सीमा मूलतः दो स्पष्ट सत्ताओं के बीच के विभाजन को स्पष्ट करती है. इसलिए, चीन के तिब्बत इलाके के मामले में भारत का विवाद सीमा से संबंधित नहीं बल्कि सीमारेखा से संबंधित है.

सीमा विवाद सहित अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने का आम तरीका वार्ता ही है. संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद-33 में कहा गया है कि देशों के पास वार्ता वह एक उपाय है जिसके बूते वे अपने अंतरराष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्ण समाधान कर सकते हैं. यह एक गतिशील, लचीला उपाय है, जो आपसी विवादों में उलझे देशों को सूचनाओं की आदान-प्रदान करने, एक-दूसरे को अपने-अपने मामले की मजबूती बताने, और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आइसीजे) जैसे औपचारिक कानूनी साधनों का सहारा लेने से पहले विवाद सुलझाने का मौका देता है. सीमा संबंधी विवादों के लिए वार्ता खास तौर से प्रभावी उपाय हो सकती है. उदाहरण के लिए 2015 में भारत और बांग्लादेश ने एक बहुत पुराने सीमा विवाद को वार्ता के जरिए सुलझाया. दोनों देशों ने बस्तियों और इलाकों का आदान-प्रदान किया. इस समझौते को सीमा विवादों के हल के एक मॉडल के तौर पर अंतरराष्ट्रीय सराहना मिली.

लेकिन भारत-तिब्बत सीमा पर प्रमाणित सीमारेखा न होने के कारण स्थिति बिलकुल अलग है. विवादित रेखा होने के कारण ऐतिहासिक दावों, धार्मिक नज़दीकियों, सांस्कृतिक संबंधों और जुड़ाव (या अलगाव) जैसे अमूर्त कारणों पर आधारित दावे और जवाबी दावे किए जाते हैं. अंतिम कारक भावनात्मक है, जो दूसरी सभी बातों पर हावी हो सकता है, जैसा कि ‘ब्रेक्सिट’ के पक्ष में ब्रिटेन के मतदान से स्पष्ट होता है.

यूक्रेन युद्ध की बात करें, तो रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने संकेत दिया है कि वे युद्धविराम के विरोधी नहीं हैं और अमेरिका ने भी संकेत दिया है कि युद्ध को रोकने के व्यापक हित की खातिर यूक्रेन कुछ इलाकों पर अधिकार छोड़ सकता है. युद्ध से त्रस्त और गोला-बारूद की कमी का सामना कर रहे दोनों पक्ष वार्ता की मेज की ओर आते दिख रहे हैं क्योंकि उन्हें एहसास हो रहा है कि युद्ध जारी रखना निरर्थक है. यह भारत के इस रुख की ही पुष्टि करता है कि विवादों को वार्ता और विचार-विमर्श से ही सुलझाया जाना चाहिए.

भारत और चीन लगातार चौथी सर्दियों से पूर्वी लद्दाख में आमने-सामने डटे हैं. दोनों ने पूरी सीमा पर सेनाओं का भारी जमावड़ा कर रखा है. इससे ज़ाहिर है कि अपने-अपने दावे को फौजी उपायों से पूरा करना संभव नहीं है. इसके अलावा, भारत ने मजबूती के साथ दिखा दिया है कि वह ताकत के इस्तेमाल से यथास्थिति को बदलने की किसी एक तरफा कोशिश का जवाब देगा. इसलिए, न केवल टकराव के बाकी बचे मुद्दों, बल्कि कुल सीमा विवाद के समाधान के लिए भी, वार्ताओं को शुरू करने का यही सबसे माकूल वक्त है.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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