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Saturday, 2 November, 2024
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क्या है ‘कांग्रेस सिस्टम’ जिसके टूटने के कारण हार रही है पार्टी

कांग्रेस संगठन में राहुल गांधी को ये बताना वाला कोई नहीं था कि महत्वपूर्ण नेताओं को जिम्मेदारियां न सौंपकर वे गलतियां कर रहे हैं.

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यह लगातार दूसरा आम चुनाव है, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की इतनी बुरी पराजय हुई है. उसके पास लोकसभा में कुल सदस्य संख्या का 1/10 भी नहीं है, जिससे कि उसे आधिकारिक विपक्ष का दर्जा और नेता प्रतिपक्ष का पद मिल सके. सवाल उठता कि ऐसा क्या हो गया है कि आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली इस पार्टी को इतनी बुरी हार हुई है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के अनेकों तरीक़े हैं. इस लेख में कांग्रेस पार्टी के संगठन और उसमें समय-समय पर आए बदलाव को केंद्र बिंदु बनाकर इस चुनाव के परिणाम को समझने की कोशिश की गयी है.

कांग्रेस सिस्टम के कारण तीन दशक तक चला कांग्रेस का एकछत्र राज

आज़ादी की लड़ाई के दौरान खड़ा हुआ कांग्रेस पार्टी का संगठन कैसे काम करता है, इसको लेकर आज़ादी के बाद एक दशक तक बड़ा भ्रम रहा. कांग्रेस पार्टी के 1962 के राष्ट्रीय अधिवेशन के बाद राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी ने कांग्रेस पार्टी का अध्ययन करने का जिम्मा उठाया. इस अध्ययन को रजनी कोठारी ने ‘द कांग्रेस सिस्टम’ नाम से प्रकाशित कराया, जिसमें उन्होंने बताया कि कांग्रेस पार्टी ‘दबाव’ और ‘सहमति’ के सिद्धांत पर काम करने वाली पार्टी हैं, जिसमें अपनी मांगों को लेकर इसके अलग-अलग फ़्रंटल संगठन और नेता दबाव बनाते हैं, जिस पर इसकी राष्ट्रीय कार्यसमिति आम सहमति से निर्णय लेती थी.

राजनीति विज्ञानी लॉयड रुडोल्फ और सुजैन रुडोल्फ के अनुसार आम सहमति बनाते समय कांग्रेस पार्टी मध्यम मार्ग अपनाती थी. ‘दबाव’ और ‘सहमति’ से निर्णय लेने की ख़ूबी के कारण आज़ादी के तीन दशक तक भारत में कोई विपक्ष नहीं पैदा हो पाया, क्योंकि तब कांग्रेस पार्टी का संगठन ही सरकार के विपक्ष का काम करता था.


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यह एकदलीय शासन का एक मॉडल था. जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों एक ही दल के अंदर काम करते थे. रुडोल्फ एंड रुडोल्फ बताते हैं कि 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बेशक बहुत बड़ी जीत हासिल की, लेकिन कांग्रेस के एकतरफा वर्चस्व का दौर खत्म हो चुका था.

कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव के कारण पनपे क्षेत्रीय दल

कांग्रेस पार्टी का यह मॉडल तीन दशक तक चला, लेकिन इंदिरा गांधी के पार्टी की कमान सम्भालते ही यह दौर समाप्त हो गया. इंदिरा गांधी ने अपने बेटे संजय गांधी को पार्टी में नियंता बना कर कांग्रेस की पुरानी परंपरा को तोड़ने का सिलसिला शुरू कर दिया. उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति यानी सीडब्ल्यूसी में गांधी-नेहरू परिवार के वफ़ादारों को नियुक्त करने की परम्परा शुरू की, जिसकी वजह से गांधी-नेहरू परिवार की नीतियों से असहमति रखने वाले वाले नेताओं के लिए पार्टी में कोई जगह नहीं बची.

इसकी वजह से धीरे-धीरे करके एक-एक क्षेत्रीय नेता कांग्रेस छोड़ कर जाते रहे, और अपनी क्षेत्रीय पार्टी बनाते चले गए. ऐसे दलों में टीएमस, एनसीपी, वाइएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति, बीजू जनता दल और अनगिनत छोटे दल शामिल हैं. उनमें से कई दल बाद में कांग्रेस में लौट आए, लेकिन जो जनाधार लेकर वो निकले थे, उन्हें वो वापस कांग्रेस में नहीं जोड़ पाए. हरियाणा विकास पार्टी और हरियाणा जनहित कांग्रेस इसका उदाहरण है. इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की राजनीति में तेज़ी से क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ, और कांग्रेस चुनाव दर चुनाव सत्ता से दूर होती चली गयी.

2004 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की वापसी और सुरजीत का जादू

2004 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अच्छा परफॉर्म किया और यूपीए के बैनर तले सरकार बनाई. लेकिन उस चुनाव में भी यूपीए के निर्माण का श्रेय किसी कांग्रेसी नेता को नहीं, बल्कि दिग्गज वामपंथी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत को जाता है, जिन्होंने आगे बढ़कर लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधि आदि को यूपीए के बैनर तले लाने की पहल की. यह हरकिशन सिंह सुरजीत का पंजाब कनेक्शन ही था कि सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से इनकार के बाद डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए.

अपने ख़राब स्वास्थ की वजह से सुरजीत धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से हटते चले गए और उसके साथ ही यूपीए का कुनबा बिखरता चला गया. 2009 का आम चुनाव आते-आते इस कुनबे से वामपंथी पार्टियों समेत आरजेडी, एलजेपी और डीएमके तक बाहर हो चले थे, परिणामस्वरूप ये सारी पार्टियां 2009 का आम चुनाव अलग-अलग लड़ीं.

यूपीए से जब एक-एक करके राजनीतिक पार्टियां अलग जा रहीं थी, उस समय कांग्रेस पार्टी के पास कोई भी ऐसा नेता नहीं था जो कि इनको रोक पाए. यहां सवाल उठता है कि कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, ग़ुलाम नबी आज़ाद जैसे दिग्गज नेता यूपीए के सहयोगी दलों को रोक क्यों नहीं रोक पा रहे थे; और अपने तमाम घटक दलों के बिछुड़ जाने के बाद भी यूपीए 2009 में चुनाव कैसे जीत गया.

कांग्रेस की राजनीति का नया दौर और राहुल गांधी

सबसे पहले आते हैं पहले सवाल पर, जिसका जवाब राहुल गांधी की राजनीति में इंट्री में छुपा है. यूपीए बनने के समय ही राहुल गांधी की कांग्रेस में इंट्री हुई थी. उन दिनों वो अपनी राजनीति की ट्रेनिंग जेएनयू के कुछ वामपंथी विचारधारा के प्रोफ़ेसरों से प्राप्त कर रहे थे, जिनका मानना था कि (जातीय) पहचान के आधार पर बने क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस का वोट बैंक छीन लिया है, इसलिए उनको ख़त्म किए बिना कांग्रेस को अपने दम पर खड़ा नहीं किया जा सकता.

राहुल गांधी ने अपनी उस शिक्षा का प्रयोग करते हुए भट्टा परसौल में आंदोलन के माध्यम से पहले बीएसपी को निशाना बनाया, फिर आगे चलकर अपने सहयोगी लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव तक को निशाना बना दिया. लालू यादव चुनाव न लड़ सकें, इसके लिए राहुल गांधी ने सरकार का वो अध्यादेश भी फाड़ दिया, जिसके पारित होने से लालू यादव चुनावी राजनीति से बाहर न होते.

यह सब करते हुए राहुल यह तक नहीं समझ सके कि अगर एक बार इन पार्टियों से किसी ख़ास समुदाय का मतदाता छिटक भी जाता है तो वह ज़रूरी नहीं है कि वह वापस कांग्रेस के पास ही आए, बल्कि वो मतदाता बीजेपी के पास भी जा सकता है.

पिछले दो चुनाव से दिख रहा है कि क्षेत्रीय या तथाकथित पहचानवादी/जातिवादी दलों से छिटका हुआ हुआ मतदाता बीजेपी के पास ही जा रहा है. ग़ौर करने वाली बात है कि अपने आरम्भिक दिनों में राहुल ने गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की बीजेपी सरकारों को निशाना नहीं बनाया. उनका फोकस बिहार और यूपी था.

क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस किस हद तक समाप्त करने पर तुली थी, इसकी एक मिसाल हरियाणा है, जहां इसने 2005 में भजनलाल के नेतृत्व में चुनाव जीतने के बाद, भूपिन्दर सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री बना दिया. भजनलाल बिश्नोई समुदाय से थे. उस चुनाव में उन्होंने जनता को ग़ैर-जाट मुख्यमंत्री के नाम पर मोबलाइज किया था, इसके बावजूद चुनाव परिणाम बाद कांग्रेस ने जाट समुदाय से भूपिन्दर हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाया.


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ऐसा करने के पीछे कांग्रेस की रणनीति थी कि हुड्डा के सीएम बनने से ओमप्रकाश चौटाला कमज़ोर हो जाएंगे, जो कि हुआ भी. लेकिन इसकी बड़ी क़ीमत कांग्रेस को भी चुकानी पड़ी. दरअसल हुड्डा हरियाणा की राजनीति में दिल्ली से भेजे गए थे, जिसकी वजह से उनको राज्य के दिग्गज नेता पसंद नहीं कर रहे थे. आपसी टकराव में चौधरी वीरेन्द्र सिंह और राव इंद्रजीत सिंह जैसे दिग्गज नेता नाराज़ होकर बीजेपी में चले गए. हुड्डा को आगे करके चौटाला को काटने की राजनीति ने हरियाणा में आज कांग्रेस को कहां पहुँचा दिया है, यह सब को पता है.

अब आते हैं दूसरे सवाल यानी यूपीए की 2009 में सफलता पर. 2009 के लोकसभा चुनाव परिणाम पर अध्ययन करते समय इसे यूपीए की जनकल्याण की योजनाओं की सफलता तक सीमित कर दिया जाता है. ऐसा करते समय विपक्ष की कमज़ोरियों पर बात ना करने की चूक हो जाती है. दरसल उस चुनाव में भी कुछ ऐसा ही था. अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीति से हट जाने, प्रमोद महाजन की अचानक मृत्यु, और आडवाणी की जिन्ना के मज़ार पर फूल चढ़ाने से उठे विवाद की वजह से बीजेपी पूरी तरह निकल नहीं पायी थी. उस चुनाव में बीजेपी की हार के ये भी बड़े कारण थे.

कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी की समस्या

2014 का आम चुनाव आते-आते राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष पद पर अनौपचारिक ताजपोशी हो चुकी थी. भले ही वो अधिकारिक तौर पर अध्यक्ष अभी पिछले साल बने. अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के पास जो सबसे बड़ी समस्या आयी, वह थी कि इस पार्टी की कार्यकारिणी के सदस्यों से काम कैसे कराएं, क्योंकि कार्यकारिणी के ज़्यादातर सदस्य पुरानी सामंतवादी सोच के बुज़ुर्ग नेता हैं, जो ना तो काम करते हैं, ना ही पद से हटते हैं. इसके साथ ही वो अपने बेटे-बेटियों को दिन-रात आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं. कांग्रेस कार्यसमिति कि एक अन्य बात है कि यह मुख्यतः सवर्ण जाति के नेताओं का एक समूह है, जबकि ये जातियां आजकल बीजेपी को वोट दे रही हैं.

अध्यक्ष बनने के बाद भी राहुल गांधी इन नेताओं से छुटकारा नहीं पा सके, जिसकी वजह से उन्होंने अपनी एक अलग से टीम बनायी. उस टीम में दुनिया की शीर्ष विश्वविद्यालय से पढ़े युवा हैं, जो कि वामपंथी विचारधारा के प्रति झुकाव और ज़मीनी राजनीति का कम अनुभव रखने की वजह से एनजीओ जैसा कार्य करते हैं. अपनी टीम बनाने के साथ राहुल ने कांग्रेस पार्टी में भी बदलाव करने की कोशिश की, जिसके तहत जनार्दन द्विवेदी जैसे पुराने नेता को हटाकर अशोक गहलोत को पार्टी का संगठन महासचिव बनाया, जो कि किसी भी पार्टी में अध्यक्ष के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद होता है.

गहलोत को केंद्र की राजनीति से हटाने का खेल

गहलोत ने गुजरात चुनाव में पार्टी के लिए बेहतरीन कार्य किया, लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में चुनावी सफलता के बाद अचानक से गहलोत को फिर से राजस्थान का मुख्यमंत्री बना कर भेज दिया गया. अब राहुल गांधी ख़ुद ही कह रहे हैं कि गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने के लिए उन पर संगठन के वरिष्ठ नेताओं ने दबाव बनाया था, जबकि वो युवा सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाना चाह रहे थे.

लोकसभा चुनाव के ऐन वक़्त पर पार्टी में दूसरे नम्बर के नेता को एक राज्य का मुख्यमंत्री बनाकर भेजने की गलती कांग्रेस ही कर सकती है. वरिष्ठ नेताओं द्वारा राहुल गांधी को ऐसा करने के लिए दबाव बनाने की मूल वजह गहलोत के आने से उनकी शक्ति में कमी होना था. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने यह जानते हुए गहलोत को मुख्यमंत्री बनवाया कि राजस्थान के क्षेत्रीय नेता उनके नाम का विरोध कर रहे थे. मुख्यमंत्री रहते उन्होंने कभी भी चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर किया था. दूसरी ओर सचिन पायलट पिछली मनमोहन सरकार से इस्तीफ़ा देकर राज्य में डटे थे.

सचिन पायलट को मुख्यमंत्री न बनाकर कांग्रेस ने एक ऐतिहासिक ग़लती भी की क्योंकि अगर सचिन मुख्यमंत्री बनते तो उत्तर भारत में शायद अकेली पार्टी बन जाती जिसने गुर्जर समुदाय से कोई मुख्यमंत्री बनाया हो. पायलट इस समाज के युवाओं में काफ़ी लोकप्रिय भी हैं, एक समय वो सबसे ज़्यादा भीड़ आकर्षित करने वाले युवा नेताओं में से थे. इसलिए उनको कमान देकर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान जैसे राज्यों में कांग्रेस गुर्जर समाज के वोटर में सेंध लगा लेती.


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कांग्रेस ने यही काम मध्यप्रदेश में किया, जहां युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरुण यादव पर बुज़ुर्ग कमलनाथ को तरजीह दी, जिनकी आम चुनाव के समय पार्टी संगठन को ज़्यादा ज़रूरत थी, मायावती, नवीन पटनायक जैसे वरिष्ठ नेताओं से बातचीत करने के लिए वरिष्ठ नेताओं की ज़रूरत थी. कमलनाथ और गहलोत, अपने अनुभव के कारण इस काम को बेहतर तरीके से कर सकते थे. इसके विपरीत कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर मायावती से बातचीत की असफल कोशिश की. ये बातचीत कभी हो ही नहीं पाई.

ठीक यही काम छतीसगढ में किया जहां राष्ट्रीय ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष और सांसद ताम्रध्वज शाहू को राज्य में मंत्री बना कर भेज दिया, जब कि चुनाव के समय संगठन को एक्टिव करने के लिए इनकी ज़रूरत अन्य राज्यों में थी.

कुल मिलाकर राहुल गांधी इस चुनाव को ठीक से मैनेज ही नहीं कर पाए, क्योंकि उन्होंने अपने नेताओं को उनकी क्षमतानुसार काम ही नहीं दिया. कांग्रेस संगठन में राहुल गांधी को ये बताना वाला कोई नहीं था कि पार्टी गलतियां कर रही है, क्योंकि यह 1950 और 1960 वाली कांग्रेस नहीं है, जिसमें विपक्ष भी पार्टी के अंदर ही पलता था.

(लेखक रॉयल हॉलवे, लन्दन विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं.)

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