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Friday, 15 November, 2024
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भारतीय मुसलमानों को बांटने वाले नहीं बल्कि वास्तविक नेताओं की जरूरत, पसमांदा इसके बेहतर विकल्प हो सकते हैं

अशरफ़ नेता पसमांदा मुसलमानों की चिंताओं के प्रति उदासीन नज़र आते हैं. इसके बजाय, वे चुनावी लाभ के लिए इस हाशिए पर मौजूद वर्ग का शोषण करते हैं, और उन्हें लगातार पीड़ित होने के नैरेटिव में फंसा देते हैं.

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जब से भारत को आज़ादी मिली, मुस्लिम समुदाय के भीतर नेतृत्व को लेकर अनिश्चितता रही है. अनेक व्यक्तियों ने, अक्सर बिना किसी ठोस आधार के, नेतृत्व की भूमिका निभाने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया है. एक खास उदाहरण ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या एआईएमपीएलबी है, जो अनिवार्य रूप से एक गैर-सरकारी संगठन के रूप में कार्य करता है और चुनावी प्रक्रिया से गुजरे बिना मुसलमानों के प्रवक्ता और नेता के रूप में कार्य करता है. इससे आज़ादी के बाद के दौर में मुस्लिम नेतृत्व के प्रतिनिधित्व पर सवाल उठता है.

प्रारंभ में, भारतीय मुस्लिम समुदाय के भीतर नेतृत्व संकट पर मेरा दृष्टिकोण अलग था. मैंने मुसलमानों के लिए विशेष रूप से मुस्लिम नेता रखने की आवश्यकता पर सवाल उठाया. मेरा मानना था कि कोई भी राष्ट्रीय नेता मुस्लिम आबादी के हितों का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व कर सकता है. हालांकि, मेरा दृष्टिकोण में तब बदलाव हुआ जब मैंने देखा कि पिछली सरकारें लगातार धार्मिक नेताओं को मुस्लिम समुदाय के वास्तविक प्रतिनिधियों के रूप में मान रही थीं. इस दृष्टिकोण ने प्रशासनिक माध्यमों को दरकिनार कर दिया, जिससे अनजाने में सामुदायिक मामलों में धार्मिक हस्तियों का प्रभाव मजबूत हो गया. इसके अतिरिक्त, कुलीन और समृद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले अशरफ नेतृत्व की अवधारणा ने खुद को बहुसंख्यक भारतीय मुसलमानों की वास्तविकताओं से अलग कर लिया, जिनके अनुभव विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यकों से स्पष्ट रूप से भिन्न हैं.

जैसे-जैसे मेरी समझ गहरी होती गई, मैं सामुदायिक प्रतिनिधित्व के महत्व को समझने लगा.

प्रामाणिक प्रतिनिधित्व, सुधार की जरूरत

जबकि अलग अलग पृष्ठभूमि के व्यक्ति मुस्लिम और अन्य भारतीय समूहों के भीतर नेतृत्व की भूमिका निभा सकते हैं, फिर भी एक समुदाय के लिए वास्तविक प्रतिनिधित्व का होना भी महत्वपूर्ण है.

एक नेता जिसकी न केवल जनता में पैठ है, बल्कि लोगों की वास्तविकताओं, मानसिकता और जरूरतों को भी समझता है, वह अधिक प्रभावी तरीके से संवाद कायम कर सकता है और सामुदायिक चिंताओं का ज्यादा कुशलता के साथ निपटारा कर सकता है. जो नेता समुदाय की खास जरूरतों को समझते हैं, उनके कहीं ज्यादा टारगेटेड और उत्तरदायी दृष्टिकोण स्थापित कर पाने की संभावना होती है. यह न केवल समुदाय की तात्कालिक चिंताओं को हल करता है बल्कि वास्तविक प्रतिनिधित्व की भावना को भी बढ़ावा देता है.

जब किसी समुदाय के भीतर व्यक्तियों को लगता है कि उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को स्वीकार किया जाता है और उनका समाधान किया जाता है, तो यह समूह और व्यापक राष्ट्र के बीच एक मजबूत संबंध बनाता है. प्रतिनिधित्व की यह भावना मात्र स्वीकृति से परे है; यह राष्ट्रीय ताने-बाने का अभिन्न अंग होने की भावना पैदा करता है. बदले में, यह एक अधिक एकजुट और समावेशी समाज में योगदान देता है जहां विविध आवाज़ों को सुना जाता है और उन्हें महत्व दिया जाता है.

हालांकि, मुझे लगातार प्रामाणिक नेतृत्व की कमी महसूस हुई है जो वास्तव में भारतीय मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है, उसकी जरूरतों को बताता है और आवश्यक सुधारों की वकालत करता है.

जबकि एआईएमपीएलबी, वक्फ बोर्ड और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय (?) जैसी संस्थाएं मुस्लिमों की चिंताओं के निवारण की कोशिश करती हैं, फिर भी यह सवाल बना रहता है कि क्या वे प्रामाणिक रूप से समुदाय की भलाई का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसे प्राथमिकता देते हैं. ये संगठन अक्सर अपनी शक्ति की गतिशीलता को मजबूत करने या यथास्थिति को बनाए रखने पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं. उदाहरण के लिए, लैंगिक समानता के लिए पहल करने के बजाय, वे पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को सुदृढ़ करने की ओर प्रवृत्त होते हैं. असदुद्दीन ओवैसी जैसे क्षेत्रीय नेता, जो केवल एक राज्य की मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, धर्म को राजनीति से जोड़ते हैं. यह दृष्टिकोण अक्सर किसी भी सुधार का विरोध करता है जो संभावित रूप से व्यापक, राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय को लाभ पहुंचा सकता है.


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पसमांदा नेता एक समावेशी भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं

मेरी राय में, पसमांदा समुदाय से उभरने वाले नेताओं की अनुपस्थिति दूरदर्शी, धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की कमी में योगदान देने वाला प्रमुख कारक है जो जनता की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आकांक्षाओं को समझता है.

अशरफ नेता, जो बड़े पैमाने पर अभिजात वर्ग का हिस्सा हैं, पसमांदा मुसलमानों की चिंताओं के प्रति उदासीन दिखाई देते हैं. इसके बजाय, वे केवल चुनावी लाभ के लिए इस हाशिये पर खड़े समूह की भावनाओं का शोषण करते हैं, और उनके लगातार पीड़ित होने का नैरेटिव क्रिएट करते हैं. उत्पीड़न का यह रणनीतिक उपयोग अशरफ नेताओं को किसी भी सार्थक जवाबदेही से मुक्त करने का काम करता है, जिससे पसमांदा समुदाय के भीतर उपेक्षा और शोषण का चक्र कायम रहता है.

दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों को अपनी सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और मानवाधिकार संबंधी चिंताओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने के लिए राजनीतिक चैनल मिल गए हैं, लेकिन हाशिए पर रहने वाले पसमांदा मुसलमानों को उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले कुलीन अशरफ वर्ग के कारण अवसर से वंचित कर दिया गया है.

आइए इतिहास में झांककर देखें, जहां पसमांदा नेतृत्व अनुगूंज अब्दुल कय्यूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी जैसी शख्सियतों की कहानियों में सुनाई पड़ती है. ये नेता, अपने अशराफ समकक्षों के विपरीत, विभाजन के खिलाफ खड़े हुए और मुस्लिम समुदाय के भीतर सुधारों की जोरदार वकालत की. उनकी विरासत शिक्षा और महिला सशक्तीकरण की दिशा में उनके अथक प्रयासों में अंकित है. उदाहरण के लिए, असीम बिहारी को लें, जिन्होंने न केवल हाशिए पर पड़े समुदायों की शिक्षा के लिए समर्पित कई संगठनों की स्थापना की, बल्कि उल्लेखनीय रूप से, इन संस्थाओं के भीतर महिला विंग की स्थापना की, जिसका कि 1932 में बिहार बुनकर संघ की स्थापना एक बेहतर उदाहरण है. उनके कार्य उनकी गहन समझ के बारे में बहुत कुछ बताते हैं. समुदाय की वास्तविक ज़रूरतों और इसे सही दिशा में मार्गदर्शन करने की उनकी अटूट प्रतिबद्धता.

इसी तरह, अब्दुल कय्यूम अंसारी ने ऐसे नेतृत्व को मूर्त रूप दिया जो एक अलग राष्ट्र के लिए मुस्लिम लीग की विभाजनकारी मांगों से आगे निकल गया. स्वतंत्रता-पूर्व युग में उर्दू साप्ताहिक अल-इस्लाह (द रिफॉर्म) और मासिक मुसावत (समानता) के संपादक के रूप में, अंसारी ने अथक रूप से एक ऐसे दृष्टिकोण की दिशा में काम किया, जिसने बहुसंख्यकों के साथ टकराव के बजाय समुदाय की भलाई को प्राथमिकता दी. उनकी कहानियां हमें बताती हैं कि पसमांदा नेताओं के दिल उस समुदाय के साथ तालमेल बिठाते हैं जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, जो विभाजनकारी रास्तों पर चलने के बजाय उत्थान और पोषण की वास्तविक प्रतिबद्धता से प्रेरित है.

मैं एक नए आंदोलन की आवश्यकता में दृढ़ता से विश्वास करता हूं – एक ऐसा आंदोलन जहां पसमांदा मुसलमान आगे बढ़ सकें और अपने स्वयं के संगठन स्थापित कर सकें. एक दूरदर्शी, धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व तैयार करना महत्वपूर्ण है जो वास्तव में समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों के साथ-साथ इसके लोगों की आकांक्षाओं को समझता है. यह आंदोलन पसमांदा मुसलमानों के लिए सशक्तीकरण और प्रतिनिधित्व के एक प्रकाश स्तंभ के रूप में काम कर सकता है, जो एक अधिक समावेशी और उत्तरदायी भविष्य की दिशा में मार्ग प्रशस्त कर सकता है.

यह लेख ‘मुस्लिम नेतृत्व का सवाल कहां है’ नामक श्रृंखला का पहला भाग है

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार, लेखिका, टीवी न्यूज़ पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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