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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतराम लला घर आ गए हैं, यह जश्न मनाने का समय है, अयोध्या आंदोलन की कड़वाहट को भूल जाइए

राम लला घर आ गए हैं, यह जश्न मनाने का समय है, अयोध्या आंदोलन की कड़वाहट को भूल जाइए

इस आंदोलन के खिलाफ खासकर अंग्रेज़ी भाषा के मीडिया में झूठी कहानियां गढ़ने का बहुत बड़ा प्रयास किया गया.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक दिवंगत मधुकर दत्तात्रेय देवरस हर समय ज़मीनी हकीकत पर ध्यान देने के लिए जाने जाते थे. अपने करीबी सहयोगियों के साथ राम जन्मभूमि आंदोलन पर चर्चा के दौरान उन्होंने आगाह किया कि जल्दी नतीजों की उम्मीद न करें. उन्होंने कहा था, “यह 20-30 साल का संघर्ष होगा”. उन्होंने यह भी सलाह दी थी कि आंदोलन तभी शुरू किया जाना चाहिए जब सभी के पास ज़रूरी सहनशक्ति और धैर्य हो. उनके सहकर्मी सहमत हुए — और बाकी इतिहास है.

इस चेतावनीपूर्ण सलाह के पीछे यह भरोसा था कि यह उन करोड़ों लोगों के सैकड़ों वर्षों के बलिदान, संघर्ष और आकांक्षाओं के ‘अंत की शुरुआत’ होगी जो अयोध्या में राम जन्मभूमि पर राम के भव्य मंदिर की प्रतीक्षा कर रहे थे. गौरतलब है कि यह आत्मविश्वास तुरंत पैदा नहीं हुआ. 1975 के बाद से आरएसएस और सहयोगी संगठनों को उनके हर आह्वान पर जनता का समर्थन बढ़ रहा है. वहीं, आपातकाल, तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में सामूहिक धर्मांतरण और आतंकवादी हमले जैसी कई चुनौतियां भी सामने आईं.

कई लोगों को यह जानकारी नहीं होगी कि मीनाक्षीपुरम में धर्मांतरण के बाद आरएसएस ने बड़े पैमाने पर जनजागरण अभियान चलाया था, जिसके दौरान कार्यकर्ता देश भर के हज़ारों गांवों तक पहुंचे थे. इसके बाद प्रसिद्ध एकात्मता यात्राएं हुईं, जिसके दौरान गंगा से पवित्र जल और भारतमाता की एक मूर्ति ले जाने वाले चार रथों ने देश की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा की. देश को भावनात्मक रूप से एकजुट करने के इस अनूठे प्रयास पर सभी उम्र, जाति, धर्म और क्षेत्र के लोगों ने उत्साहपूर्वक प्रतिक्रिया जताई थी. ये सभी जन आंदोलन राम जन्मभूमि आंदोलन से पहले हुए थे.

अयोध्या आंदोलन के विभिन्न पड़ावों की रणनीति कैसे बनाई गई, सावधानीपूर्वक योजना बनाई गई और सैन्य बल के साथ उन्हें कैसे क्रियान्वित किया गया, यह कई शोध पत्रों का विषय बना हुआ है. पहला और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह सही मायने में एक जन आंदोलन था, जिसकी तुलना केवल स्वतंत्रता संग्राम से ही की जा सकती है. ‘शिला पूजन’ से लेकर, जिसके दौरान भारत के हर कोने से “श्री राम” लिखी हज़ारों शिलाएं (ईंटें) मंदिर निर्माण के लिए विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा नवीनतम धन उगाही अभियान तक लाई गईं. इस अभियान में 40 लाख स्वयंसेवकों द्वारा चार लाख गांवों में रहने वाले 10 करोड़ से अधिक परिवार जुड़े थे. फंड संग्रह कथित तौर पर 2,000 करोड़ से अधिक हो गया, जिससे यह दुनिया की सबसे बड़ी क्राउड-फंडिंग परियोजनाओं में से एक बन गई.


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घर वापसी का जश्न

बेशक, यह आंदोलन संघर्ष और बलिदान के बिना संभव नहीं था. धमकियां, डर, गिरफ्तारियां और गोलियां चलीं. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवा के दिन अयोध्या के ऊपर “एक परिंदा भी नहीं उड़ पाएगा” जैसी कुख्यात टिप्पणी की थी और जब कार सेवक बैरिकेड्स से बच निकले तो उन्होंने बेरहमी से गोलीबारी का आदेश दे दिया, लेकिन ऐसी कोई भी कोशिश देश के आम लोगों को उनके संकल्प से डिगा नहीं सकी.

इस आंदोलन के खिलाफ, खासतौर पर अंग्रेज़ी भाषा के मीडिया में झूठी और मनगढ़ंत कहानियां गढ़ने की बहुत कोशिशें की गईं. शुरुआत में संगठनों को बदनाम करने के भी प्रयास हुए. उदाहरण के लिए विहिप को “कागज़ी बाघ” कहा गया और यह भविष्यवाणी की गई थी कि “…इस मंदिर शहर पर आसमान मेहरबान नहीं होने वाला है”. मुलायम सिंह यादव को धर्मनिरपेक्षता और कानूनी शासन का रक्षक दर्शाया गया. चारों ओर विकृत तर्क तैर रहा था कि संघ परिवार ने काशी और मथुरा के बजाय अयोध्या को चुना था क्योंकि राम एक उच्च जाति (क्षत्रिय) से हैं, जबकि कृष्ण ओबीसी समुदाय (यादव) से हैं और शिव एक आदिवासी हैं.

उन लोगों के लिए इन सभी दर्दनाक अध्यायों को भूलना मुश्किल है जो इस आंदोलन के गवाह थे और इसमें शामिल थे, लेकिन आज, जब पूरा देश रामलला की भव्य घर वापसी का जश्न मना रहा है, तो कड़वाहट को दूर करने और इस ऐतिहासिक अवसर का पूरे दिल से जश्न मनाने का समय है. अयोध्या पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने सभी से अपने सांप्रदायिक मतभेदों को दूर करने और एक साथ हाथ मिलाने की अपील की थी. राम मंदिर भूमि पूजन में पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा, “राम सबके हैं और सबमें रहते हैं”. फारूक अब्दुल्ला का राम भजन सुनाना इस विश्वास की पुष्टि करता है. राम सभी को आशीर्वाद देते हैं, यहां तक कि उन लोगों को भी जिन्होंने उनके आगमन के भव्य समारोह का बहिष्कार किया है.

भक्ति, समर्पण, भारतीय मानस का सार है — कट्टर तर्कवादियों की एक छोटी सी अल्पसंख्यक संख्या को छोड़कर — यह एक सार्वभौमिक सत्य है जहां तक ​​किसी भी धर्म के भारतीयों का सवाल है. रामलला के अयोध्या आगमन का जश्न मनाने के लिए देश के सुदूर हिस्सों से लेकर नई दिल्ली के खान मार्केट जैसे विशिष्ट गढ़ों तक दिखाया गया जबरदस्त उत्साह इस दृढ़ विश्वास की एक ईमानदार अभिव्यक्ति है. इसने हर उस सीमा को पार कर लिया है जिसकी मानव मस्तिष्क कल्पना कर सकता है.

साथ ही, यह निस्संदेह उस राष्ट्रीय पुनरुत्थान की एक अभूतपूर्व परियोजना की परिणति है, जहां भक्ति लोगों, विशेषकर समाज के कमज़ोर वर्गों के लिए व्यापक भलाई की प्रतिबद्धता में बदल जाती है.

7 जनवरी के अपने कॉलम में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी को वाराणसी में गंगा आरती में युवाओं की भीड़ को देखकर एहसास हुआ- क्या यह “हिंदुओं का पुनरुत्थान” है? लेकिन वीएस नायपॉल जैसे शख्स को इसका एहसास 25 साल पहले ही हो गया था. उसी तरह आज, जो लोग अभी भी अयोध्या में राम मंदिर का विरोध कर रहे हैं, उन्हें आत्म-बोध होगा और वे ‘न्यू इंडिया’ के निर्माण में इच्छुक भागीदार बनेंगे, जो आधुनिक समय में ‘राम राज्य’ का पर्याय है.

(लेखक भाजपा के विदेशी मामलों के प्रकोष्ठ के प्रभारी हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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