प्रचंड बहुमत वाली नई सरकार सामने है और जल्दी ही हम उस नए चेहरे से मिलेंगे जिसके कंधों पर नमामि गंगे को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होगी. नमामि गंगे के अपने गाल बजाने के बीच एक सच्चाई यह भी है कि गंगा पहले से ज्यादा प्रदूषित है और नारों और दावों से बाहर गंगा सफाई एक दुरूह कार्य बना हुआ है. यहां हम गंगा सफाई की दिशा में उठाए जाने वाले उन दस कदमों की बात कर रहे हैं जिन्हें सरकार ने या यूं कहिए सरकारी बाबूओं ने कभी समझा ही नहीं. इस नासमझी का एकमात्र कारण यह है कि इन उपायों पर ज्यादा बजट की दरकार नहीं है. और जहां पैसा इनवाल्व नहीं होता वहां बाबूओं का इंटरेस्ट भी नहीं होता.
इन उपायो पर बात करें उससे पहले चार लाइन में गंगा की अविरलता की तस्वीर देख लीजिए. टिहरी से नाममात्र का गंदेला पानी लेकर भागीरथी आगे बढ़ती है और अलकनंदा से मिलकर गंगा बनाती है. गंगा जैसे ही मैदान को छूती है, हरिद्वार में, उसका आधा पानी निकालकर दिल्ली को पानी पिलाने वाली नहर में डाल दिया जाता है. हम उस नहर को हर की पैड़ी के नाम से जानते हैं. यहां से थोड़ा आगे बढ़ने के बाद बचे हुए पानी से आधा निकाल कर बिजनौर की मध्य गंगा नहर में डाल देते हैं. फिर बचा खुचा पानी आगे बढ़ता है और नरौरा एटमिक प्लांट के पास रोक लिया जाता है. यहां लोवर गंग नहर है. राजनीतिक रूप से यह क्षेत्र हरित प्रदेश कहलाता है.
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वास्तव में गंगा यहां खत्म हो जाती है. फिर भी, कोर्ट की लगातार फटकार और लोगों के दबाव में नरौरा के बाद बहुत थोड़ा सा पानी आगे बढ़ता है. नरौरा, जहां नहर नदी की तरह दिखाई देती है और नदी नहर की तरह. नाममात्र के इस गंगा जल को कानपुर पहुंचने से ठीक पहले बैराज बनाकर शहर को पानी पिलाने के लिए रोक लिया जाता. चूंकि शहर में पानी की किल्लत रहती है इसलिए यहां से एक बूंद पानी भी आगे नहीं बढ़ पाता. यहीं हो जाती है ‘श्री गंगा कथा समाप्त इसके बाद इलाहाबाद के संगम में और बनारस की आस्था के स्नान में गंगा जल को छोड़ कर सबकुछ होता है. वास्तव में आस्थावान लोग जिसमें गंगा समझ कर डुबकी लगाते है वह मध्यप्रदेश की नदियों, चम्बल और बेतवा का पानी होता है, जो यमुना में मिलकर गंगा को आगे बढ़ाती हैं.
अब सत्ताधारी दल के मेनीफेस्टो पर एक नजर डालिए. जिसमें गंगा की अविरलता और निर्मलता का बात प्रमुखता से कही गई है. मछुआरा नीति की भी बात है, गाद और परिवहन पर भी वायदा है लेकिन यह मूल तत्व गायब है कि गंगा में पानी आएगा कहां से?
तो फिर किया क्या जाए?
पहला कदम – पहले कदम के रूप में व्यक्तिगत और इंडस्ट्रीज के नालों को बंद करने का कदम उठाना चाहिए, ये नाले सरकारी नालों की अपेक्षा बेहद छोटे होते है लेकिन पूरे गंगा पथ पर इनकी संख्या हजारों में है. इन नालों को तुरंत बंद किया जा सकता है. इंडस्ट्रीज को कहा जाए कि अपना कचरा फैक्ट्री के पीछे नहीं आगे की ओर छोड़ें. बस इस आदेश को सख्ती से लागू करके देखिए वेस्टेज का ट्रीटमेंट भी हो जाएगा और सही उपयोग भी. रही बात बड़े और सरकारी नालों की तो उन्हे बंद करने का वादा नहीं नीयत होनी चाहिए. सीसामऊ की तरह नहीं कि बिना वैकल्पिक व्यवस्था के नाला बंद किया गया लेकिन फिर वहीं ढाक के तीन पात.
नए सीवेज सिस्टम के लिए बनारस भविष्य में एक मॉडल का काम कर सकता है. वाराणसी को तीन पाइप लाइन मिलनी थी, पीने के पानी के अलावा वर्षाजल निकासी और सीवेज की पाइप लाइन डाली जानी थी. शहर खोदा गया, सीवेज के पाइप डाले गए, लेकिन सीवेज संयंत्र के लिए जरूरी जमीन का अधिग्रहण नहीं हो सका.
दूसरा कदम- यह होना चाहिए कि कानपुर टिनरीज को तुरंत वैकल्पिक जगह उपलब्ध कराई जाए. जाजामऊ की तीन सौ से ज्यादा टिनरीज को मौखिक आदेश से बंद कराया गया था. अब ये टिनरीज कोर्ट चली गई है. सरकार के पास यह अच्छा मौका है कि चमड़ा उद्योगों को दूसरी जगह स्थानांतरित कर दें. लेकिन इसके लिए उच्चस्तरीय राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए. एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते है – यह झंझट वाला काम है मिलेगा कुछ नहीं और दुनियाभर की राजनीति झेलो वो अलग.
तीसरा कदम – तीसरा कदम होना चाहिए रिवर पुलिसिंग का, हर दो किलोमीटर पर एक गंगा चौकी हो, जिसमें रिवर पुलिस की व्यवस्था हो. जिसमें स्थानीय मछुआरों को रोजगार दिया जाए, रिवर पुलिस लोगों को गंगा में कचरा डालने से रोकेगी. अर्थदंड लगाने जैसे अधिकार भ्रष्टाचार को बढ़ावा देंगे इसलिए रिवर पुलिस जागरूकता फैलाने और स्थानीय प्रशासन के बीच सेतू का काम करने वाला होना चाहिए. यह रिवर पुलिस गंगा भक्त परिषद के तहत काम करेगी, जिसकी मांग प्रो. जीडी अग्रवाल ने की थी.
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चौथा कदम – गंगा संरक्षण की दिशा में चौथा उपाय मोटर से चलने वाली छोटी नाव पर रोक के रूप में होना चाहिए. रोजगार के नाम पर लाखों की संख्या में डीजल आधारित मोटर वोट गंगा में चलती है. नावों में लगाई जाने वाली ये सेकेंडहैंड मोटरें बड़ी संख्या में बांग्लादेश से तस्करी करके लाई जाती है. अत्यधिक पुरानी होने के कारण इनसे काला धूंआ और तेल की परत निकलती है. जिसमें मछलियां और उनके अंडे जीवित नहीं रह पाते. इन नावों में डीजल की जगह केरोसिन का उपयोग होता है. इन नावों के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि जब छोटे जहाज और स्टीमर गंगा में चल सकते है तो इन गरीबों की नाव रोकने का क्या तुक है. परन्तु गंगा में स्टीमर और फेरी मुख्यत बिहार और बंगाल में ही चलते है जहां गंगा में पानी की समस्या नहीं है. बनारस तक के क्षेत्र में, जहां गंगा अस्तित्व के लिए ही जूझ रही है वहां, यह बंद होना चाहिए.
पांचवा कदम – बेहद महत्वपूर्ण विषय है आस्था को ठेस पहुंचाए बिना पूजन सामग्री के निपटान का. गंगा पथ पर बसे घरों की समस्या यह है कि वे पूजा के फूलों व पूजन सामग्री का क्या करें, मजबूरी में लोग उसे नदी में डालते हैं क्योंकि कहीं और फेंकने से आस्था को ठेस पहुंचती है. एक उपाय यह है कि हर रोज नगर निगम इस पूजन सामग्री को लोगों के घरों से इक्टठा करे. इस काम के लिए कूड़ा उठाने वाली गाड़ियों का उपयोग ना किया जाए. इस इकट्ठा किए गए पूजन सामग्री को गंगा किनारे जमा कर इसका उपयोग खाद बनाने में हो सकता है. बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चला कर लोगों को बताया जाए कि जब एक भगवान पर चढ़ा फूल दूसरे पर नहीं चढ़ाया जाता तो फिर आप उसे गंगा पर क्यों चढ़ा रहे है?
छठवां कदम – नई सरकार की जीत का रथ यदि जाति और धर्म के घोड़ों से नहीं बंधा है तो मुर्ति विसर्जन पर रोक तुरंत प्रभाव से लागू किया जा सकता है. इससे पहले इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि मुर्ति निर्माण में प्राकृतिक रंगों का उपयोग अनिवार्य बनाया जाए लेकिन बेहद मंहगे होने के चलते यह संभव नहीं हो पा रहा. यह समझने की जरूरत है कि पीओपी से बनी एक मूर्ति किसी जानवर की लाश से ज्यादा प्रदूषण फैलाती है.
सातवां कदम – मौजूदा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अपनी पूर्ण क्षमता से काम करें. अभी तो आधे से भी कम प्लांट चालू हालत में है और जो चालू है वह भी अपने दावे के अनुरूप नहीं चलते. वाराणसी में हर रोज पैदा होने वाले 40 करोड़ लीटर एमएलडी सीवेज में से मात्र 150 एमएलडी साफ हो पाता है बाकि गंगा सारा गंगा को भेंट हो जाता है. प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित दीनापुर प्लांट भी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहा. सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही 45 बड़े नाले गंगा में गिरते है, छोटे नालों की तो गिनती ही नहीं है. अकेले बनारस में ही 30 छोटे बड़े नाले गंगा से संगम करते है. बिजली की भारी कमी के चलते भी सीवेज प्लांट नहीं चलते. यह हालत यूपी में है जहां इन संयंत्रों का चालू रहना बेहद जरूरी है. उद्योगों को बिजली भले ना मिले सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को बिजली मिलनी ही चाहिए.
साथ ही यह पक्का किया जाए कि भविष्य में कोई भी नया प्लांट नहीं लगाया जाएगा. यह मूल बात समझने की जरूरत है कि हमारे देश की स्थिती लंदन से अलग है. हमारे यहां सीवेज जमीन के भीतर नहीं इकट्ठा होता जिसे शोधित कर उपयोग में लाया जा सके . हमारे यहां तो बहते हुए नालों को ही सीवेज ट्रीटमेंट सेंटर बनाने की जरूरत है और उस शोधित पानी को भी गंगा में या सिंचाई में उपयोग में ना लाया जाए. एक बानगी देखिए, वाराणसी के पास सारनाथ से सटे कोटवा गांव में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया, पहले पहल शहर के गंदे नाले का पानी खेतों में डाला गया तो लगा दूसरी हरित क्रांति हो गई. फसल चार से दस गुना तक बढ़ी, लेकिन अब स्थानीय लोग खुद ही इन खेतों की सब्जियों को हाथ नहीं लगाते, क्योंकि वे देखने में तो चटक हरी, बड़ी और सुंदर होती है मगर उनमें कोई स्वाद नहीं होता और कुछ ही घंटों में कीड़े पड़ जाते है. यहीं हाल अनाज का भी है सुबह की रोटी शाम को खाइए तो बदबू आएगी. कई सालों तक उपयोग करने के बाद बीएचयू के एक अध्ययन में यह सामने आया कि शोधित पानी सोने की शक्ल में जहर है. इस साग – सब्जियों में कैडमियम, निकिल, क्रोमियम जैसी भारी धातुएं पाई जाती है.
आंठवा कदम – अगले कदम के रूप में हरिद्वार और ऋषिकेश के आश्रमों को नोटिस देना चाहिए कि वे एक समयसीमा के भीतर अपने सीवेज का वैकल्पिक इंतजाम कर लें. बड़ी चालाकी से ये प्रचारित किया जाता रहा है कि गंगा को गंदा बनाने में इनका योगदान ऊंट के मुंह में जीरे के समान है, लेकिन इनके लाखों – करोड़ों आस्थावान भक्तों पर गंगा निर्मल रखने की आश्रमों की अपील का असर तब पड़ेगा, जब वे लोग खुद इस पर अमल करेंगे. अब तक तो गंगा आंदोलन में शामिल सभी आश्रमों के मुंह से निर्मल गंगा की बात ऐसे ही लगती है जैसे हम पेड़ काटते है, उसका कागज बनाते है और फिर उस पर लिखते है “सेव द ट्री” .
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नौवां कदम – हर बैराज के ठीक पहले डिसिल्टिंग लगातार चलने वाली प्रक्रिया होनी चाहिए. गंगा पर बने हर बैराज के पहले कई किलोमीटर तक भारी गाद जमा हो गई है. फरक्का बैराज के पहले जमा गाद ने गंगा की सहायक नदियों पर भी भारी प्रतिकूल प्रभाव डाला है. साथ ही गंगा में रेत खनन पर जारी रोक को तुरंत हटाना चाहिए. रेत खनन ना होने से कई जगह नदी का स्तर उठ गया है जो मानसून की पहली बारिश में बाढ़ का सबब बनता है. रेत खनन विशेषज्ञ की देख रेख में किया जाए क्योंकि गाद हटाने के नाम पर रेत माफिया कब से गंगा पर नजर गड़ाए हुए है. वास्तव में यह रेत खनन नहीं रेत चुगान होना चाहिए. बालू के क्षेत्र को नियंत्रित किया जाना जरूरी है. वाराणसी में ही रेत खनन पर रोक से रेत के बड़े – बड़े टीले बन गए और पानी घाट की सीढियों के नीचे घुसने लगा नतीजतन सदियों पुराने गंगा घाटों की सीढ़ियां दरकने लगी हैं.
दसवां कदम – अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण काम गंगा में गंदगी डालने को कार्बन क्रेडिट जैसा मामला नहीं बनाना चाहिए. किसी भी उद्योग पर गंदगी डालने पर जुर्माना ना लगाया जाए , हर हाल में यह पक्का करना चाहिए कि गंदगी ना डाली जाए, जुर्माने वाली व्यवस्था से सिर्फ भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. कई बड़े उधोगो का गणित यह है कि जुर्माना देना सरल है बल्कि वैकल्पिक व्यवस्था करना मंहगा. इसलिए वे जुर्माने को अपनी मलबा निपटान की लागत में जोड़ कर चलते है.
अफसोस सरकारों को यह प्रयास व्यवहारिक नहीं लगते उनके लिए करोड़ों की लागत से बनने वाले ट्रीटमेंट प्लांट, स्कीमर, घाट निर्माण, मंदिर निर्माण, बंदरगाह निर्माण ज्यादा माकूल लगते हैं. उम्मीद है नई मूड की सरकार समझेगी कि प्रकृति के घाव कंक्रीट से नहीं भरे जा सकते.
(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)