कांग्रेस पार्टी अपनी अंतिम अवस्था में है. हल्का धक्का भर देने की ज़रूरत है, यह ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर गिर जाएगी. सीटों में तब्दील नहीं हो सकने वाले इसके निष्क्रिय वोट शेयर को कोई भी पार्टी आसानी से हड़प सकती है. भाजपा ने त्रिपुरा और ओडिशा में यही किया. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में भी यही किया था. भाजपा तेलंगाना में यही करने की कोशिश कर रही है. अभी-अभी बंगाल में भाजपा ने वाम दलों के साथ ऐसा ही किया.
कांग्रेस पक्का मर रही है, पर धीमी गति से. इस प्रक्रिया में दशकों लग सकते हैं और धीरे-धीरे नई ताकतें इसकी जगह ले सकती हैं. ये धीमी प्रक्रिया भाजपा को लंबे समय तक सत्ता में बनाए रह सकती है, जैसे 1989 तक कांग्रेस ने एकदलीय शासन का लाभ उठाया.
कांग्रेस के एकदलीय शासन में 1989 से पहले एकमात्र व्यवधान आपातकाल के बाद के चुनाव से आया था. जनता आपातकाल से, खास कर जबरिया नसबंदी से, बहुत गुस्से में थी.
मोदी के बहुत से आलोचकों को उम्मीद थी कि उनकी सरकार का कामकाज इतना खराब रहेगा कि मतदाता उन्हें सत्ता से बेदखल कर देंगे, जैसा विपक्ष के कमज़ोर और विभाजित रहने के बावजूद इंदिरा गांधी के साथ हुआ था. पर नरेंद्र मोदी ऐसी स्थितियों को लेकर कुछ ज़्यादा ही होशियार हैं. उन्हें ये भी पता है कि 1977 में क्या हुआ था, जब चुनावों में पहली बार हिंदुत्व की ताकतों को मुख्यधारा की वैधता मिली थी और जनसंघ (भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी) की खूब चर्चा हुई थी. इसलिए, दोबारा 1977 जैसी परिस्थिति बनने की संभावना नहीं है.
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कांग्रेस का पुनरोदय भी संभव नहीं दिखता है क्योंकि लगता नहीं है कि राहुल गांधी एक नेता के रूप में मोदी से अधिक स्मार्ट और जनता को सम्मोहित करने वाला बन जाएंगे. इसी तरह इस बात की संभावना भी नहीं दिखती है कि राहुल गांधी किसी अधिक सक्षम व्यक्ति के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की गद्दी छोड़ देंगे. यदि वह ऐसा करते भी हैं, और कांग्रेस को सीताराम केसरी जैसा कोई मिल जाता है, तो पार्टी उसी तरह जर्जर होने लगेगी जैसा कि सीताराम केसरी के नेतृत्व में इसका हाल था. अगले पांच वर्षों में पार्टी को एक राज्य में या तीन में जीत हासिल हो सकती है, पर 2024 में नरेंद्र मोदी फिर से उसको ध्वस्त कर देंगे.
मोदी को हरा सकने वाली एकमात्र स्थिति
मोदी ने बड़ी बेरहमी से राष्ट्रीय चुनाव को राष्ट्रपतीय शैली का बना दिया है. ना जातपात, ना उपराष्ट्रवाद, ना एंटी-इनकंबेंसी और ना ही बड़े स्तर पर विपक्षी एकता उन्हें हरा सकती है.
पर इसका ये मतलब नहीं है कि नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं. उनके शीर्ष पर रहने के दौरान ही भाजपा कई राज्यों के चुनाव हार चुकी है. 2015 में बिहार और दिल्ली, जबकि 2018 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के उदाहरण सामने हैं. इनमें से हर चुनाव की परिस्थितियां अलग-अलग थीं, पर उनके बीच एक समानता थी. इनमें से हर चुनाव में मुख्यमंत्री पद का एक उम्मीदवार (या संभावित उम्मीदवार) था जिस पर जनता भरोसा कर सकती थी.
बिहार में 2015 में सिर्फ राजद और जदयू का अंकगणित ही नहीं चला. नीतीश कुमार का व्यक्तित्व भी असरदार साबित हुआ था. उस चुनाव को बहुत से मतदाताओं ने ‘केंद्र में मोदी, बिहार में नीतीश’ के नज़रिए से देखा था और परिणामस्वरूप भाजपा का वोट शेयर उसके हारने की हद तक गिर सका.
दिल्ली विधानसभा के 2015 के चुनाव में भी यही हुआ, जब व्यक्तित्व केंद्रित अभियान ने अरविंद केजरीवाल की झोली में 70 में से 67 सीटें डाल दी, और भाजपा को कुछेक वैसी सीटें भी गंवानी पड़ी जहां मोदी ने खुद प्रचार किया था.
छत्तीसगढ़ में, नेतृत्व परिवर्तन से कांग्रेस को मदद मिली, क्योंकि पिछड़े वर्ग के भूपेश बघेल पर लोगों ने भरोसा किया. राजस्थान में लोग वसुंधरा राजे सिंधिया को हरा और अशोक गहलोत को जिता रहे थे, इस बात को खुलकर जाहिर करते हुए कि लोकसभा चुनावों में वे राहुल गांधी के बजाय मोदी को चुनेंगे. इस बात पर गौर करें कि लोग सीएम/पीएम के उम्मीदवारों के संदर्भ में कैसे बात करते हैं. ऐसा लगता है कि भारतीय मतदाता इस बात की सर्वाधिक परवाह करते हैं, और सही कारणों से भी. अब रायशुमारियों में शीर्ष नेताओं की लोकप्रियता की रेटिंग का महत्व सीटों के अनुमान जैसी बातों के मुकाबले कहीं अधिक हो गया है.
मध्यप्रदेश के लिए राज्यव्यापी उपस्थिति वाले कमलनाथ को श्रेय देना होगा, जिन्हें उस चुनाव से कुछ माह पूर्व ही पार्टी का प्रदेश प्रमुख की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. यदि राहुल गांधी ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में तब इन शख्सियतों पर केंद्रित अभियान चलने दिया होता तो कांग्रेस को कहीं अधिक बड़ी जीतें मिल सकती थीं.
कांग्रेस की जगह कोई और
रुग्ण कांग्रेस की जगह ले सकता है पूरे देश में ज्ञात एक ऐसा व्यक्ति जो कि भारत की जनता को सम्मोहित कर सके. हमें इस बारे में ठीक उसी तरह सोचना होगा जैसा कि हम अमेरिका के राष्ट्रपतीय चुनाव को देखते हैं. मोदी किसी पार्टी, गठजोड़, मुफ्त सुविधा के वादे या एंटी-इनकंबेंसी से नहीं हारेंगे. सिर्फ और सिर्फ कोई शख्स ही उन्हें हरा सकता है जो जननेता बन सके और जनमानस पर छा सके. यदि आपको सुनने को मिलने लगे कि ‘इस व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनना चाहिए,’ तो फिर आपको इस चुनाव में खूब सुनने को मिले इस सवाल का जवाब मिल जाएगा: ‘और है कौन?’
सबसे कठिन बात है 130 करोड़ भारतीयों में से इस उपयुक्त शख्स की खोज, जिसमें कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के नरेंद्र मोदी से बेहतर हकदार के रूप में देखे जाने की संभावनाएं हो.
उसके बाद उस व्यक्ति को सिर्फ राष्ट्रीय राजनीतिक अभियान पर ही ध्यान देना होगा, रोज मोदी की प्रचार मशीन से कथानक की लड़ाई जीतने की कोशिश करनी होगी, क्योंकि आज हम अनवरत प्रचार अभियान के दौर में जी रहे हैं.
यह शख्स ना कोई छुट्टी ले सकता है, ना ही किसी अन्य गतिविधि में भाग ले सकता है, और राज्यों के चुनावों को जीतने के वास्ते एक भी दिन के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक को भुला नहीं सकता है. मतदाता राज्य की राजनीति और राष्ट्रीय राजनीति को अलग-अलग तरह से देखते हैं, और उन्होंने इसका बारंबार सबूत दिया है. राहुल गांधी की पिछले पांच साल की विभिन्न गलतियों में से एक ये सोच थी कि दिल्ली का रास्ता राज्यों से होकर जाता है. उन्होंने 2017 के गुजरात और कर्नाटक के चुनावों में खुद को झोंक दिया था, जबकि उस दौरान उन्हें बढ़ती बेरोज़गारी और साफ दिख रही आर्थिक मंदी के मुद्दों का दोहन करते हुए एक सकारात्मक राष्ट्रीय विमर्श तैयार करने पर फोकस करने की ज़रूरत थी.
देश का नेता कैसा हो
ऊपर वर्णित शख्स के लिए भला तमाम कैडरों, राज्य सरकारों, आरएसएस, पैसा, आज्ञाकारी मीडिया और बाहुबल वाली भाजपा को पराजित करना कैसे संभव हो सकेगा? जनता जैसे ही ऐसे किसी व्यक्ति को अपने सामने पाती है जिससे कि उम्मीदें लगाई जा सके, चीज़ें खुद-ब-खुद रास्ते पर आने लगती हैं.
इतिहास में ऐसा अनेकों बार हो चुका है जब कोई एक व्यक्ति पूरे भारत के जनमानस पर छा गया हो, और हम यहां अमिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर की बात नहीं कर रहे. राजनीति में ऐसा कर दिखाने वाले लोगों में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, राजीव गांधी, वी.पी. सिंह, अरविंद केजरीवाल (2011 से 2014 के बीच) और नरेंद्र मोदी शामिल रहे हैं.
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इनमें सबसे असाधारण वी.पी. सिंह का उदाहरण है, जो खुद राजीव गांधी के मंत्रिमंडल का सदस्य थे, जो कि शायद स्वतंत्र भारत की सबसे मज़बूत सरकार थी, क्योंकि राजीव गांधी ने 514 में से 404 सीटों पर जीत हासिल की थी. पर वी.पी. सिंह ने बोफोर्स घोटाले का शोर मचाते हुए बगावत कर दी और उन्हें सरकार से बाहर कर दिया गया. उन्होंने पूरे देश में घूम-घूम कर बोफोर्स मुद्दे को उठाया, जनता दल नामक एक नई पार्टी बनाई, क्षेत्रीय गठजोड़ बनाए, और फिर कमाल हो गया! उन्होंने राजीव गांधी को पराजित किया और प्रधानमंत्री बन गए, हालांकि उनकी एक लुंजपुंज गठबंधन सरकार थी जो ज़्यादा दिन नहीं चली. उनका चुनावी नारा था- ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है.’
जब लोकपाल आंदोलन के साथ अरविंद केजरीवाल देश भर में पहचाने जाने लगे, उन्होंने भी यही सोच पालने की गलती की कि केंद्र का रास्ता राज्यों से गुजरता है. उन्हें दिल्ली विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था और उसकी बजाय सीधे लोकसभा को लक्ष्य बनाना चाहिए था. उन्होंने दिल्ली के स्थानीय मुद्दों वाला बिजली-पानी नेता बनकर खुद ही अपना दर्जा गिरा लिया. उसके बाद उन्होंने पंजाब जीतने की सोची, फिर गोवा, और फिर हरियाणा… पर जैसा कि वी.पी. सिंह ने साबित किया, भारतीयों के पास राष्ट्रीय परिकल्पना है जिसमें जगह बनाने के लिए लिए राज्यों की राजनीति में महारत हासिल करने की दरकार नहीं होती.
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या फिर खुद भाजपा के उदय पर गौर करें. यह 1984 में दो सीटों से शुरू कर 1985 में 85 सीटों (उसने इन 85 सांसदों का उपयोग वी.पी. सिंह को समर्थन देने और कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने में किया) तक पहुंच गई. पांच वर्षों के भीतर ऐसी परिवर्तनकारी वृद्धि इसलिए संभव हुई क्योंकि पार्टी के पास एक चेहरा (लालकृष्ण आडवाणी) और एक अभियान (राम जन्मभूमि) था. उस समय किसी भी राज्य में उसकी सरकार नहीं थी. केंद्रीय राजनीति में उभार के बाद राज्यों की राजधानियों पर उसके कब्जे की प्रक्रिया शुरू हुई.
2014 की ही बात करें तो ये तय नहीं था कि बिहार या कर्नाटक की जनता एक गुजराती, जिसके बारे में उन्होंने सुना भर हो, को देश के प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करेगी. 2014 में मोदी के अभियान ने जानकारी के इसी अभाव को पूरा करने का काम किया, और एक बार जीत जाने के बाद भी उन्होंने कभी अपने प्रचार अभियान नहीं रोका.
130 करोड़ भारतीयों की समृद्धि और सुरक्षा के दायित्व के संदर्भ में किस व्यक्ति को नरेंद्र मोदी के बेहतर विकल्प के रूप में जनता के समक्ष पेश किया जा सकता है? विपक्षी ताकतों को इसी का जवाब ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए. निश्चय ही राहुल गांधी वह शख्स नहीं हैं. वह कोई भी हो सकता है, और ज़रूरी नहीं कि वह पहले से राजनीति में मौजूद कोई व्यक्ति ही हो.
(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)