मैं अल जज़ीरा की बहुत बड़ी प्रशंसक हुआ करती थी. इसकी हाई क्वालिटी कंटेंट और विश्व स्तर पर राजनीतिक ग़लतियों को चुनौती देने की प्रतिबद्धता से आकर्षित होकर, मैंने खुद को इसके प्रगतिशील और उदार दृष्टिकोण के साथ खड़ा पाया. विभिन्न मुद्दों पर दोहा स्थित इस समाचार संगठन के आलोचनात्मक रुख ने मेरे मूल्यों को प्रभावित किया. हालांकि, समय के साथ एक समझदार नज़र ने इसकी कहानी में बुने गए पाखंड के सूक्ष्म धागों को उजागर करना शुरू कर दिया. यह स्पष्ट हो गया कि ऑब्जेक्टिव रिपोर्टिंग के अपने दावे के बावजूद, अल जज़ीरा अक्सर एक स्पेशल ग्रुप के हितों को खुश करने के साधन के रूप में काम करता है. इस निर्लज्ज प्रकृति को नजरअंदाज करना थोड़ा कठिन होता जा रहा है. यहां तक कि किसी ऐसे व्यक्ति के लिए भी जिसने कभी इसकी प्रोग्रामिंग में एक गूंज देखी थी.
अल जज़ीरा नेटवर्क और इसके कथित मूल्यों और कतर के शाही परिवार के कामों पर इसके रुख के बीच एक बड़ा अंतर दिखता है. अल जज़ीरा हालांकि, कतर सरकार द्वारा वित्त पोषित है, लेकिन एक स्वतंत्र निजी न्यूज़ नेटवर्क है जो अपनी संपादकीय स्वतंत्रता को बनाए रखने का दावा करने के लिए जाना जाता है. इसलिए, यह देखना दिलचस्प है कि यह संगठन, जो इस्लामोफोबिया और अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में इतना मुखर है, कतर में पूर्ण इस्लामी राजशाही को लेकर चुप्पी साधे है. इसके रुख में एक विरोधाभास भी दिखता है. घर में चल रही घटनाओं को आसानी से नजरअंदाज करते हुए, यह नेटवर्क मांग करता है कि भारत एक पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश हो. यह इस मंच पर मौजूद कई ओपिनियन रायटर के लेखों को सही ठहराता है जो भारत को एक विकासशील फासीवादी राष्ट्र के रूप में चित्रित करते हैं.
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दोहरे मापदंड उजागर
मीडिया पाखंड के दायरे में कतर का अल-जज़ीरा सेंटर स्टेज पर है. एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार के इस्तीफे और भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर चिंता व्यक्त करते समय, नेटवर्क आसानी से अपने भीतर की समस्या को नजरअंदाज कर देता है. इसका ज्वलंत उदाहरण कतर में आयोजित 2022 फीफा विश्व कप की तैयारियों में शामिल प्रवासी श्रमिकों की स्थिति की जांच कर रहे दो नॉर्वेजियन पत्रकारों की गिरफ्तारी और निर्वासन से पता चलता है. पत्रकारों को 36 घंटों के लिए हिरासत में लिया गया, लेकिन अल-जज़ीरा ने इसपर चुप्पी साधी रही, जिससे उसके दोहरे मानदंड का पता चलता है.
पिछले साल ईरान में हिजाब विरोधी प्रदर्शनों के मद्देनजर कतर के मीडिया प्रतिबंधों पर अल जज़ीरा का शांत रुख भी उतना ही हैरान करने वाला है. इसके एकतरफ़ा कवरेज को काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है. कतर के मीडिया परिदृश्य से पता चलता है कि यह प्रेस स्वतंत्रता चैंपियन नहीं है जिसका वह दावा करता है. इन मामलों पर चुप्पी अल जज़ीरा की निष्पक्ष पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्धता पर सवाल उठाती है.
अल जज़ीरा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र प्रेस की वकालत करता है, साथ ही उन विचारों वाले लेखों का मनोरंजन करता है जो मुस्लिम भावनाओं के मामले में अभिव्यक्ति की उसी स्वतंत्रता पर सवाल उठाते हैं. एक लेख में मुस्लिम भावनाओं को ठेस पहुंचाने को सिनेमा हॉल में “आग” लगाने के बराबर बताया गया और प्रतिक्रिया स्वरूप अपराध करने वालों पर इसका दोष मढ़ दिया गया.
अल जज़ीरा अक्सर दूसरे राष्ट्रों की आलोचना करता रहता है. अक्सर बिना किसी रोक-टोक के इस्लामोफोबिया के दावे को आगे बढ़ाता है. हद तो तब पार हो गई जब एक ऑप-एड – जिसे संगठन ने तब से वापस ले लिया है – ने सुझाव दिया कि ट्यूनीशिया कोविड-19 के दौरान धार्मिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए आंतरिक रूप से इस्लामोफोबिया दिखा रहा है. ये उदाहरण निष्पक्ष पत्रकारिता के प्रति नेटवर्क की प्रतिबद्धता को कमजोर करते हैं, जिससे हम फ्री स्पीच की वकालत की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं.
अल जज़ीरा अपने अंग्रेजी और अरबी प्लेटफार्मों पर अपनी रिपोर्टिंग में कथित तौर पर असंगत रुख अपनाने के लिए विभिन्न अरब मीडिया स्रोतों की जांच के दायरे में आ गया है. इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण लैंगिक समानता का कवरेज है. जबकि अल जज़ीरा इंग्लिश (AJE) ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में लिंग मिश्रण पर अपनी नीतियों के लिए सऊदी अरब की आलोचना करते हुए एक वीडियो बनाया, अल जज़ीरा अरबी (AJA) ने बिल्कुल इसके विपरीत रुख अपनाया. AJA के कवरेज में सऊदी अरब के राष्ट्रीय दिवस को मिश्रित कार्यक्रमों में मनाने वाली महिलाओं और पुरुषों दोनों की निंदा की गई, यहां तक कि एक राजनीतिक नैतिकता और धार्मिक इतिहास के प्रोफेसर, मोहम्मद अल-मोख्तार अल-शिंकीती को भी आमंत्रित किया गया, जिन्होंने आलोचकों को उद्धृत करते हुए इसे “अश्लील साहित्य के समान” बताया.
इज़रायल-हमास संघर्ष पर अल जज़ीरा के कवरेज की भी एकतरफा होने के कारण आलोचना की जा रही है. इसके अलावा, नेटवर्क द्वारा यहूदी-विरोधी भावनाओं को प्रदर्शित करने के उदाहरण पहले भी देखे गए हैं. 30 मई 2017 को, अल जज़ीरा के अंग्रेजी भाषा के अकाउंट ने एक यहूदी-विरोधी मीम को रीट्वीट किया, जिससे नेटवर्क को माफ़ी मांगनी पड़ी और उसने इसे “गलती” बताया.
इसके अलावा, मई 2019 में, AJ+ ने एक वीडियो बनाया जिसमें एक नरसंहार का खंडन कर सवालिया निशान लगाने की कोशिश की और उसे कम बताया गया. बाद में अल जज़ीरा ने गलती स्वीकार की और वीडियो को तुरंत हटा दिया. इसे हटाते हुए उन्होंने यह कहा कि इसने नेटवर्क के संपादकीय मानकों का उल्लंघन किया है. वीडियो में विवादास्पद रूप से दावा किया गया कि नरसंहार में मारे गए यहूदियों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई और “ज़ायोनी आंदोलन द्वारा अपनाई गई”. साथ ही यह भी बताया गया कि इज़रायल नरसंहार में “दुनिया का सबसे बड़ा विजेता” था. इन घटनाओं ने नेटवर्क की निष्पक्षता और नैतिक रिपोर्टिंग मानकों के पालन के बारे में चिंताओं को उजागर किया है.
अल जज़ीरा का पाखंड उन युवाओं के लिए एक सबक है जो उन खबरों का इस्तेमाल करते हैं जो उनके प्रगतिशील और उदार मूल्यों से मेल खाती हैं. यह सतर्क रहने के महत्व को रेखांकित करता है, क्योंकि मानवाधिकारों और राजनीतिक शुद्धता की बाहरी खोज कभी-कभी प्रचार उद्देश्यों के लिए सिद्धांतों और मानवता के हेरफेर को छुपा सकती है. अल जज़ीरा की पत्रकारिता हमें यह समझने के लिए प्रेरित करती है कि जिस मीडिया का हम उपभोग करते हैं वह वास्तव में उन मूल्यों को बरकरार रखता है जिनका वह दावा करता है या क्या यह छिपे हुए एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नेक कारणों का फायदा उठाता है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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