साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की एक उपलब्धि को तो हमें कबूलना पड़ेगा. उन्होंने नरेंद्र मोदी और अमित शाह को वह करने पर मजबूर कर दिया है, जो कोई नहीं कर पाया था. उन्होंने इन दोनों नेताओं को बचाव की मुद्रा में ला दिया है.
साध्वी ने पार्टी नेतृत्व को वह करने को भी मजबूर कर दिया है, जिसे करने से वह भारी नफरत करता है— सुर्खियां बनाने के अपने एकाधिकार को छोड़ने को. पांच साल तक वह सुर्खियों को बदलने और बनाने की अपनी रणनीति पर बखूबी अमल करता रहा लेकिन इस अभियान का समापन इस तरह हो, भाजपा यह तो नहीं ही चाहती थी. अपने सार्वजनिक जीवन के इस पूरे दौर में मोदी और शाह को पहली बार एक ऐसे मसले से रू-ब-रू होना पड़ा, जिसका बचाव करना उनके लिए नामुमकिन है.
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केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े और भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय समेत पार्टी के कुछ ट्विटर-कुशल महानुभावों ने पहले तो साध्वी का बचाव करने और ‘गांधी बनाम गोडसे विमर्श’ को उछालने की कोशिश की. सबको खामोश किया गया. पिछले पांच वर्षों में तो यही दिखता रहा कि पार्टी के किसी शख्स ने जब भी किसी व्यक्ति या किसी समुदाय पर हमला किया तो भाजपा उसके बचाव में उतर सकती है या उसे बेमानी कहके खारिज कर सकती है— चाहे वह ‘अली बनाम बजरंगबली’ वाला कट्टरपंथी बयान हो या एक समुदाय को निशाना बनाने वाला ‘ईद पर बिजली दी जाए तो दीवाली पर क्यों नहीं’ वाला जुमला हो या ‘मोदी की सेना’ को लेकर किए गए दावे हों अथवा ‘अवैध प्रवासियों को दीमक’ बताने वाला अपमानजनक बयान हो, या फिर यह कहना कि ‘पप्पू’ राहुल अब ‘पप्पी’ प्रियंका को भी ले आया.
लेकिन महात्मा गांधी के मामले में तो सब कुछ भूल जाओ. चाहो तो उनके खिलाफ कानाफूसी कर लो, उनकी ‘भूलों’ पर बहस कर लो, उनको देश के बंटवारे के लिए दोषी ठहराओ, मगर यह सब ड्राइंगरूम के अंदर कर लो, गोष्ठियों में कर लो, शाखाओं में कर लो मगर कुछ भी सार्वजनिक तौर पर मत करो. खासकर इसलिए कि उनकी हत्या के मामले में, अपने वैचारिक अभिभावक आरएसएस से पार्टी पिछले सात दशकों से खुद को अलग बताती आई है.
लेकिन पार्टी द्वारा पुरस्कृत एक भगवाधारी उम्मीदवार, आतंकवाद के एक मामले में जमानत पर छूटे एक हिंदुत्ववादी ‘आइकन’ ने, जिसे तुमने चुनाव में खड़ा किया और जिसका बचाव इस रटे-रटाए बयान से किया कि ‘जिसे कानून ने अपराधी नहीं बताया वह निर्दोष है’, उस शख्स ने महात्मा के हत्यारे को देशभक्त बता दिया. जिसे तुम राष्ट्रपिता बताते हो उसकी विरासत को चुनौती कैसे दे सकते हो— कम-से-कम उसकी 150वीं जयंती के साल में तो नहीं ही, जबकि कांग्रेस पार्टी के इस मूल आइकन को आपने उससे छीन लिया है! प्रधानमंत्री विदेशी मेहमानों को महात्मा से जुड़े स्थलों को बड़े गर्व से घुमाते हैं, महात्मा को दक्षिण अफ्रीका के जिस मारित्ज्बर्ग स्टेशन पर अपमानित करके ट्रेन से फेंक दिया गया था उस ट्रेन से यात्रा करते हैं, दांडी मार्च की 89वीं वर्षगांठ पर ब्लॉग लिखते हैं, चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी पर वहां पहुंच जाते हैं, साबरमती आश्रम में चरखा चलाते हुए फोटो खिंचवाते हैं, और महात्मा के गोल चश्मे को अपने प्रिय ‘स्वच्छता अभियान’ का लोगो बनाते हैं.
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जिस प्रज्ञा ठाकुर में न वोट खींचने की क्षमता है और न पार्टी की नीतिगत दिशा तय करने की, उन्होंने इस तरह का बयान देकर प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष को निंदनीय झटका दे दिया है. वे तो अब कोई शिकायत भी नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने ही तो उन्हें जान बूझकर अचानक सामने लाकर खड़ा कर दिया था. और इसकी वजह भी खुद अमित शाह ने मोदी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताई थी, कि यह भगवा आतंकवाद का शोशा छोड़कर हिंदुओं को बदनाम करने की कांग्रेस की मुहिम के खिलाफ उनकी पार्टी का ‘सत्याग्रह’ है.
यहां दो बातें गौर करने की हैं. पहली बात यह है कि अब उनकी पार्टी साध्वी से इसलिए पल्ला नहीं छुड़ा सकती क्योंकि वह उनकी सोची-समझी पसंद हैं जिसे उन्होंने अपना एक नीतिगत मुद्दा साफ करने के लिए चुना. दूसरी बात एक विरोधाभास को उजागर करती है— शाह ने अपना राजनीतिक बयान देने के लिए गांधी के एक प्रसिद्ध प्रतीक को चुना. गांधी ने मानवता को अहिंसक प्रतिकार का जो अनूठा अस्त्र दिया था उसका नाम लेकर अगर आप उस शख्स का बचाव करेंगे जो उनके हत्यारे को देशभक्त घोषित करता हो, तो आप समझ सकते हैं कि आपका क्या होगा. जीवन हो या राजनीति, दोनों के लिए एक अच्छी, स्वयंसिद्ध नीति तो यही है कि अच्छे मकसद के लिए भी बुरे रास्ते को कभी मत चुनिए.
हमें मालूम है कि भाजपा को दिग्विजय सिंह से कुछ हिसाब बराबर करना है. कांग्रेस पार्टी में वे एक ऐसे नेता हैं, जो ‘हिंदू आतंकवाद’ के बारे में सबसे बढ़चढ़कर बोलते रहे हैं. उन्होंने 26/11 हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे की तरह नई दिल्ली के बाटला हाउस एनकाउंटर में शहीद हुए तथा इसके लिए अशोक चक्र से सम्मानित पुलिस अफसर मोहन चंद शर्मा को लेकर सवाल उठाए थे. बाद में दिग्विजय सिंह ने 26/11 हमले को आरएसएस की साजिश बताने वाली एक किताब के विमोचन पर इसके समर्थन में बयान भी दिया था.
इसलिए भाजपा का विचार था कि उनके मुक़ाबले में ऐसे ही उम्मीदवार को खड़ा करना उपयुक्त होगा, जो उग्र हिंदुत्ववाद का एक सबसे पहचाना चेहरा हो और जिसे आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया गया हो. पिछले महीने के अंत में जब प्रज्ञा ठाकुर ने यह बयान दिया कि हेमंत करकरे इसलिए मारे गए क्योंकि उन्होंने करकरे परिवार को शाप दिया था (संयोग से करकरे की पत्नी का भी निधन 29 सितंबर को मालेगांव बमकांड की बरसी पर हो गया), और यह भी कहा कि वे बाबरी मस्जिद को तोड़ने के लिए उसके गुंबद पर चढ़ी थीं, तो पार्टी तुरंत सफाई देने पर उतर आई थी. एक तो प्रज्ञा को ‘मौनव्रत’ पर भेज दिया गया; दूसरे, दिग्विजय और कांग्रेस पर जवाबी हमला बोला गया कि आप लोगों ने भी तो मोहन चंद शर्मा को ‘इसी तरह अपमानित’ किया था. लेकिन प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे की प्रशंसा करके उनकी पार्टी के लिए मुंह छुपाने की जगह भी नहीं छोड़ी.
1989 के बाद से भाजपा धीरे-धीरे हमला बढ़ाते जाने की रणनीति पर चल रही है. लालकृष्ण आडवाणी के अयोध्या आंदोलन के बाद से उग्रवादी तत्वों को निरंतर बढ़ावा दिया जाता रहा है. वैसे, बीच-बीच में कुछ को खारिज भी किया गया. याद कीजिए साध्वी ऋतंभरा, प्रवीण तोगड़िया, और यहां तक कि विनय कटियार को भी. कुछ को मुख्यधारा में लाया गया, मसलन उमा भारती से लेकर साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति (‘रामजादे’ और ‘हरामजादे’ वाले बयान से मशहूर) और योगी आदित्यनाथ तक को.
तीन दशकों तक यह चलता रहा लेकिन कितना चलता! हममें से कुछ लोगों ने पहले अंदाजा लगा लिया था कि यह सब होने वाला है (देखें— दादरी में गौरक्षकों द्वारा अखलाक की हत्या के बाद लिखे मेरे स्तंभ ‘मेनस्ट्रीमिंग द लिंच-फ्रिंज’ को). इस कड़ी में प्रज्ञा ठाकुर सबसे ताज़ा और सबसे शर्मसार करने वाली एक मिसाल भर हैं. इसे गफलत भी कहा जा सकता है, क्योंकि पार्टी अध्यक्ष खुद कह चुके हैं कि उनका चयन सोचा-समझा कदम, एक सत्याग्रह है. यह अपनी मंशा को जाहिर करने वाला बेहद अविवेकपूर्ण बयान था, जो सब कुछ जीत लेने की हेकड़ी और भारतीय राष्ट्रीयता के विकास को लेकर नासमझी से उपजा था.
यह इस झूठी धारणा पर आधारित है कि हिंदू धर्म (या हिंदुत्ववाद) ने ही भारत को जोड़े रखा है और यही उसकी राष्ट्रीयता को परिभाषित करता है. इससे भी आगे जाकर यह हिंदू धर्म (या हिंदुत्ववाद) को आरएसएस तथा हिंदी पट्टी के ‘एक आस्था, एक कौम, एक भाषा, एक राष्ट्र’ वाले चश्मे से देखता है. भारत इतना विविधतापूर्ण है कि इसे इस दायरे में सीमित नहीं माना जा सकता. मोदी को यह याद रखना होगा जब वे पूर्ण बहुमत हासिल कर लेते हैं, तब भी दक्षिण के चार राज्यों— आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, और केरल— की कुल 103 सीटों में वे दो सीट भी जीत लेते हैं तो भाजपा खुद को भाग्यशाली समझेगी. इस क्षेत्र की तरह भारत के सभी भागों में इस तरह के हिंदूकरण के प्रति आक्रोश पैदा होगा और केंद्र विरोधी प्रतिक्रिया उभरेगी.
यह देश को राज्यों के संघ के रूप में विकसित करने की हमारे राष्ट्र निर्माताओं की परिकल्पना के विपरीत है. यह किसी एक आस्था, एक प्राचीन ग्रंथ या एक विचारधारा से उपजी कोई एक दृष्टि या परिकल्पना नहीं थी. यही वजह है कि भारत न केवल इतने शानदार तरीके से एकजुट रहा है बल्कि दशक-दर-दशक ज्यादा मजबूत, ज्यादा सुरक्षित होता गया है. दूसरी ओर, एक विचारधारा पर बना पाकिस्तान टूट चुका है.
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सहजता और विविधता— ये दो चीज़ें आधुनिक विश्व को भारत की महान देन हैं. उस दुनिया में, जहां भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का साथ-साथ रहना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है (मसलन मध्य-पूर्व), वहां यह चीज़ एक ऐसा ब्रांड है जिसमें निवेश के ज्यादा-से-ज्यादा लाभ ही मिलने वाले हैं. और भारत दुनिया में अगर विविधता का सबसे बड़ा ब्रांड है, तो जैसा कि स्विस दार्शनिक कार्ल जुंग ने कहा है, महात्मा गांधी इस ब्रांड के आदर्श प्रतीक हैं.
नेहरू को गाली देना, अपमानित करना, उनसे असहमत होना बहुत आसान है. कुछ लोग तो इंदिरा और राजीव के हत्यारों को हीरो मानते ही हैं. लेकिन जो धुर हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी लोग यह मानते हैं कि मुस्लिम ‘तुष्टीकरण’ की राजनीति महात्मा गांधी की ही देन है, वे यह भी मानते हैं कि गांधी को निशाना बनाना आत्मघाती होगा. मोदी ने बेशक ईमानदारी से कहा होगा कि उनका मन प्रज्ञा ठाकुर को कभी माफ नहीं करेगा, तो उन्हें अब यह प्रार्थना शुरू कर देनी चाहिए कि अगले गुरुवार को प्रज्ञा ठाकुर न जीत पाएं. वरना गांधी के नाम पर शपथ लेकर राज चलाना और उनके हत्यारे को देशभक्त बताने वाली को पार्टी के संसदीय दल में अगले पांच साल तक झेलना उनके लिए शर्मनाक होगा.
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