नाथूराम गोडसे की जीवनी से उसके बचपन के बारे में हमें एक विचित्र बात का पता चलता है. उसके तीन भाई छुटपन में ही चल बसे लेकिन बड़ी बहन जीवित रही. सो नाथूराम के माता-पिता ने तय किया कि अगली संतति पुत्र हुई तो उसे बेटी के रुप में पालेंगे ताकि परिवार के पुत्र-संतानों पर चले आ रहे शाप से बचा जा सके. इस सोच से नाथूराम को नाक में नथ पहनायी गई और उसका लालन-पालन लड़की के रूप में हुआ. इसी कारण उसका असली नाम रामचंद्र से बदलकर नाथूराम हो गया यानि वो ‘राम’ जिसने नथ पहना हो.
नाथूराम के जीवनी लेखक ने संकेतों में कहा है, ‘नाथूराम का लालन-पालन एक कन्या के रुप में हुआ- मनोविज्ञानी इस तथ्य में उसकी विकृत मानसिक प्रक्रियाओं की कोई व्याख्या ढूंढ़ सकते हैं.’ हम यह तो जानते ही हैं कि नाथूराम आगे चलकर एक कड़ियल नौजवान के रुप में सामने आया लेकिन उसने ‘शादी नहीं की’ और ‘महिलाओं के संसर्ग से दूर’ ही रहा करता था.
क्या गोडसे को लेकर जारी मौजूदा विवाद के एतबार से ये कहानी मौजूं है? लगता तो नहीं- खासकर जब हमारा सवाल ये हो कि नाथूराम को ‘आतंकवादी’ कहा जाये या नहीं. मुझे लगता है, ज्यादा प्रासंगिक होगा ये पूछना कि नाथूराम को हिन्दू क्यों और किस अर्थ में कहा जाय. नाथूराम के बचपन से जुड़े प्रसंग से हमें एक अंतदृष्टि मिलती है- उन प्रेरणाओं का पता चलता है जो नाथूराम के हिन्दू-धर्म भावना की आधारभूमि बनी और यह बात हमें आज के वक्त के एक बड़े सवाल के मुहाने तक ले आती है.
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आइए पहले उसी सवाल से निपट लें जिसे लेकर न्यूज चैनल मारे उत्तेजना के बल्लियों उछल रहे हैं. न्यूज चैनल हांका लगाने के स्वर में पूछ रहे हैं कि अगर कमल हासन ने नाथूराम गोडसे को आजाद भारत का पहला आतंकवादी कहा तो क्या उनका ऐसा कहना जायज था? कमल हासन के कहे को लेकर उठा विवाद कई कोणों से हास्यास्पद है. अव्वल तो कमल हासन ये बात कोई पहली बार नहीं कह रहे. एक माह पहले चेन्नई के मरीना बीच पर उन्होंने यही बात कही थी- उस वक्त मैं वहीं मौजूद था और उनके साथ में था. लेकिन उस वक्त मीडिया ने इस बात को तवज्जो नहीं दी. लेकिन इस दफे मामला कुछ और था, आस-पास का इलाका मुस्लिम बहुल था सो कमल हासन का बयान सुर्खियों मे तब्दील हो गया.
दूसरी बात, कमल हासन ने गोडसे को अतिवादी (तीव्रवादम) कहा है ना कि आतंकवादी (बयंगरवादम). गोडसे को अतिवादी ना कहा जाय तो फिर इससे तो खुद नाथूराम गोडसे को भी हताशा होती कि हाय हन्त! हमें ये लोग ‘अतिवादी’ तक नहीं कहते! तीसरी बात ये कि कमल हासन ने गोडसे को ‘हिन्दू अतिवादी’ सरीखा नाम नहीं दिया बल्कि उसे एक ऐसा ‘अतिवादी’ कहा जो ‘हिन्दू’ था. अगर आप कमल हासन के पूरे भाषण को संदर्भ मानकर इस बात को परखेंगे तो फिर आपको लगेगा कि आखिर उनके कहे पर विवाद करने जैसा क्या है. पूरा भाषण सांप्रदायिक सौहार्द्र की जरुरत पर बल देता है और हर किस्म के अतिवाद को तिलांजलि देने की पैरोकारी करता है.
यहां एक बात ये भी ध्यान देने की है कि ‘हिन्दू आतंक’ की बात कमल हासन ने नहीं छेड़ी बल्कि इसकी शुरुआत स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने की है. महाराष्ट्र के वर्धा वाले अपने कुख्यात भाषण में प्रधानमंत्री ने श्रोताओं से सवाल किया था: ‘क्या आप हजार सालों के इतिहास में एक भी ऐसे हिन्दू का नाम बता सकते हैं जो आतंक की घटना में लिप्त रहा हो? ’ यह सवाल खुद में प्रधानमंत्री के अक्खड़पन और अज्ञानता की दलील है और आप इसके लिए उन्हें मुआफ कर सकते हैं या फिर अपनी तरफ से वैसे ही आंखें मोड़ सकते हैं जैसा कि चुनाव आयोग ने किया. या फिर आप उन्हें जवाब में सुना सकते हैं कि: हां श्रीमान्, ऐसा नाम बता सकते हैं. क्या आपने नाथूराम गोडसे का नाम नहीं सुना? कमल हासन के बयान को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है कि वो प्रधानमंत्री के सवाल का एक मुक्कमल और बेहद जरुरी जवाब था. अगर प्रधानमंत्री का सवाल और उसके सहारे मचा तमाम हाहाकार अगर चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन नहीं करता तो फिर कमल हासन का एक सादा और संयत जवाब किसी को क्योंकर नागवार गुजर सकता है?
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अगर बयान में गोडसे को आतंकवादी कहा गया होता तो भी क्या ये गलत होता ? बीते दो दिनों में ढेर सारे कुतर्क सामने आये हैं, जैसे : वो एक हत्या-कर्म था, कोई आतंकी कार्रवाई नहीं (अंदाज कुछ ऐसा मानो गोडसे का महात्मा से जायदाद को लेकर कोई झगड़ा था); गोडसे हत्यारा था, आतंकवादी नहीं (मानो हत्यारा कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता); उसने तो खुद ही आत्म-समर्पण कर दिया था (मानो काम तमाम करने के बाद आज तक किसी आतंकवादी ने आत्मसमर्पण ही ना किया हो); गोडसे पर अदालती सुनवाई हुई और उसे दंड दिया गया ( मानो दंड दे दिया तो इससे आतंकवादी होने के तमाम पाप धुल गये). गोडसे के कृत्य में वे सारे जरुरी गुण मौजूद हैं जिनके होने पर हम आज किसी कारगुजारी को आतंकवाद का नाम देते हैं: गांधीजी की हत्या एक गैरकानूनी, हिंसक, पूर्व-नियोजित, विचारधारा से प्रेरित कृत्य था, उसका मकसद एक व्यापक राजनीतिक संदेश देना और कुछ लोगों को अपने कर्तव्य-पथ पर चलने से रोकना था. आखिर ऐसा कर्म आतंकवाद ना कहलाये तो फिर उसे क्या नाम दें ?
आइए अब इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प सवाल पर सोचें: क्या गोडसे हिन्दू था ? जाहिर मायने में देखें तो बेशक गोडसे हिन्दू ही था. उसका जन्म सनातनी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ सो वो हिन्दू था और आजीवन हिन्दू ही रहा. राजनीतिक मायने में देखें तो भी गोडसे हिन्दू ही था. अपने राजनीतिक गुरु वी.डी. सावरकर के समान गोडसे भी यही समझता था कि वो हिन्दुओं का नुमाइन्दा है. गोडसे की नजरों से देखें तो लगेगा उसने तो हिन्दुओं के अपमान का प्रतिशोध लिया था. अगर पंजाब के उग्रवादियों को सिख उग्रवादी कहा जाता है और इस्लाम के नाम पर खूनी कारगुजारियां करने वालों को इस्लामी जेहादी बुलाया जाता है तो फिर गोडसे और उस जैसे बहुत से लोग हिन्दू अतिवादी कहलायेंगे. अगर हम यहां हिन्दू शब्द का इस्तेमाल किसी विशेषण के तौर पर नहीं करते तो फिर हमें बाकियों के साथ भी किसी धर्म को बतौर विशेषण जोड़ने से परहेज करना चाहिए.
लेकिन तनिक थमकर ये सोचें कि क्या शब्द के किन्ही गहरे अर्थों में गोडसे हिन्दू धर्म की नुमाइन्दगी करता नजर आता है ? अगर ऐसा ही था तो उसने एक ऐसे व्यक्ति का विरोध क्यों किया जो अपने को सनातनी हिन्दू कहता था ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें लीक तोड़कर सोचने वाले चंद विद्वानों में से एक आशिस नंदी का लिखा देखना चाहिए ताकि गांधी के प्रति गोडसे की नफरत के कारणों का हमें अता-पता चले. चार दशक पहले लिखे अपने एक अत्यंत सारगर्भित लेख में आशीष नंदी ने गांधी की हत्या को ‘निर्णायक मुठभेड़’ की संज्ञा दी है, उसे आधुनिक भारत के मर्म में समाये एक तनाव की अनिवार्य परिणति के रुप में देखा है. नंदी के मुताबिक : ‘गोडसे के हाथ पर गांधी के असली हत्यारों का जोर लगा हुआ था: शहरों में सिमटा, पढ़ा-लिखा, आंशिक रुप से पश्चिमीकृत नौकरी करके जीविका कमाने वाला एक चिन्ताग्रस्त, असुरक्षित, परंपरागत अभिजन जिसकी जीवन के अर्थ गांधी की राजनीति ने छीन लिये थे.’
नंदी की ये बात हमें गोडसे के बचपन से जुड़ी कहानी तक ले आती है. गोडसे को लगता था कि हिन्दुओं में जनानापन आ गया है और विदेशी ताकतें लगातार भारत के स्वत्व का हरण कर रही हैं. वो गांधी को एक पुंसत्वहीन राष्ट्रपिता के रुप में देखता था जो भारतमाता की रक्षा में असमर्थ था. वो चाहता था कि भारत में मर्दानापन आये- वैसा ही मर्दानापन जैसा कि अंग्रेजी शासन के भीतर दिखता है. गांधीजी भारत के स्वत्व में मौजूद स्त्रीतत्व के स्वीकार के प्रतीक थे- वही स्त्रीतत्व जिसकी अभिव्यक्ति सनातन काल से हिन्दू-धर्म में अर्द्धनारीश्वर के रुप में हुई है. सोच की इन दो धाराओं के बीच एक गहरी फांक थी. सावरकर की तरह गोडसे भी केंद्रीकृत और समरुप राष्ट्रराज्य का आकांक्षी था जबकि गांधीजी एक विकेंद्रित सत्ता के हामी थे- ऐसी सत्ता जो विभेदों को अपने भीतर धारण करे, उन विभेदों को भी जो नवनिर्मित भारत नाम के राष्ट्रराज्य की सीमाओं के बाहर मौजूद हैं. गोडसे का आदर्श ब्राह्मणवादी हिन्दूधर्म था जबकि गांधी का हिन्दू-धर्म अब्राह्मणी परंपरा का विस्तार.
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गोडसे का राजनीतिक हिन्दू-धर्म पश्चिमी, युरोपीय और विक्टोरियाई भावबोध की नुमाइंदगी कर रहा था जबकि गांधीजी देसी हिन्दू धर्म-परंपरा से उपजे आदर्शों के वाहक. दोनों के सोच में मौजूद यही खाई आज दिन तक नये वेष और रुप में सामने आती है. जिसे आज हिन्दुत्व कहा जाता है वह गोडसे की सोच की विरासत है- उसमें उन्हीं चिन्ताओं और प्रेरणाओं की जगह है जिनसे गोडसे जकड़ा हुआ था. गांधीजी की हत्या हुई, गोडसे को फांसी लेकिन गांधी बनाम गोडसे का संघर्ष अब भी जारी है. ये लड़ाई भारत के आत्म और स्वत्व की लड़ाई है और यह लड़ाई अभी शुरु ही हुई है. और, इस लड़ाई का शंखनाद करने के लिए हे राम! सरीखी फिल्म के लेखक-निर्माता कमल हासन से ज्यादा बेहतर योद्धा और कौन हो सकता है?
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)