नई दिल्ली: संस्कृत और अन्य शास्त्रीय भारतीय भाषाओं को स्कूलों में एक विषय के रूप में पेश करने की योजना – मोदी सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 की एक प्रमुख सिफारिश थी, एनडीए के घटक दलों नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) और मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) द्वारा शासित नागालैंड और मिजोरम से इसे झटका मिला है.
दिप्रिंट द्वारा देखे गए आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, मेघालय, जहां भाजपा नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के नेतृत्व वाली सरकार में भागीदार है और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी द्वारा शासित आंध्र प्रदेश, जो अक्सर संसदीय वोटों में एनडीए का साथ देती है, ने भी थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला लागू करने में सावधानी बरती है.
इन सभी राज्यों ने एक नया NCERT पाठ्यक्रम विकसित करने पर केंद्र की समिति में एनईपी पर अपनी राय व्यक्त की है, जिसकी अध्यक्षता इसरो के पूर्व अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन कर रहे हैं. इस उद्देश्य के लिए इन राज्यों द्वारा गठित विशेषज्ञ ग्रुप द्वारा प्रस्तुतियां की गईं.
एनईपी, जिसे 2020 में पेश किया गया था, में कहा गया है कि संस्कृत को स्कूल और उच्च शिक्षा के सभी स्तरों पर “छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण, समृद्ध विकल्प के रूप में, थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला में एक विकल्प के रूप में” जिसके लिए छात्रों को तीन भाषाएं सीखने की आवश्यकता होगी, जिनमें से “कम से कम दो” भारत की मूल भाषाएं होंगी.
कस्तूरीरंगन की समिति ने भाषाओं सहित विभिन्न विषयों पर राज्यों से इनपुट मांगा था.
इस पर विशिष्ट इनपुट की मांग यह थी कि थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला कैसे लागू किया जाना चाहिए, और स्कूल स्तर पर संस्कृत और अन्य भारतीय शास्त्रीय भाषाओं को पेश करने के प्रभावी तरीके कौन-से हो सकते हैं.
संस्कृत के अलावा, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और उड़िया को भारत सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता दी गई है.
नागालैंड ने इस बात पर गौर करवाया कि राज्य पहले से ही “हिंदी के सीखने और सिखाने में परेशानी” का सामना कर रहा है, और संस्कृत और अन्य शास्त्रीय भारतीय भाषाओं को लागू करने से राज्य के छात्रों पर “बोझ” बढ़ जाएगा. इस पर आंध्र ने कहा है कि थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला के पीछे “छात्रों पर हिंदी, संस्कृत को आगे बढ़ाने के लिए कोई छिपा हुआ एजेंडा” या चाल नहीं होनी चाहिए.
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एक अलग भाषा
भाषाओं पर नागालैंड विशेषज्ञ ग्रुप ने कहा है कि “थ्री लैंग्वेज नीति के अलावा” संस्कृत और अन्य भारतीय शास्त्रीय भाषाओं को शामिल करना नागा छात्रों पर बोझ बढ़ाएगा क्योंकि लिपियां, ध्वनि-शास्र और साहित्य राज्य की अपनी भाषाओं और साहित्य से बिल्कुल अलग हैं.
नागालैंड द्वारा गठित एक्सपर्ट ग्रुप ने कहा, “भाषा के गैर-उपयोग और इसे पढ़ाने के लिए अपर्याप्त शिक्षकों के कारण नागालैंड को पहले से ही हिंदी पढ़ाने और सीखने में परेशानी हो रही है.”
इसमें कहा गया कि ”मौजूदा स्थिति को देखते हुए, विशेष रूप से पूर्वोत्तर (उत्तर-पूर्व) क्षेत्र में, जहां आदिवासी लोगों का प्रभुत्व है, भारतीय शास्त्रीय भाषाओं को पेश करना अव्यावहारिक माना जाएगा.” इसमें आगे कहा गया कि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में किसी भी भाषा नीति या उसके कार्यान्वयन की योजना को क्षेत्रीय चुनौतियों के बारे में पता होना चाहिए.
ग्रुप ने कहा, “हालांकि इसे (संस्कृत) छात्रों की रुचि के आधार पर उच्च स्तर पर एक विशेष विषय के रूप में सीखा जा सकता है.”
मिजोरम ने कहा कि भारतीय शास्त्रीय भाषाओं और संस्कृत को पेश करने का प्रस्ताव एक “बड़ी चुनौती” होगी क्योंकि यह बड़े वित्तीय खतरों के साथ आता है.
मिजोरम ने कहा कि राज्य में प्रमुख भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के प्रयास का स्वदेशी भाषाओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
मिजोरम एक्सपर्ट ग्रुप ने कहा, “इसके अलावा, भाषा सीखना किसी विशेष भाषा की उपयोगिता पर निर्भर करता है. उदाहरण के लिए, यदि अल्पसंख्यक आदिवासी समुदाय का कोई छात्र किसी बिल्कुल अलग क्षेत्र से कोई ‘भारतीय भाषा’ सीखता है, तो उस भाषा की ठोस शिक्षा नहीं हो पाएगी क्योंकि जब वह अपने मूल स्थान पर होगा तो वह उस भाषा का उपयोग नहीं करेगा.”
“यदि बच्चे अपने दैनिक जीवन में संस्कृत का उपयोग नहीं करेंगे, तो इसके साहित्य या संस्कृत के अन्य पहलुओं को पढ़ाना सार्थक नहीं होगा.”
पूर्वोत्तर क्षेत्र के एक अन्य राज्य मेघालय ने शास्त्रीय भाषाओं और संस्कृत पर एनईपी की सिफारिशों को सिरे से खारिज नहीं किया, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि जब सीखने के लिए भाषा चुनने की बात आती है तो “लचीलापन” बनाए रखा जाना चाहिए.
राज्य के एक्सपर्ट ग्रुप ने कहा, “घरेलू भाषा को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए और देश के विभिन्न क्षेत्रों के स्कूलों में किसी अन्य अपरिचित भाषा को सीखना अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए.”
आंध्र प्रदेश, जिसमें मुख्य रूप से तेलुगु भाषी आबादी है, भी मेघालय की तरह प्रतिक्रिया करता हुआ दिखाई दिया.
आंध्र एक्सपर्ट ग्रुप ने यह कहते हुए कि थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला सहायक है, कहा कि “अगर छात्र अपनी रुचि से कोई भाषा पढ़ना चाहता है, तो वह चयन करने की स्थिति में नहीं है. हालांकि नीति में कहा गया है कि छात्र के पास भाषा चुनने के सभी अधिकार हैं, लेकिन उन्हें परोक्ष रूप से तीसरी भाषा के लिए मजबूर किया जाता है.”
ग्रुप ने आगे कहा कि “लेकिन राज्य में स्पष्टता होनी चाहिए और उन छात्रों पर हिंदी, संस्कृत को थोपने का कोई छिपा हुआ एजेंडा नहीं होना चाहिए, जो अपनी मातृभाषा, अंग्रेजी और अपनी पसंद की किसी भी भाषा का अध्ययन करना चाहते हैं.”
आंध्र प्रदेश ग्रुप ने कहा, “भारत का संविधान बच्चे को अपनी पसंद की कोई भी भाषा सीखने के अधिकार की गारंटी देता है… शिक्षकों को भाषा शिक्षा के संबंध में एक समान विचार रखना चाहिए. उनकी सामाजिक स्थिति, धार्मिक पृष्ठभूमि से प्रेरित उनकी विचारधाराओं को उस शिक्षा को प्रभावित नहीं करना चाहिए जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक होनी चाहिए.”
अंग्रेजी पर भी अलग-अलग विचार
तमिलनाडु, जो ऐतिहासिक रूप से थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले के खिलाफ रहा है और केंद्र में लगातार सरकारों द्वारा “हिंदी थोपने” के कथित प्रयासों के खिलाफ रहा है, एनईपी 2020 को अस्वीकार करने वाले पहले राज्यों में से एक था.
इसके विपरीत, गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों ने छात्रों को उनके स्कूली जीवन की शुरुआत में ही संस्कृत से परिचित कराने के पक्ष में तर्क दिए हैं.
जबकि मध्य प्रदेश ने अपने निवेदन में कहा कि “कक्षा 1 से आगे” एक अलग संस्कृत भाषा की पाठ्यपुस्तक होनी चाहिए, वहीं गुजरात ने कहा “संस्कृत भाषा का व्याकरण व्याकरण का व्याकरण है.”
गुजरात एक्सपर्ट ग्रुप ने कहा, “संस्कृत भाषा की शक्ति के साथ-साथ इसकी वैज्ञानिकता को देखकर डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे. पूरे भारत में संस्कृत का अध्ययन न केवल भारतीय भाषाओं में एकरूपता लाता है बल्कि उत्तर-दक्षिण के भाषाई मतभेदों को भी मिटाता है और भारतीय एकता को मजबूत करता है.”
इसमें कहा गया है कि “संस्कृत कंप्यूटर के लिए भी अधिक उपयुक्त भाषा है और इस बात की प्रबल संभावना है कि भविष्य के सुपर कंप्यूटरों की प्रोग्रामिंग संस्कृत भाषा के माध्यम से की जाएगी.”
प्रस्तुतियां अंग्रेजी भाषा के विषय पर राज्यों के अलग-अलग विचारों को भी दर्शाती हैं, नागालैंड, मिजोरम, असम, हरियाणा और गोवा जैसे कुछ राज्यों का कहना है कि इसे प्रारंभिक कक्षाओं में पेश किया जाना चाहिए, जबकि अन्य – छत्तीसगढ़, कर्नाटक, बिहार – मातृभाषा में शिक्षा के पक्ष में हैं.
बिहार ने तर्क दिया कि स्कूली छात्रों को प्रारंभिक चरण में अंग्रेजी से परिचित कराना, “चीज़ों को सिर्फ रटने से, किताबी बातचीत और शिक्षक-केंद्रित तरीकों से बच्चे की प्रारंभिक रचनात्मकता खराब हो जाती है.”
कर्नाटक विशेषज्ञ ग्रुप, जिसका गठन पिछली भाजपा सरकार द्वारा किया गया था, ने अपने पेपर में कहा कि “शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के कारण न केवल माता-पिता की आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव हुआ है, बल्कि बच्चों को इस भाषा और संस्कृति से भी दूर रखा गया है.”
दिप्रिंट ने पिछले सप्ताह रिपोर्ट दी थी कि एक के बाद एक राज्य ने कस्तूरीरंगन समिति को लिखा है कि सभी विषयों में नई एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों को प्राचीन “भारत के ज्ञान” से भरा जाना चाहिए.
(संपादन: अलमिना खातून)
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