नहीं से कुछ भला! संविधान के 128वें संशोधन यानी महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने पर मन को मथ रही कड़वी-मीठी भावनाओं के बीच मेल बैठाने की कोशिश में मैंने अपना जी इसी मुहावरे से बहलाना चाहा, लेकिन इस मुहावरे में आए ‘कुछ’ का ठीक-ठीक मतलब किस चीज़ से लगाया जाए, ये बता पाना मुश्किल है. फिर मन में दूसरी पंक्ति आई: ‘‘वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं’’, लेकिन इस पंक्ति में उदासी का रंग कुछ ज्यादा ही गहरा है. आखिरकार मेरी देस-भाषा की एक लोकोक्ति ने सहारा दिया: “भागते भूत की लंगोटी भली”!
सच यह है कि आज़ाद भारत के इतिहास के सबसे दूरगामी महत्व वाले एक लोकतांत्रिक सुधार को अमल लाने का सबसे भौंडा तरीका अपनाया गया. पहले तो 13 साल तक चुप्पी साधी गई फिर विधेयक को ऐसी पगलाहट भरी हड़बड़ी में पारित किया गया कि प्रारूप की प्रकट गलतियों को भी सुधार का समय नहीं मिला. संसद के विशेष-सत्र का एजेंडा क्या होना वाला है — इसको लेकर रहस्य का घटाटोप रचा गया जबकि ऐसा करने से बचा जा सकता था. फिर, महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की कहानी अपने आखिरी मुकाम पर पहुंच रही थी कि उसमें परिसीमन का एक फच्चर और फंसा दिया गया. बहस बेजान रही — एक के बाद एक वक्ता आते गए और यही याद दिलाने में मशगूल रहे कि उनकी पार्टी या नेता ने महिलाओं के हक में क्या-क्या किया है.
विपक्ष ने जो मुद्दे उठाए उसका जवाब देने में कानून मंत्री अपनी हकलाहटों में नाकाम रहे और गृहमंत्री की तरफ से आया अहंकार भरा इनकार. गोपनीयता को पारदर्शिता की पन्नी में लपेटा गया और क्षुद्रता के ढेर पर उदारता की भाव-भंगिमाएं खड़ी करके दिखाई गई.
कहते हैं कि चांद में भी दाग होता है और इसी तर्ज़ पर कह सकते हैं कि हर ऐतिहासिक घटना के दामन पर प्रहसन का एक धब्बा होता है, लेकिन महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने का मामला इससे एक कदम आगे का रहा. यह तो पूरा का पूरा बदनीयती, छल-कपट और पाखंड से सराबोर था.
भारतीय राजनीति में जिस गहराई तक पितृसत्ता पेवस्त है उसे देखते हुए महिला आरक्षण विधेयक के मामले में भी ढाक के पात उतने ही रहने थे जितने कि पिछले 27 सालों से रहते आए हैं. बीते सालों की कुल कवायद इतनी भर की रही है कि: सीट छोड़ने का वादा करते हुए किस जुगत से अपनी सीट बचा ली जाए. इस बार का चलन भी यही रहा. सारा खेल नेकनीयती को जाहिर करने का था ना कि नीयत को अमली जामा पहनाने के नक्शे को परखने और उसकी नोक-पलक दुरुस्त करने का. ना तो महिला आरक्षण विधेयक के दर्दमंद दोस्तों को इस फिक्र ने सताया और ना ही विधेयक के दुश्मनों को कि महिलाओं का प्रतिधिनित्व बढ़ाने के लिए जिस संस्थागत इंतजाम की पैरोकारी में लगे हैं जरा उसके राजनीतिक निहितार्थों पर भी विचार कर लें.
ऐसे में क्या अचरज कि विधायिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के नाम पर हमारे हाथ में आया है बेतरतीबी का नमूना बना एक ऐसा नक्शा जो इस बुनियादी सवाल का कोई जवाब ही नहीं देता कि आखिर विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देने की दिशा में हमारा हासिल क्या रहा: आखिर क्या चीज़ कायम की गई है? कैसे मिल पायेगा विधायिका में महिलाओं को आरक्षण? और, ऐसा होगा कब?
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चालबाजी, बेतरतीबी और ग़ैर यक़ीनी
एक मायने में देखें तो हम सब ही जानते हैं कि गारंटीशुदा तौर पर क्या चीज़ दी गई है. महिलाओं को संसद और राज्यों की विधानसभा में एक तिहाई सीट दी गई है, लेकिन बीजेडी के सांसद भतृहरि माहताब ने हड़बड़ी में तैयार किए गए संशोधन के प्रारूप की इस सीधी और साफ जान पड़ती गारंटी में छिपी एक दुविधाजनक स्थिति पर अंगुली उठा दी. पिछले संस्करण से अलग विधेयक के इस अंतिम रूप में सीधे ये कहा गया है कि संसद में प्रत्यक्ष चुनाव के जरिए भरी जाने वाली कुल सीटों की संख्या का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित रहेगा. इसमें ये स्पष्ट नहीं किया गया है कि एक तिहाई सीट के कोटे में सभी राज्यों की सीटें गिनी जाएंगी.
जाहिर है, फिर माना जा सकता है कि किसी एक किसी राज्य की लोकसभा की सीटों का 50 प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षित किया जा सकता है जबकि किसी दूसरे राज्य में एक सीट भी नहीं. कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल इस बेतुकेपन के आगे कुछ कहने में लाचार नज़र आए और गृहमंत्री ने मसले से हाथ झटकने के अंदाज़ में कहा कि परिसीमन आयोग ऐसे मुद्दों का समाधान कर लेगा.
मौजूदा विधेयक एक और अहम मसले के समाधान में नाकाम है कि ओबीसी के प्रतिनिधित्व के लिहाज से महिला आरक्षण के क्या प्रभाव होंगे. इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं के लिए आरक्षित सामान्य श्रेणी की सीटों से चुनकर आने वाली सांसदों में बड़ी तादाद अगड़ी जाति की महिलाओं की होगी. ओबीसी तबके, खासकर ओबीसी तबके में शामिल सर्वाधिक पिछड़ी जातियों का संसद में पहले से चला आ रहा कम प्रतिनिधित्व और भी घटेगा. मतलब, जातिगत और लैंगिक आधार पर एक साथ इंसाफ करने का मौजूदा अवसर गंवा दिया गया.
विधेयक में यह भी स्पष्ट नहीं है कि एक तिहाई आरक्षण का लक्ष्य हासिल कैसे किया जाएगा. यह कोई नई बात नहीं है. महिला आरक्षण विधेयक पर होने वाली बहसों में शुरुआत से ही ऐसा देखने को मिला है — बहसों में ज़िक्र ही नहीं आता कि घोषित लक्ष्यों को किन युक्तियों से हासिल किया जाएगा. जैसे जाति आधारित आरक्षण को सामाजिक न्याय का एकमात्र औजार मान लिया गया वैसे ही राजनीति में लैंगिक बराबरी का समाधान हमने भौगोलिक आधार पर आरक्षण करने को मान लिया है. लगभग एक चौथाई सदी का समय बीता, लेकिन महिला आरक्षण विधेयक के पैरोकारों के मुंह से क्षेत्रीय आधार पर आरक्षण देने से जुड़ी जानी-मानी आपत्तियों के बारे में एक बोल नहीं फूटा है.
अगर महिलाओं के लिए आरक्षित निर्वाचन-क्षेत्रों की अदला-बदली नहीं होती तो फिर यह मनमानी और नाइंसाफी कहलायेगा. अगर आरक्षित सीटों की अदल-बदल होती है तो दो तिहाई निर्वाचित जन-प्रतिनिधि (एक तिहाई महिला और एक तिहाई पुरुष जन-प्रतिनिधि जिनकी सीटें अगले चुनाव के वक्त अदल-बदल के लिए चिह्नित होंगी) अपने क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति जवाबदेही से मुक्त होंगे क्योंकि उन्हें पता होगा कि मौजूदा सीट से अगले चुनाव में तो उन्हें नामांकन का परचा भरना नहीं है. हां, ऐसे जन-प्रतिनिधि अगर एक ऐसी पार्टी से संबद्ध हैं जिसे जवाबदेह माना जाए तो अलग बात है.
वैकल्पिक उपाय मौजूद हैं, लेकिन उन्हें गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया. एक विकल्प ये था कि हर मान्यता-प्राप्त राजनीतिक दल के लिए हर राज्य में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करना अनिवार्य कर दिया जाए. ऐसा करने पर ये गारंटी तो नहीं हो जाती कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में महिलाओं की तादाद झटपट एक तिहाई हो जाएगी, लेकिन महिलाओं का स्वतंत्र नेतृत्व विकसित करने के एतबार से ये उपाय कहीं ज्यादा संगत साबित होता. मैंने इस उपाय की बात उठायी (लोकसत्ता पार्टी के जयप्रकाश नारायण और मानुषी जर्नल की संपादक मधु पूर्णिमा किश्वर के साथ) लेकिन हमारी बात पर ध्यान नहीं दिया गया.
इसके बाद मैंने एक उपाय और बताया जो मुझे अब भी ज्यादा चुस्त-दुरुस्त लगता हैः यह उपाय था एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि के साथ एक जन-प्रतिनिधि नामित करने की योजना वाला. इस योजना के मुताबिक हर पार्टी अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संख्या के अनुपात में अलग से महिला जन-प्रतिनिधि नामित करने की हकदार होगी और ऐसा तबतक होगा जबतक कि महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या 33 प्रतिशत तक नहीं पहुंच जाती. (यह उपाय बेवकूफाना जान पड़ सकता है कि लेकिन आप जरा इसके राजनीतिक निहितार्थों पर गौर करें और आपको पता चल जाएगा कि ये उपाय बाकियों से क्यों ज्यादा कारगर है), लेकिन इस उपाय के सुनवैया पहले उपाय की तुलना में भी कम मिले. जाहिर है, फिर महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण ‘‘ना से कुछ भला’’ के तर्ज़ पर होना था. शायद उपाय सोचते समय हम इसी मुहावरे के दायरे में सोचते हैं. अगर ऐसा है तो चलो ऐसा ही सही.
लेकिन विधेयक के अंतिम संस्करण में सीटों को आरक्षित करने के इस मौजूदा सूत्र के साथ भी इंसाफ नहीं हुआ. साल 2010 में राज्यसभा में जो विधेयक पारित हुआ था उसमें क्षेत्रगत आधार पर सीटों को आरक्षित करने के साथ-साथ नियमित अंतराल पर आरक्षित सीटों की अदल-बदल करने के स्पष्ट युक्तियां बताई गई थीं. कहा गया था कि ब्यौरों को अंतिम रूप देने के लिए संसद कानून बनाएगी.
पहले दौर में आरक्षित की जाने वाली सीटों का निर्णय लॉटरी-पद्धति के जरिए किया जाएगा, लेकिन संसद के दोनों सदनों में पारित विधेयक के मौजूदा रूप में कहीं भी ये नहीं बताया गया कि आरक्षित सीटों का फैसला कैसे किया जाएगा. एक तरफ, इसमें महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था को 15 साल की अवधि तक सीमित कर दिया गया है तो दूसरी तरफ ये व्यवस्था दी गई है कि आरक्षित की जाने वाली सीटों की अदल-बदल हर परिसीमन के बाद होगी जबकि अभी परिसीमन का काम 20 से 30 सालों में एक बार होता है. मतलब ये निकला कि आरक्षित सीटों की अदल-बदल की व्यवस्था तो है लेकिन अदल-बदल होगी नहीं!
सबसे बड़ी चालबाजी सीटों के आरक्षण के समय के मामले में की गई है. ऐसी कोई कानूनी बाध्यता या तार्किक ज़रूरत नहीं है कि महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण को अगली जनगणना या अगले परिसीमन से जोड़ा जाए. गृहमंत्री ने इसे वाजिब ठहराने के लिए तर्क दिया कि परिसीमन आयोग की व्यवस्था पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए है लेकिन यह किसी से हद से ज्यादा ही विश्वसनीयता की मांग करने जैसा है. यह भी स्पष्ट है कि विधेयक किसी चमत्कार के बूते ही 2029 तक अमल में आ पायेगा. अगर अगली सरकार बड़ी तत्परता बरतते हुए 2025 के फरवरी तक अगली जनगणना करवा लेती है तो भी संविधान के अनुच्छेद-82 की एक बाधा कायम रहेगी.
इसके मुताबिक अगला परिसीमन तब तक नहीं करवाया जा सकता जब तक कि 2026 के बाद करवाई गई जनगणना के आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते. इसका मतलब हुआ 2031 के बाद की जनगणना होगी. इस जनगणना के अंतिम रूप से तैयार आंकड़े 2032 से पहले प्रकाशित नहीं हो सकते. और, परिसीमन आयोग को दो साल से कम का समय नहीं लग सकता (पिछली बार आयोग को साढ़े पांच साल लगे थे). इसके बाद अगले चुनाव से पहले मतदाता-सूची का पुनरावलोकन करना होगा. मतलब ये कि अगर कोई विशेष संवैधानिक व्यवस्था हाथ में ना हो तो हमलोग महिला आरक्षण को 2039 से पहले जमीनी तौर पर लागू नहीं कर सकते.
आइए, जरा देखें कि परिसीमन और जनगणना से महिला आरक्षण को जोड़ने का तर्क दरअसल है क्या. जनगणना और परिसीमन की पूर्वशर्त एक विशेष योजना के तहत जोड़ी गई है. जैसे व्यवसाय में भविष्य के सौदे आज ही की तारीख में कर लिए जाते हैं वैसे ही महिलाओं के लिए सीट आरक्षित करने के मामले में हमारी राजनीति में हुआ है. महिला-आरक्षण एक सौदा है — इस वादे को पूरा करने का महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आगे किसी अनियत काल में आरक्षित कर दी जाएंगी.
ऐसा वायदा करने वाले पुरुष राजनेताओं को विधेयक लागू करने का श्रेय मिलेगा और यह गारंटी भी हो जाएगी कि निकट भविष्य में उनके निजी राजनीतिक हितों को कोई चोट नहीं पहुंचे जबकि इसके बाद के वक्त में आने वाले पुरुष राजनेताओं को महिला-आरक्षण के निहितार्थ भुगतने होंगे. यह सौदा हमें याद दिलाता है कि संसद में हुई तमाम बयानबाजी के बावजूद पितृसत्ता के लिए राजनीतिक सत्ता पर अपनी पकड़ ढीली करने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त थी.
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उत्सव की वजह
संदर्भ चाहे जितना भी क्षुद्र जान पड़ता हो, हमें ये नहीं भूलना चाहिए कुछ महत्वपूर्ण हासिल हुआ है. हकीकत ये है कि आबादी में अनुपात के लिहाज़ से ही नहीं बल्कि शेष विश्व (यहां तक कि हमारे कुछ पड़ोसी देशों से भी) की तुलना में भी हमारी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है. तथ्य ये है कि स्थिति में हल्का सा सुधार हुआ है (खासकर महिला आरक्षण विधेयक पर बहस के शुरू होने के बाद) लेकिन ऐसा कोई तरीका नहीं था कि 2039 तक भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या कुल संख्या का एक तिहाई तक पहुंच पाती. इस दिशा में कोई संवैधानिक और कानूनी उपाय करना ज़रूरी था. ऐसा उपाय अब किया जा चुका है. भले ही यह सोलहो आने टंच ना हो, बड़ा ढीला-सीला और अनिश्चित सा जान पड़ता हो, लेकिन ऐसे सुधारों का इतिहास हमें बताता है कि: एक बार लागू हो जाने के बाद ऐसे सुधार वापस नहीं लिए जा सकते. इन्हें बस शोधा और मजबूत बनाया जा सकता है.
उत्सव मनाने की वजह भी यही है. ये नहीं कि महिला सांसदों और महिला विधायकों की संख्या बढ़ेगी तो भारतीय स्त्रियों की नियति में अनिवार्य रूप से बदलाव आएगा. ये भी नहीं कि हम भोलेपन में ये मानकर चलें कि महिला राजनेता आज की भारतीय राजनीति में प्रचलित बुराइयों से परे होंगी.
राजनीतिक सत्ता के पदों पर महिलाओं की मौजूदगी का उत्सव इसलिए मनाया जाना चाहिए क्योंकि एक खास संख्या में महिला जन-प्रतिनिधि विधायिका में मौजूद हों तो स्त्री-विरोधी नीतियों को लागू करना मुश्किल होगा और भोजन, सेहत तथा शिक्षा जैसे वास्तविक मुद्दों पर विधायिका का ध्यान ज्यादा होगा. उत्सव इसलिए मनाया जाना चाहिए क्योंकि महिलाओं के लिए जगह बनने से देश में नई राजनीतिक प्रतिभाएं उभरकर सामने आ सकेंगी, उनके लिए रास्ता खुला है. ऊपर दर्ज ये स्वप्न सच नहीं होते तो भी उत्सव मनाया जाना चाहिए क्योंकि महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना इस बात की निशानदेही करता है कि देश की आधी आबादी का वजूद कायम है, उसके पास अपनी आवाज है और उस आवाज़ को सुना जाना चाहिए.
(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन : ऋषभ राज)
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