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Thursday, 21 November, 2024
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रिटायर्ड जजों ने Baby A सहित अन्य भारतीय बच्चों की वापसी के लिए G20 मेंबर्स को लिखा पत्र

चार पूर्व SC न्यायाधीशों और हाई कोर्ट के दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने एक 'दयालु समाधान' खोजने की आवश्यकता पर जोर दिया है और भारत की 'मजबूत' बाल संरक्षण प्रणाली की भी बात की है.

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नई दिल्ली: कई वरिष्ठ सेवानिवृत्त न्यायाधीश भी जर्मनी में हिरासत की लड़ाई लड़ रही भारतीय लड़की बेबी ए के साथ-साथ ऐसे अन्य बच्चों के मामले में राज्यसभा सांसदों के साथ समर्थन में शामिल हो गए हैं. उनका कहना है कि उनकी स्वदेश वापसी एक अधिक “मानवीय और दयालु समाधान” है.

सर्वोच्च न्यायालय के चार पूर्व न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित अन्य ने मंगलवार को जी20 सदस्य देशों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र और ASEAN जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को पत्र लिखकर बेबी ए जैसे बच्चों की स्वदेश वापसी का आग्रह किया, जिन्हें हिरासत में रखा गया था. पश्चिमी यूरोप, यूके, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में राज्य बाल एजेंसियों द्वारा इन बच्चों को उनके माता-पिता से लिया गया था.

नौ हस्ताक्षरकर्ताओं में दिल्ली एचसी के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह, उड़ीसा एचसी के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस. मुरलीधर और एससी के पूर्व न्यायाधीश रूमा पाल, विक्रमजीत सेन, ए.के. सीकरी और दीपक गुप्ता शामिल हैं.

‘भारत सरकार की जिम्मेदारी’

माता-पिता के संरक्षण से हटाए गए बच्चों की स्थिति की जांच करते हुए, पूर्व न्यायाधीशों ने इन विदेशी बाल सेवाओं से बच्चे की पहचान के लिए उत्पन्न खतरे के बारे में आगाह किया.

उन्होंने कहा, “इन बच्चों को देखभालकर्ताओं के साथ रखा जाता है जो उस देश के मूल निवासी हैं और उनका बच्चे के मूल देश के साथ किसी भी प्रकार का जातीय या सांस्कृतिक संबंध नहीं है. परिणामस्वरूप, ये बच्चे अपनी पहचान खो देते हैं और अपने मूल देश या अपने विस्तारित परिवारों के साथ किसी भी प्रकार से जुड़ने में असमर्थ हो जाते हैं. वे दोहरे अलगाव के चलते पालन-पोषण और देखभाल से दूर हो जाते हैं. वे जिस देश में रहते हैं वहां के नागरिक होते नहीं हैं, और उनके मूल देश के साथ उनका कोई संबंध नहीं बन पाता है.”

पूर्व न्यायाधीशों का मानना ​​है कि ऐसे बच्चे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार “भारत सरकार की ज़िम्मेदारी” हैं और इसलिए, उनका सुझाव है कि “स्वदेश में सुरक्षित स्थान पर वापसी अधिक मानवीय और दयालु समाधान है”.

बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरसी) के अनुच्छेद 3(1) में कहा गया है कि सभी बाल कल्याण एजेंसियों के लिए ‘बच्चे के सर्वोत्तम हित पहला विचार हैं’ जो दर्शाता है कि कोई भी बाल सेवा प्राधिकरण या परिवार न्यायालय किसी भी देश के पास अपने देश में पल रहे बच्चे को वापस भेजने पर विचार करने का अधिकार है, यदि यह उसके सर्वोत्तम हितों की पूर्ति करेगा.

इसके अलावा, अनुच्छेद 8(1) यूएनसीआरसी बच्चे की राष्ट्रीयता, भाषा, संस्कृति और अन्य दूसरे पहलुओं सहित उनकी पहचान के संरक्षण के अधिकार की रक्षा करता है. इसके अनुसार “राज्य पार्टियां बच्चे के उसके संरक्षण के अधिकार का सम्मान करने का वचन देती हैं.”


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यूएनसीआरसी के अनुच्छेद 14 और 15, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (आईसीसीपीआर) के अनुच्छेद 12(4) के तहत भारत लौटने का अधिकार जैसे कई अन्य अंतरराष्ट्रीय कानून भी एक बच्चे के अपने मूल देश में वापस भेजे जाने के अधिकार की रक्षा करते हैं. साथ ही उनकी पहचान की रक्षा करें.

जिला-स्तरीय बाल कल्याण समितियों के नेटवर्क के साथ भारत की मजबूत बाल संरक्षण प्रणाली का हवाला देते हुए, हस्ताक्षरकर्ताओं का मानना ​​है कि बेबी ए का प्रत्यावर्तन “माता-पिता के जर्मन प्रणाली के मूल्यांकन का सम्मान करता है, जबकि बच्चे को कम से कम अपनी राष्ट्रीयता और विरासत को संरक्षित करने में सक्षम बनाता है.”

पिछले एक दशक में विदेशों में भारतीय बच्चों को उनके माता-पिता के संरक्षण से हटाए जाने के ऐसे कई मामले सामने आए हैं. इनमें 2011 का नॉर्वे का एक मामला भी शामिल है, जहां दो भारतीय बच्चों को नॉर्वे बाल कल्याण सेवाओं द्वारा उनके माता-पिता से छीन लिया गया था और देखभाल शिविर में डाल दिया गया था. भारत ने इस कदम का विरोध किया था और बच्चों को 2012 में उनके परिवारों को लौटा दिया गया था.

ऐसे ही एक और मामले ने हाल ही में लोगों का ध्यान खींचा, जहां ऑस्ट्रेलिया में अपने परिवार की बच्चे की कस्टडी की लड़ाई के कारण पिछले महीने बेलगावी में एक एनआरआई महिला की आत्महत्या से मौत हो गई. उनके दोनों बच्चों को न्यू साउथ वेल्स के बाल कल्याण अधिकारियों ने ‘अनुचित देखभाल’ के आरोप में ले लिया.

बेबी ए का मामला

जून में, दिप्रिंट ने बताया कि बेबी ए के माता-पिता ने दो साल से अधिक की कानूनी लड़ाई के बाद अपने बच्चे की कस्टडी जर्मन यूथ सर्विसेज, जुगेंडम्ट को खो दी.

यह मामला 2021 की जननांग चोट के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसके कारण यौन शोषण के आरोपों के कारण जर्मन यूथ सर्विसेज द्वारा बच्चे को माता-पिता की हिरासत से हटा दिया गया था. हालांकि, माता-पिता के खिलाफ आपराधिक जांच 2022 में बंद कर दी गई थी.

13 जून के फैसले में, “मां और पिता द्वारा बच्चे के शारीरिक और साथ ही मनोवैज्ञानिक शोषण” का हवाला देते हुए, बर्लिन की एक अदालत ने कहा कि “मौजूदा खतरे को टालने के लिए संरक्षक माता-पिता को माता-पिता की देखभाल से वंचित किया जाना चाहिए.”

जर्मन राजदूत फिलिप एकरमैन ने तब दिप्रिंट को बताया था, “बच्ची ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलों का सामना किया है. मेरा मंत्रालय बच्चे की भारतीयता की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए विदेश मंत्रालय (विदेश मंत्रालय) के साथ मिलकर काम कर रहा है.”

पिछले महीने, विदेश मंत्रालय ने कहा कि उसने पालक देखभाल में बच्चे की स्थिति पर चिंता व्यक्त करने के लिए जर्मन राजदूत को बुलाया और कहा कि मामले को “उच्च प्राथमिकता” का दर्जा दिया गया था.

पिछले कुछ महीनों में, कई माता-पिता ने बेबी ए संबंधी मुश्किलों को लेकर दिप्रिंट के सामने कई चिंताएं रखी हैं, जिसमें उसकी राष्ट्रीयता बदलने की आशंकाएं, तार्किक मुद्दे, मानसिक बीमारी वाले बच्चों के लिए एक संस्थान में बच्चे का स्थानांतरण शामिल है.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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