असली राहुल गांधी कौन है? क्या वह ‘पप्पू’ हैं? क्या अभी भी वह जीवन का अर्थ ढूंढने वाले व्यक्ति ही हैं? और एक मतदाता के रूप में मेरी कीमत पर उन्हें अपनी राजनीतिक शक्ति क्यों निखारनी होगी? ये कुछ सवाल थे जो हाल ही में दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक बातचीत के दौरान राजनीतिक पत्रकार अदिति फडनीस ने पूछे थे. और उन्होंने कांग्रेस नेता की यात्रा के प्रति लोकप्रिय भावना को दोहराया. वह वरिष्ठ पत्रकार सुगाता श्रीनिवासराजू की किताब स्ट्रेंज बर्डेंस: द पॉलिटिक्स एंड प्रेडिकेमेंट ऑफ राहुल गांधी के लॉन्च के मौके पर उनसे बातचीत कर रही थीं. श्रीनिवासराजू, जिन्होंने पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी.देवेगौड़ा पर एक किताब भी लिखी है, ने कहा कि वह राहुल गांधी को आंकने या उन्हें कॉलम में रखने की कोशिश नहीं करते हैं और बाइनरी से दूर रहना चाहते हैं.
लेखक ने कहा, “इस किताब के साथ मेरी कोशिश खोज करना है खोखलापन उजागर करना नहीं. यही कारण है कि किताब में उनकी गर्लफ्रेंड्स के बारे में एक भी पंक्ति नहीं है,” और हॉल, जो वरिष्ठ पत्रकारों और राजनीतिक विश्लेषकों से भरा हुआ था, इस बात के बाद हंसी से गूंज उठा.
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राहुल के व्यक्तित्व को कैद करना
राहुल गांधी जैसे रहस्यमय व्यक्ति को समझने का प्रयास नया नहीं है. वास्तव में, यह कुछ हद तक एक राष्ट्रीय मनोरंजन रहा है, जिसमें कुछ प्रशंसकों की चापलूसी के साथ-साथ हताशा भी शामिल है. 2012 में, पत्रकार जतिन गांधी और वीनू संधू ने राहुल – द फर्स्ट ऑथरेटिव बायोग्राफी नामक पुस्तक लिखी. उस पुस्तक का उद्देश्य यह पता लगाना था कि ब्रांड राहुल कैसे विकसित हुआ. उस समय उनकी उम्र 42 साल थी. इसमें पता लगाया गया कि उनकी पार्टी में आधुनिकता और उनके परिवार की राजनीतिक विरासत कैसे घुलमिल गई. लेकिन 2012 के बाद से चीजें बहुत बदल गई हैं. हमने राहुल के ‘पप्पूकरण’ की घटना, कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका पद छोड़ना और भारत जोड़ो यात्रा जैसी पहल के माध्यम से अपनी छवि को पुनर्जीवित करने के उनके प्रयासों को देखा है. इस बदलते परिदृश्य में, श्रीनिवासराजू की पुस्तक एक नए दृष्टिकोण का दावा करती है.
जहां मोदी पर ढेर सारी किताबें हैं, वहीं राहुल की बात करें तो इसमें जबरदस्त कमी देखी जा रही है. गांधी और संधू की पहले उल्लिखित पुस्तकों के अलावा, आरती रामचंद्रन ने डिकोडिंग राहुल गांधी भी लिखी. श्रीनिवासराजू की पुस्तक पिछले प्रकाशन के बाद से महत्वपूर्ण समय अंतराल के कारण एक अद्वितीय स्थान रखती है. फिलहाल यह किताब इस समय राहुल के द्वारा एक अधिक सशक्त और आत्मविश्वासी नेता के रूप में अपनी छवि को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के अनुरूप है. यह किताब भारत जोड़ो यात्रा पर भी प्रकाश डालती है, जिसने हाल ही में गांधी की सार्वजनिक धारणा पर इसके प्रभाव के बारे में राजनीतिक हलकों में काफी चर्चा छेड़ी है.
लेकिन हर कुछ महीनों में, पत्रकार और राजनीतिक पर्यवेक्षक एक ‘नए और बेहतर राहुल गांधी’ के उद्भव की सराहना करते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि एपिसोडिक प्रदर्शन के बाद वह अपने शेल (खोल) में वापस चले गए हैं. उनके व्यक्तित्व में अंतहीन विश्लेषण के लिए बहुत कुछ है. हर किताब ने इसे डिकोड करने की कोशिश की है. श्रीनिवासराजू ने इसे इनके व्यक्तित्व की कठिनाई बताया है.
11 चैप्टरों वाली इस किताब पुस्तक राहुल गांधी की राजनीतिक यात्रा का पता लगाने का प्रयास करती है. इसकी शुरुआत एक चेतावनी से होती है: “यह किताब कोई जीवनी नहीं है. यह मार्च 2004 में आधिकारिक तौर पर राजनीति में प्रवेश करने के बाद से राहुल गांधी के विचारों, नेतृत्व, तर्क और भावना की जांच और विश्लेषण करती है.
उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कैसे पुस्तक सार्वजनिक भूमिका के लिए उनकी उपयुक्तता या अनुपयुक्तता के सवालों का जवाब देने की कोशिश नहीं करती है, “बल्कि उनकी परिस्थितियों के बारे में है, कि वह इतिहास की धाराओं में कैसे फंस गए हैं”.
जैसे ही उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और कांग्रेस पार्टी के उद्धारकर्ता के रूप में उनकी क्षमता के बारे में सवाल उठे, श्रीनिवासराजू ने चतुराई से स्वीकार किया कि उनके पास जवाब नहीं हैं, और उन्होंने खुद को एक जिज्ञासु पत्रकार के रूप में स्थापित किया, जो सामने आ रही कहानी को उत्सुकता से देख रहे हैं.
जबकि लेखक ने राहुल गांधी के आध्यात्मिक पक्ष, उनके परिवार के सदस्यों की हत्या के आघात और वह इन तत्वों को अपनी बातचीत में कैसे लाते हैं, के बारे में बात की, उन्होंने यह भी बताया कि कैसे कांग्रेस नेता ने अभी तक भाजपा को जवाब देने के लिए कोई भी भाषा विकसित नहीं की है.
लेखक ने कहा,“मैं उनके विचारों का आलोचक हूं. क्योंकि कई बार वे आधे-अधूरे होते हैं. उन्होंने बीजेपी को जवाब देने के लिए कोई भी भाषा न तो विकसित की है न ही गढ़ी है. वह बहुत कम्यूनीकेटिव नहीं हैं, यहां तक कि देवेगौड़ा और ई.एम.एस. नंबूदरीपाद भी कम्यूनीकेटिव नहीं थे.लेकिन वे राहुल गांधी की तरह अटके हुए नहीं थे. हमें शायद ही ऐसे बयान मिलेंगे जहां वह कहते हों – “जब हम सत्ता में आएंगे”, इसके बजाय वह ऐसी बातें कहते हैं जो गूढ़ हैं. उदाहरण के लिए, मैं उस शांति को बहाल करना चाहता हूं जो पहले देश में प्रचलित थी.”
जब श्रीनिवासराजू से भारत गठबंधन में गांधी की भूमिका के बारे में पूछा गया, तो लेखक ने कहा कि उनकी जानकारी के अनुसार, गठबंधन वाले उनके बारे में ज्यादा नहीं सोचते हैं, लेकिन इस बात को ज़ोर देकर कहने से भी डरते हैं.
लेखक ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि राहुल गांधी को INDIA गठबंधन द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना इतना आसान और सीधा मामला है.”
किताब किस प्रकार अलग है
जैसे-जैसे हम 2024 के चुनावों के करीब आ रहे हैं, राजनीतिक साहित्य की दुनिया में एक दिलचस्प प्रवृत्ति सामने आई है. ऐसा लगता है कि राजनीतिक जीवनियां और किताबें महत्वपूर्ण लोकप्रियता हासिल कर रही हैं. उदाहरण के लिए, नीरजा चौधरी की ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ और अभिषेक चौधरी की हाल ही में लिखी गई पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी को लीजिए. ऐसा लगता है मानो हर कोई इस लहर पर सवार होना चाहता है.
पुस्तक के समय को लेकर भी आपत्तियां हैं. यह देखते हुए कि कांग्रेस और INDIA गठबंधन भाजपा के प्रभाव का मुकाबला करने का प्रयास कर रहे हैं, कुछ लोगों ने पुस्तक जारी करने के प्रति आगाह किया. उनकी चिंता यह थी कि गठबंधन पर राहुल गांधी के संभावित प्रभाव को देखते हुए, इससे संतुलन बिगड़ सकता है. हालांकि, लेखक ने विनम्रतापूर्वक इस विचार को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उन्हें विश्वास नहीं है कि उनका लेखन उस स्तर का प्रभाव रखता है.
लेखक ने कहा, “मुझे डब्ल्यू.एच.ऑडेन के शब्द याद आते हैं. जिन्होंने कहा था कि ‘कविता कुछ नहीं कराती, वह अपने सृजन की घाटी में जीवित रहती है’.
(अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)
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