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Thursday, 19 December, 2024
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सेना को पुलिस न बनने दें, मणिपुर में उसके मिशन को बदलें

सैन्य महकमे को अपनी रीढ़ सीधी रखनी चाहिए और सरकार को स्पष्ट सलाह देनी चाहिए कि मणिपुर में सेना का मिशन क्या हो.

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तीन महीने से ज्यादा बीत चुके हैं और मणिपुर हथियारों से लैस मैतेई और कूकी समुदायों के बीच जारी जातीय संघर्ष की चपेट में अराजकता झेल रहा है. यह राज्य इंफाल घाटी के मैतेई समुदाय और पहाड़ी इलाकों के कूकी समुदाय के बीच दो हिस्सों में लगभग बंट गया है. राज्य सरकार मैतेई समुदाय के साथ निहित मिलीभगत, और सामान्य स्थिति बहाल करने की नीति के अभाव में नदारद नजर आती है.

संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह उस संकटग्रस्त राज्य में शांति की बहाली के लिए कोई ठोस नीति या योजना प्रस्तुत करने में विफल रहे. पिछली सरकारों पर दोषारोपण करने और निष्प्रभावी तथा पक्षपाती मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह में भरोसा दोहराने के अलावा उनके बयान उम्मीद जताने और अपील करने पर ही केंद्रित रहे. शाह ने कहा, “मैं मणिपुर के दोनों समुदायों से हाथ जोड़कर अपील करता हूं की वे हिंसा छोड़ दें. कृपया भारत सरकार के साथ वार्ता की मेज पर आइए, हम मणिपुर को वापस प्रगति और समृद्धि की राह पर लाने का रास्ता खोजें.”

मणिपुर में आबादी और पुलिस का अनुपात प्रति एक लाख आबादी पर 1,338 का है, जो पूरे देश में सबसे अधिक है. इसके अलावा, गृह मंत्री के मुताबिक, “राज्य में 36,000 केंद्रीय सुरक्षा बल भेजे गए हैं”. मणिपुर में सीआरपीएफ, बीएसएफ, एसएसबी और आइटीबीपी की कुल 125 कंपनियां तैनात हैं. असम राइफल्स की 22 बटालियनें भी तैनात हैं जो म्यांमार की सीमा पर भी ऑपरेट कर रही हैं. इनके अलावा 57 माउंटेन डिवीजन की तीन ब्रिगेड भी सेना के 3 कोर का अधीन कार्रवाई कर रही हैं. सुरक्षा बलों की संख्या स्थिति को नियंत्रित करने, शांति बहाल करने और आबादी को निःशस्त्र करने के लिहाज से पर्याप्त से ज्यादा है. लेकिन इच्छाशक्ति, नीति केंद्रीय तालमेल के अभाव, भूमिकाओं तथा नियमों की अस्पष्टता, और पक्षपाती राज्य पुलिस के कारण यह विशाल फौज निष्क्रियता की शिकार और उसे सिर्फ क्षणभंगुर यथास्थिति बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

पिछला अनुभव तो कहता है कि सबसे व्यावहारिक तरीका तो यह होगा कि पूरे राज्य को अशांत क्षेत्र घोषित करके वहां ‘आफ़्स्पा’ कानून लागू कर दिया जाए, एक संयुक्त कमांड ऑथरिटी का गठन करके सेना को अग्रणी भूमिका सौंपी जाए. लेकिन सियासी वजहों से इस उपाय को शायद ही अपनाया जाएगा. वहां अनुच्छेद 355 के इस्तेमाल को लेकर भी अस्पष्टता है, और बहुसंख्यकों के प्रति पक्षपात करने के लिए बहुचर्चित मुख्यमंत्री ही इस विशाल फौज का नियंत्रण कर रहे हैं जिसमें कानून-व्यवस्था बनाए रखने में ‘नागरिक सत्ता’ की मदद के लिए सेना के कुछ अंग भी शामिल हैं.

इन तमाम परिस्थितियों के मद्देनजर मैं यह विश्लेषण करने की कोशिश करूंगा कि सैन्य बलों के सामने क्या चुनौतियां हैं और उनसे कैसे निबटा जा सकता है.


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असामान्य स्थिति

मणिपुर में तीनों प्रमुख खिलाड़ियों—मैतेई, कुकी-ज़ो, और नगा—ने अलगाववादी बगावत से हाथ खींच लिये हैं. वर्तमान संघर्ष सरकारी लाभों में हिस्सेदारी और स्वायत्तता की खातिर जातीय किस्म का है. इसे भारत की संप्रभुता पर सवाल खड़ा करने वाली आंतरिक बगावत नहीं कहा जा सकता है क्योंकि विभिन्न समुदाय एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा करके और लूटे गए हथियारों को वापस न करके सरकार के अधिकार को चुनौती दे रहे हैं. सियासी वजहों से और अलगाववाद के न होने से केंद्र सरकार ने मणिपुर को अशांत क्षेत्र नहीं घोषित किया है, न ही ‘आफ़स्पा’ कानून को पूरी तरह लागू किया है और न सेना को स्पष्ट रूप से परिभाषित मिशन के तहत अग्रणी भूमिका सौंपी है.

केंद्र सरकार मणिपुर को कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में ले रही है, और राज्य सरकार ने कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए सेना को ‘नागरिक सत्ता’ की मदद के लिए बुलाया है. अतीत में, यह भूमिका मुख्यतः गैरकानूनी जमावड़े को एक मजिस्ट्रेट के आदेश पर, और असामान्य हालात में इस आदेश के बिना न्यूनतम ताकत का इस्तेमाल करते हुए तितर-बितर करने तक सीमित रहा करती थी. यह प्रक्रिया सीआरपीसी की धारा 129 से लेकर 132 तक के तहत की जाती है. यह प्रक्रिया समय की कसौटी पर खरी उतरती रही है और सांप्रदायिक और दूसरी तरह के दंगों से निबटने में प्रभावी साबित होती रही है.

मणिपुर में स्थिति बिलकुल अलग तरह की है, खासकर मैतेई वर्चस्व वाले इलाकों में. वहां भीड़ दो तरह के तत्वों से बनी होती है, सशस्त्र और निःशस्त्र तत्वों से. निःशस्त्र तत्व समूह का नेतृत्व प्रायः महिलाओं के हाथ में होता है. सशस्त्र लोग लूटपाट और हत्याओं पर ज़ोर देते हैं, जबकि निःशस्त्र तत्व सुरक्षा बलों को परे रखने की कोशिश करते हैं. इस तरह की भीड़ सेना की आवाजाही और ऑपरेशन को बाधित करती रही है. ऐसा एक प्रमुख मामला वह है जब मैतेई महिलाओं के नेतृत्व में एक भीड़ ने 24 जून को 12 आतंकवादियों को कैद से छुड़ा लिया था. कहा नहीं जा सकता कि राज्य सरकार सेना के 160-170 कॉलमों के लिए मजिस्ट्रेट की व्यवस्था कैसे कर रही है, भले ही हम उनके जातीय पूर्वाग्रहों की अनदेखी क्यों न कर दें. वहां घटी सभी घटनाओं में मजिस्ट्रेट लापता दिखे हैं.

असम राइफल्स को बदनाम करने की मुहिम

इस बात के काफी प्रमाण हैं कि पक्षपाती पुलिस भीड़ की गतिविधियों की अनदेखी करती रही है या उसे उकसाती रही है. पुलिस और सेना के बीच उकसाऊ बहसें हौई हैं, और असम राइफल्स को बदनाम करने की राजनीतिक और सार्वजनिक मुहिम चलाई गई है. एक तो राज्य पुलिस ने अपनी कार्रवाइयों में दखल देने के आरोप लगाते हुए असम राइफल्स के खिलाफ एफआइआर दर्ज किए हैं; दूसरे, खबरें हैं कि पुलिस को नियंत्रित करने की जगह असम राइफल्स को बफर ज़ोन में चेकप्वाइंट से हटा दिया गया है. सेना को पुलिस के आचरण का सार्वजनिक रूप से बचाव करने के लिए मजबूर किया गया है.

‘मानवीय तरीके’ की आड़ में सेना की ओर से भीड़ से निबटने में हिचक और न्यूनतम बल के प्रयोग करने के उदाहरण देखे गए हैं. गैरकानूनी जमावड़ों को तितर-बितर करने की कार्रवाई के मामले में सेना के नियम सेना को सैन्य रणनीति का इस्तेमाल करते हुए न्यूनतम बल के प्रयोग के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं बताते. अब तक, ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है कि कोई भीड़ अगर सेना के ऑपरेशन में बाधा डालती है तो सेना ने उसे भगाने के लिए न्यूनतम बल का प्रयोग किया हो.

ऐसे कई उदाहरण हैं कि सेना ने भीड़ से निबटने के लिए उसके साथ बातचीत और उसे समझाने-बुझाने के पुलिसिया तरीकों का प्रयोग किया, जो कि ऐसे मामलों से निबटने के बारे उसके नियमों के अनुसार सख्त रूप से निषिद्ध हैं. इस तरीके के गंभीर नतीजे हो रहे हैं. सेना की यह साख खतरे में है कि वह भीड़ की हिंसा को रोकने का अंतिम सहारा है. जम्मू-कश्मीर और मणिपुर में महिलाओं की अगुआई वाली भीड़ से निबटने में सेना ने महारत हासिल कर ली है. बेहतर तो यही होगा कि पुलिस ही ऐसी भीड़ से निबटे और सेना ऐसे मामलों से निबटने के अपने नियमों और न्यूनतम बल के प्रयोग को अंतिम विकल्प ही माने. अभी धीरज की परीक्षा का जो खेल चल रहा है वह कयामत ढा सकता है, अगर सैनिक उतावले होकर अनियंत्रित गोलीबारी कर बैठें.


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आगे का रास्ता

स्थिति काबू में इसलिए नहीं दिख रही है कि कानूनों को बहाल कर दिया गया है बल्कि इसलिए दिख रही है कि इंफाल घाटी से कुकी-ज़ो समुदाय का जातीय सफाया कर दिया गया है और पहाड़ी इलाकों से मैतेई समुदाय का सफाया कर दिया गया है. दोनों समुदायों ने जो सख्त रुख अपना रखा है उसके कारण निकट भविष्य में किसी सर्वमान्य राजनीतिक समाधान की संभावना नहीं दिखती. राज्यसत्ता के कानून को तुरंत बहाल किए जाने की सख्त जरूरत है. इसकी शर्तें ये हैं कि आबादी को निःशस्त्र किया जाए और दोनों समुदायों को फिलहाल एक-दूसरे से अलग ही रखा जाए. अगर वार्ता विफल हो जाए और हथियार लौटाए नहीं जाते, तब दोनों समुदाय एक-दूसरे के इलाकों में छापामार लड़ाई शुरू कर सकते हैं, और तब सबसे बुरी बात यह हो सकती है कि अलगाववादी बगावत फिर से शुरू हो जाए.

चूंकि केंद्र सरकार मणिपुर को अशांत क्षेत्र नहीं घोषित करने वाली है, ‘आफ़स्पा’ कानून को नहीं लागू करने वाली है और सेना को अग्रणी भूमिका नहीं सौंपने वाली है इसलिए वर्तमान स्थिति के मद्देनजर सेना के मिशन और उसकी भूमिका की समीक्षा जरूरी है. अभी जो हालात हैं उनमें सेना अगर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिक प्रशासन की मदद में कार्रवाई करती रहेगी तो वह उसकी साख और उसके मनोबल के लिए नुकसानदायक ही साबित होगी. उसे तत्काल वहां से मुक्त किया जाना चाहिए. सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेज़ (सीएपीएफ) और मणिपुर पुलिस को कानून-व्यवस्था बनाए रखने और इंफाल घाटी में लोगों से हथियार वापस लेने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए. लूटे गए और वापस लौटाए गए सभी हथियारों का हिसाब जरूर रखा जाए. इससे यह भी साबित होगा कि अपने ही समुदाय पर मुख्यमंत्री की कितनी पकड़ है.

सेना को घाटी और पहाड़ी क्षेत्र के बीच के बफर ज़ोन को संभालने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए. उसे पहाड़ी क्षेत्र में, जहां उसे ‘आफ़्स्पा’ कानून का कवच हासिल है, ऑपरेशन करने की भी ज़िम्मेदारी सौंपी जाए क्योंकि उसे जिन 19 पुलिस थाना क्षेत्रों से हटाया गया है वे सब प्रायः इंफाल घाटी में हैं. सेना आबादी को निःशस्त्र करने की कार्रवाई चलाए और उन कैंपों को बनाए रखे जिन्हें पुराने बागियों के लिए ‘सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन्स’ समझौते के तहत बनाया गया था. भीड़ से सीएपीएफ और मणिपुर पुलिस को ही निबटना चाहिए. अगर सेना को भीड़ से निबटना ही पड़े तो वह नतीजा हासिल करने के लिए न्यूनतम बल के प्रयोग अपने पवित्र नियमों का पालन करते हुए पुलिसिया तरीकों का सहारा ले.

यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि जब ‘आफ़्स्पा’ कानून लागू किया जाता है तब भी सेना संयुक्त कमांड ऑथरिटी के तहत नागरिक प्रशासन के लिए कार्रवाई करती है, वह स्वतंत्र रूप से ऑपरेट नहीं करती. अतीत में इसके विपरीत की धारणा इसलिए बनी थी कि राज्यपाल/मुख्यमंत्री के अधीन संयुक्त कमांड ऑथरिटी ने अलगाववादी बगावत से निबटने के लिए सेना को ‘फ्री हैंड’ दे दिया था. लेकिन अशांत क्षेत्र में ‘आफ़्स्पा’ के कवच के साथ सेना के मिशन को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है और उसके रणनीतिक ऑपरेशन्स में दखल नहीं दी जा सकती. मैंने अनुच्छेद 34 के तहत मार्शल लॉ के अस्पष्ट प्रावधानों की चर्चा नहीं की है क्योंकि लोकतंत्र में इसे निषिद्ध माना जाता है. संयुक्त कमांड ऑथरिटी के जरिए नागरिक प्रशासन के निर्देशों के तहत अशांत क्षेत्र की घोषणा और ‘आफ़्स्पा’ लागू करना लगभग उसी मकसद को पूरा करता है.

यह केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है कि नागरिक प्रशासन की मदद में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के अंतिम साधन के तौर पर सेना की साख न घटे. उसकी स्थिति एक महिमामंडित पुलिस वाली न बने, जिसे कोई राजनीतिक सत्ता अपने मकसद के लिए इस्तेमाल करे. सैन्य महकमे को अपनी रीढ़ सीधी रखनी चाहिए और सरकार को स्पष्ट सलाह देनी चाहिए कि मणिपुर में सेना का मिशन क्या हो.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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