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Wednesday, 20 November, 2024
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मैं चौथे दिन ही विपस्सना शिविर छोड़कर क्यों चला आया- दिलीप मंडल

चौथे दिन, हमने अपना ध्यान अपने पूरे शरीर पर, एक-एक हिस्से पर, ऊपर से नीचे तक ले जाना शुरू कर दिया. पांचवें दिन, मैं शिविर से बाहर निकला.

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विपस्सना (कई लोग इसे विपश्यना भी बोलते हैं) के बारे में मैंने काफी कुछ सुन रखा था. इसमें तारीफ, आलोचना और संदेह तीनों तरह की बातें थीं. मेरे कई दोस्तों और रिश्तेदारों ने विपस्सना का 10 दिन का शिविर किया है और वे विपस्सना के बारे में अलग अलग राय लेकर लौटे. इसलिए जब मेरे जीवन में जब वह मौका आया कि मैं काम के बीच 10 दिन निकाल सकूं, तो मैंने सोचा कि एक बार चल कर देख ही लेते हैं.

लेकिन विपस्सना शिविर के 10 दिन पूरे करने के बदले, मैं ये लेख लिख रहा हूं. इंग्लिश में जब ये लेख छपा तो कई लोगों ने कहा कि जब आपने विपस्सना के 10 दिन पूरे ही नहीं किए तो आप विपस्सना के गुण-दोष पर क्यों और कैसे लिख सकते हैं. कुछ लोगों ने कहा कि असली ज्ञान तो बाद के दिनों में मिलना था. पहले चार दिनों में तो तैयारी चलती है. आप पहले क्यों आ गए? कई लोगों की सलाह है कि मुझे दोबारा जाकर 10 दिन का कैंप पूरा करना चाहिए.

ये आलोचना वाजिब है कि मैंने कैंप में 10 या 11 दिन नहीं बिताए और चार दिन पूरे करके पांचवें दिन निकल आया. लेकिन मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूं कि विपस्सना के बारे में लिखने के लिए सिर्फ वही सक्षम है, जिसने वहां 10 दिन बिताए हैं. वैसे भी मैं यहां विपस्सना के सिर्फ चार दिन के अनुभव के बारे में लिख रहा हूं. जिन लोगों ने इसके बाद के दिन विपस्सना में बिताए हैं, और कैंप का पूरा लाभ उठाया है, वे अपने अनुभवों से हमें और सबको समृद्ध कर सकते हैं. मैं अपनी आलोचना या राय को सार्वभौमिक मानता भी नहीं हूं. बहुतों को अच्छा अनुभव भी हुआ होगा. मैं उनका सम्मान करता हूं.

ये कहा जा रहा है कि मुझे विपस्सना में समर्पण भाव से जाना चाहिए था. ये मुमकिन नहीं था. एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि मैं किसी भी व्यक्ति, विचार, संस्था या धर्म का भक्त नहीं है. मुझमें एक अच्छी या बुरी आदत है कि मैं अक्सर चीजों को संदेह की नजर से देखता हूं, उनकी पड़ताल करने की कोशिश करता हूं और अपने ज्ञान संसार से उसकी पुष्टि करने की कोशिश करता हूं. ये शायद मेरी बचपन की ट्रेनिंग से आया है क्योंकि मेरे पिता, जो केंद्र सरकार के एक उपक्रम में स्कूल टीचर थे, ने ये सिखाया था कि किसी बात को सिर्फ इसलिए मत मान लो कि बाकी बहुत सारे लोग ऐसा कह रहे हैं. उसे टेस्ट करो. बाद में पता चला कि ये सरल सी बात आजीवक परंपरा, चार्वाक दर्शन, तथा तथागत गौतम बुद्ध और कबीर के विचारों का सार तत्व है. यानी मानो मत, जानो.

मेरा इरादा तो विपस्सना में 10 दिन पूरे करने का ही था. लेकिन एक दोस्त ने मुझे चेतावनी दे दी थी कि तुम सात दिन में भाग आओगे. मैंने उसे गलत साबित कर दिया. वे बस चार दिन ही थे.

एक तरीका तो ये हो सकता था कि मैं विपस्सना में जाने से पहले साधना की इस पद्धति के बारे में पढ़ता, वीडियो देखता और तब वहां जाता. ये स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि मैंने ऐसा नहीं किया. मैं अपने अनुभव से सीखना चाहता था. वैसे भी जीवन के अनुभव अक्सर पढ़कर नहीं, अपने अनुभव से आते हैं. हालांकि पढ़ाई का अपना महत्व है. अपनी रोशनी खुद बन जाना यानी अप्प दीपो भव वैसे भी बौद्ध धम्म की विधि है.

इसलिए मैं यहां जो कुछ भी लिखने जा रहा हूं, वह अनुभव जन्य है. स्व अनुभूत है. इसमें अगर आपको दार्शनिक तत्व न मिलें, तो कृपया मुझे माफ कर दें. वह कार्य और लोगों ने किया होगा. मैं यहां वह नहीं कर रहा हूं. ये बता देना आवश्यक है कि विपस्सना कैंप में कोई फीस नहीं लगती, इसलिए कोई ये दावा या शिकायत नहीं कर सकता है कि वह उपभोक्ता है और उसे जो प्रॉमिस किया गया था, वह नहीं मिला. मेरी टिप्पणी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में है जिसने विपस्सना को समझने, देखने की कोशिश की और अपनी बात लिख दी.

यहां जिस विपस्सना पद्धति की बात है, वह एसएन गोयनका द्वारा प्रतिपादित विपस्सना है. इसके अलावा अगर कोई विपस्सना पद्धति है, तो उस पर इन बातों को लागू न माना जाए.

अनुभव की चर्चा करने से पहले आखिरी बात. चूंकि विपस्सना शिविर में लैपटॉप, फोन, रिकॉर्डर आदि किसी भी उपकरण को ले जाने की इजाजत नहीं है और न ही कलम या नोट बुक ले जा सकते हैं, इसलिए सारा अनुभव याद यानी स्मृति के आधार पर लिखा गया है.


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ज्ञात से अज्ञात की ओर

शिविर शुरू होने से एक दिन पहले रजिस्ट्रेशन और रहने के लिए आवास का आवंटन जैसी औपचारिकताएं होती हैं और संस्थापक एसएन गोयनका का परिचयात्मक रेकॉर्डेड भाषण सुनाया जाता है. ये जानकारी मिलती है कि विपस्सना की विधि एसएन गोयनका ने बर्मा यानी म्यांमार के विपस्सना गुरु से सीखी थी. मेरी फ्लाइट का समय कुछ ऐसा था कि मैं पहले दिन वहां समय पर नहीं पहुंच सका. विपस्सना केंद्र के संचालक ने मुझे अगले दिन सुबह आने का विकल्प दिया.

मैं अगले दिन जिज्ञासा और मन में तमाम सवालों के साथ विपस्सना शिविर में पहुंचा. साधना का ये पहला दिन था. जो भाषण बाकी साधक (जबकि बौद्ध परंपरा में उपासक शब्द का प्रयोग होता है) सुन चुके थे, वह मैंने पहले दिन सुना. ज्यादातर लोग उन कमरों में ठहराए गए थे, जिनमें कई लोग साथ में रहते थे. मुझे अलग से एक कमरा मिला, जो हवादार था. वहां फैन, अटैच टॉयलेट-बाथरूम आदि बुनियादी सुविधाएं थीं.

सुबह के नाश्ते का समय था. नाश्ता ठीक था. नाश्ते में हर दिन इसमें दलिया, अंकुरित मूंग, उपमा, रस्क, केला जैसी चीजें होती थीं. साथ में चाय दिया गया. ये बता देना जरूरी है कि तीनों बार का खाना “शुद्ध शाकाहारी” ही था. दोपहर के खाने में मिठाई भी होती थी. खाने में लहसुन और प्याज भी नहीं था. इस तरह हम बौद्ध पद्धति के शिविर में जैन खाना खा रहे थे. खाने में ढेर सारा कार्बोहाइड्रेट होता था, जो मेरी डायट के हिसाब से ठीक नहीं था. मेरे जैसे लोगों के लिए समस्या थी, पर ये कुछ दिनों की ही बात थी.

यहां से मुझे मुख्य हॉल यानी चैत्य में जाने को कहा गया. यहां मैंने पहली बार गुरु (जबकि बौद्ध परंपरा में भंते कहा जाता है) को देखा. बगल में एक महिला गुरु भी थीं. उनकी कुर्सियां बड़ी थीं और सामने सभी लोग जमीन पर रखे गए कुशन पर बैठे थे. वहां लगभग 70 साधक थे, जिनमें लगभग 50 पुरुष और 20 महिलाएं थीं. दोनों समूहों को सख्ती से अलग अलग बिठाया गया था. स्त्रियों और पुरुषों के रहने के इलाके भी अलग थे. गुरु थे तो लेकिन सारे दिशा निर्देश और प्रवचन एसएन गोयनका के रेकॉर्डेड ही चलते थे. गुरु लगभग सारे समय चुप रहते थे.

साधना विधि ये बताई गई कि पहले तो शील जरुरी है, फिर समाधि होगी और अंत में प्रज्ञा आएगी. शील का मतलब अनुशासन है और इस मामले में विपस्सना शिविर ने कोई जोखिम नहीं लिया. शील का पालन बेहद सख्ती से कराया जाता था. सात शील का पालन जरूरी था- कोई जीव हत्या नहीं करेगा, चोरी नहीं करेगा, ब्रह्मचर्य का पालन करेगा, झूठ नहीं बोलेगा, नशा नहीं करेगा, साज श्रृंगार प्रसाधनों का इस्तेमाल नहीं करेगा, आरामदेह गद्दे पर नहीं सोएगा. शिविर में सब शाकाहारी था, चोरी करने के लिए किसी के पास कुछ नहीं था, क्योंकि कीमती सामान लॉकर में रखवा दिया गया था, बोलने की ही इजाजत नहीं थी, तो झूठ बोलने का प्रश्न ही नहीं था, श्रृंगार की गुंजाइश थी नहीं, सेक्स का सवाल ही नहीं था और गद्दे जैसे भी थे, शिविर की ओर से दिए गए थे.

तो इस तरह सभी साधक शीलवान बन गए. यानी विपस्सना का एक तिहाई लक्ष्य तो साधना शुरू होने से पहले ही पूरा हो गया. ये और बात है कि क्या विपस्सना पूरा करने के बाद भी लोग इनका पालन करते हैं? मैं तो इनमें से सबका पालन बाहर नहीं करता और ये स्वीकार करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है. मैं कुछ का ही पालन कर पाता हूं. जो लोग बाहर इन सबका पालन करते हैं उनको मैं आदर के साथ प्रणाम करता हूं.

अब बात आती है समाधि की. लेकिन इस बारे में बताने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है. अगर पांचवें दिन के बाद कोई और बात हुई होगी तो पता नहीं. पर पहले तीन दिन तक हम सब सांस लेते और सांस छोड़ते रहे. क्योंकि यही कहा गया था. दो दिन तक सांस लेते समय ऊपरी होंठों से ऊपर नाक और नाक के ऊपरी हिस्से तक पर ध्यान केंद्रित करना था और देखना था कि सांस जा रही है तो क्या हो रहा है. सुरसुराहट है, गर्म है, ठंडा है, कंपन है, चुभन है, गुदगुदाहट है या थर्राहट है. मतलब उस फीलिंग को फील करना था जो हो रहा है. तीसरे दिन ध्यान लगाने का क्षेत्र छोटा कर दिया गया.
अब हम लोग आती-जाती सांसों को होंठ से ऊपर और नासिका छिद्र से नीचे के छोटे से हिस्से में महसूस कर रहे थे. मतलब करना ये था कि सिर्फ सांसों पर ध्यान देना था और मन को यहां-वहां भटकने नहीं देना था. सोचना भी नहीं था. सिर्फ ये महसूस करना था कि सांसें हैं और शरीर का एक छोटा सा भाग है. थोड़े समय के लिए दीन-दुनिया से मुक्त हो जाने का ये अभ्यास सब लोग कर रहे थे. कौन कितना कर पा रहा था, ये कहना मुश्किल है. क्योंकि हम लोग साधना के समय के बाद भी आपस में बात तो कर नहीं सकते थे. मैं और बाकी साधक जो कहा गया था, उसे चुपचाप करने की कोशिश कर रहे थे. हमारे लिए ये अजाना क्षेत्र था, तो हम मार्गदर्शक यानी गोयनका जी की बातें मान रहे थे.

फिर दोपहर से पहले एक घंटा बजा और सभी लोग रोबोट की तरह हॉल से निकलकर डायनिंग हॉल की ओर चल पड़े. इस अनुशासन को देखकर किसी भी स्कूल के प्रिंसिपल या जेलर को बहुत खुशी होती. मुझे भी ये अनुशासन पसंद आया.


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वक्त पर पहरा

विपस्सना शिविर में समय के मुताबिक सब कुछ निर्धारित होता है. सुबह चार बजे उठो, साढ़े चार से साढ़े छह साधना, साढ़े छह पर नाश्ता, सात से आठ विश्राम और टहलना. आठ से नौ सामूहिक साधना (इसमें आपसे उम्मीद की जाती है कि आप न उठें), नौ से 11 साधना. साढ़े ग्यारह बजे लंच. लंच के बाद एक बजे तक विश्राम. इसी दौरान, 12 बजे से आधे घंटे के लिए गुरु से साधना में आने वाली परेशानियों के बारे में सवाल पूछने का वक्त. लेकिन कोई वाद विवाद या अन्य प्रश्न नहीं. एक से ढाई बजे तक साधना. ढाई से साढ़े तीन बजे तक सामूहिक साधना. साढ़े तीन से पांच तक फिर साधना. पांच बजे से 5.20 बजे तक शाम की चाय और स्नैक्स. फिर छह बजे तक विश्राम और टहलना. फिर सात बजे तक फिर से सामूहिक साधना. इसके बाद साढ़े आठ बजे तक रिकॉर्डेड भाषण. भाषण के बाद आधे घंटे के लिए साधना और फिर रात नौ बजे सोने के लिए कमरों की ओर प्रस्थान.

इस तरह से देखा जाए तो विपस्सना के पहले तीन दिनों में हम मुख्य रूप से सांस ले और छोड़ रहे थे, नाक के आसपास के शरीर के क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे, सो रहे थे, टहल रहे थे और खा रहे थे. कसरत या दौड़ना वर्जित था. चौथे दिन सांस वाला काम बंद हुआ. हालांकि सांस हम फिर भी ले रहे थे. अब हमें सिर से लेकर पैर की अंगूली के अंगूठे तक शरीर के अलग अलग हिस्से में ध्यान देकर महसूस करना था कि क्या अनुभूति हो रही है. बस महसूस करना था कि सरसराहट है कि खुजली है कि दर्द है कि चुभन है कि कंपन है कि गुदगुदाहट है… चुनौती ये थी कि कोई न कोई अनुभूति मिलनी चाहिए. अनुभूति न हो तो थोड़ा रुककर महसूस करना था. पांचवें दिन के बाद वहां क्या हुआ होगा, जाहिर है मुझे पता नहीं.

आर्य मौन और आंखें नीची

विपस्सना शिविर में आपसी संवाद पर पूरी तरह रोक थी. पूरा शिविर आर्य मौन के सिद्धांत पर चल रहा था. यानी रोक सिर्फ बोलने पर नहीं थी. एक दूसरे से इशारों से भी संवाद नहीं करना था. यहां तक कि साधकों का साथ टहलना भी निषिद्ध था. आंख से आंख न टकराए, ये तक उम्मीद थी. फोन और संचार का कोई और माध्यम न होने के कारण बाहर से संपर्क यूं ही कटा हुआ था. कलम-पेंसिल और कागज रखना मना था, तो कोई नोट्स लेना भी नामुमकिन था. कोई भी किताब रखना या पढ़ना मना था.

बौद्ध धम्म और पंरपरा के बारे में अपनी समझ से मैं ये जान पाया था कि तथागत गौतम बुद्ध ने हर व्यक्ति, वस्तु और विचार को प्रश्नों के दायरे में बताया था. यहां तक कि उन्होंने खुद को भी प्रश्नों से परे नहीं माना था. मुमकिन है कि डॉ. आंबेडकर की शुरू की हुई नवयान बौद्ध परंपरा में इस पर ज्यादा जोर होता है. अगर हम सवाल नहीं पूछेंगे, बहस नहीं करेंगे, परस्पर विरोधी विचार टकराएंगे नहीं, तो सत्य का संधान कैसे होगा? मेरी ये मामूली समझ विपश्यना शिविर के जेल जैसे अनुशासन से टकरा रही थी. यहां किसी चर्चा की गुंजाइश तक नहीं थी. जवाब देने के लिए गुरुजी थे, पर सवाल विपस्सना में आ रही परेशानी के बारे में ही पूछे जाने थे. विपस्सना विधि सवालों से परे थी. गुरु सवालों से परे थे. विपस्सना के नियम सवालों से ऊपर थे. पूर्ण समर्पण अपेक्षित था.

विपस्सना के बारे में कहा जा रहा था कि ये हमारे मन को निर्मल करेगी और हमें राग और मोह से मुक्त करेगी. लेकिन संसारी लोगों को राग और मोह से मुक्त क्यों होना चाहिए? मेरा तो मानना है, आप इस पर बहस कर सकते हैं, कि राग, अनुराग, असंतोष, मोह, तमन्नाएं और इच्छाएं मानव जीवन और मानव सभ्यता के लिए बेहद जरूरी हैं. असंतोष होना बहुत आवश्यक है. जो जैसा चल रहा है, उससे बेहतर होना चाहिए, इस असंतोष भाव ने मानव सभ्यता के विकास में निर्णायक भूमिका निभाई है. अगर गुफाओं में रह रहा मानव गुफाओं के जीवन से संतुष्ट होता तो हम सब आज भी गुफाओं में ही रह रहे होते. आज अगर मनुष्य गुफाओं से चंद्रमा तक की यात्रा कर चुका है, एनालॉग दुनिया डिजिटल हुई है, दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी तक पहुंची है तो ये पिछली व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था बनाने की अदम्य मानवीय चेतना का नतीजा है. ये असंतोष का फल है. राग और मोह से ये संभव हुआ है.

मुझे इस बात से भी खासी समस्या थी कि सारे लैक्चर रिकॉर्डेड प्रवचन की शक्ल में दिए जा रहे थे. विपस्सना शिविर में एक और समस्या ये थे कि शिविर पूरा करने से पहले बाहर आना सुगम नहीं था. शिविर में प्रवेश करने से पहले ही ये बात बार बार समझा दी जाती है कि अगर आप शिविर में आ रहे हैं तो 10 दिन पूरा करना जरूरी होता है. बीच में छोड़कर नहीं जाना है. समझाने से लेकर मानसिक दबाव डालने के जरिए बीच में बाहर आने को मुश्किल बनाया जाता है. बाहर भी लोग ये कहते हैं कि अगर आप बीच में छोड़ आए तो इसका मतलब है कि आप मानसिक रूप से मजबूत नहीं हैं. या कि अब कभी विपस्सना करने का मौका नहीं मिलेगा. बहरहाल इन सबके बीच में विपस्सना कैंप से बाहर आ गया. रोकना ऐसे भी संभव नहीं है क्योंकि मौलिक अधिकार हमें स्वतंत्र अबाध विचरण की आजादी देता है तब तक जब तक कि विधि के जरिए उस पर पाबंदी न लगी हो.

चौथे दिन के अंत में मैंने गुरुजी से कह दिया कि बाहर मेरे ऐसे कुछ जरूरी काम है, जिन्हें अब मैं साधना से ज्यादा जरूरी समझता हूं, विपस्सना से मैं संतुष्ट नहीं हूं. इसलिए अब मुझे जाने दिया जाए. इस पर गुरुजी ने जो कहा वह मैं नहीं लिख रहा हूं क्योंकि उसकी कोई रिकॉर्डिंग या डिजिटल साक्ष्य नहीं है. न ही कोई गवाह है. लेकिन कुल मिलाकर उन्होंने अंत में कहा कि आज जाइए और सो जाइए. कल बात करेंगे. अगले दिन नाश्ते के बाद मेरी गुरुजी से फिर मुलाकात कराई गई. इस दौरान जब मैंने अपनी बात बार-बार रखी तो मुझे जाने की “इजाजत” मिल गई.

मैं अब फिलहाल सांसें ले रहा हूं और सोच रहा हूं कि मैंने जो किया, वो क्या था. मैं मानता हूं कि कई लोगों के विपस्सना के अनुभव मुझसे अलग रहे होंगे. हो सकता है कि उनमें से कई को ये उपयोगी लगा होगा. हो सकता है कि उन्होंने विपस्सना के घोषित लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया होगा. मैं उन लोगों में नहीं हूं. मगर क्या मुझे इसका अफसोस है? मेरा जवाब है नहीं.

हर आदमी का सत्य का सफर अलग होता है. ये उस व्यक्ति की निजी जीवनी और उसके वातावरण और स्थितियों पर निर्भर करता है कि वह किसी वस्तु या विचार को कैसे देखता है. मेरे एक शिक्षक मित्र, जो फिलॉसफी पढ़ाते हैं, से जब मैंने इस बारे में चर्चा की तो उनका जवाब था -आप बौद्ध धम्म को बाबा साहब आंबेडकर के बुद्धिज्म की तरह देखते हैं. लेकिन बौद्ध धम्म तो उनसे पहले भी था और उनके कई रूप भी थे. मुमकिन है कि विपस्सना भी उसकी किसी धारा में रहा हो. चूंकि आप बाबा साहब के नवयान बुद्धिज्म को जानते हैं, इसलिए दूसरी धाराओं को आप अपनी स्वीकृति नहीं दे पा रहे हैं.

ऐसा हो सकता है. इसलिए मैं गोयनका जी द्वारा भारत में प्रतिपादित विपस्सना को सिर्फ अपने लिए खारिज कर रहा हूं. जो लोग इसके लाभार्थी हैं या इसके प्रति अच्छे विचार रखते हैं, उन्हें मंगलकामनाएं. भवतु सब्ब मंगलम.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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