इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस क्या लक्ष्य सोच कर चल रही है, इसका संकेत देने वाले सबसे नए और अब तक के सबसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के रूप में सामने आए हैं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ. उन्होंने वही बात दोहराई, जो पार्टी के आंकड़ा प्रभारी प्रवीण चक्रवर्ती ने कुछ दिन पहले कही थी, कि पार्टी इस बार 2014 में मिली सीटों से तीन गुना ज्यादा सीटें जीतेगी. इसके बाद कमलनाथ ने यह भी स्पष्ट किया कि 2019 के चुनाव में उसका केंद्रीय लक्ष्य क्या है. उन्होंने कहा कि इतनी सीटें नरेंद्र मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए पर्याप्त होंगी.
आश्चर्य नहीं कि इसका भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के समर्थकों ने तुरंत उपहास उड़ाया. यह तो पार्टी की मूर्खता ही होगी कि वह इतना भी दावा न करे कि वह सरकार बनाने लायक सीटें जरूर जीतेगी. लेकिन यह तो बीच चुनाव अभियान में हार मानने जैसी बात हुई. वैसे भी, 44 का तीन गुना तो महज 132 ही हुआ. अगर कांग्रेस ने खुद ही 132 के आंकड़े पर नज़र टिकाई है, तो उसे 100 का आंकड़ा पार करने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ेगी.
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इस तरह की आपत्तियां तथ्यात्मक रूप से सही और राजनीतिक रूप से भ्रामक हैं. क्योंकि, भाजपा अगर 200 सीटें जीत लेती है तो वह निश्चित ही दोबारा सरकार बना लेगी. उसे रोकने का एक ही रास्ता है, उसे 200 से काफी कम सीटें जीतने दीजिए.
2019 के लिए भाजपा और कांग्रेस के लिए एक ‘कैंची’ का चित्र बनाइए. अगर भाजपा, और खासकर मोदी-शाह की भाजपा के लिए न्यूनतम लक्ष्य 200 है, तो वह उस बिन्दु पर नज़र रखेगी जहां इस ‘कैंची’ के दोनों हाथ जुड़ते हैं. यह वह बिन्दु है, जहां कांग्रेस मात्र 100 के आंकड़े पर पहुंचती है. अगर कांग्रेस सैकड़े के आंकड़े पर पहुंचती है, तो भाजपा 200 के नीचे जाने लगती है.
कांग्रेस की सीटें 100 से जितनी ज्यादा होती जाएंगी, मोदी-शाह की भाजपा 200 से नीचे के उतने ही खतरनाक आंकड़े में फंसती जाएगी. मुझे गलत न समझा जाए, और इसे मूर्खतापूर्ण न माना जाए, इसलिए मैं साफ करना चाहूंगा कि मैं यह नहीं कह रहा कि कांग्रेस को इतनी सीटें मिल ही रही हैं. मेरा आशय सिर्फ यह है कि कांग्रेस अगर 100 सीटें जीत लेती है तो वह एक अहम बाधा को पार कर लेगी. और अगर वह 2014 के आंकड़े से तीन गुना यानी 132 सीटें जीतती है तो संभव है कि वह मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोक दे. याद कीजिए कि 2004 में कांग्रेस को 132 से सिर्फ दर्जन भर ज्यादा सीटें मिली थीं और उसने जोड़जाड़कर यूपीए-1 सरकार बना ली थी. खुदा के लिए, एक बार फिर मैं साफ करना चाहूंगा कि मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसा हो जाएगा. मेरी बस यही विनती है कि 132 की संभावना का मखौल न उड़ाएं.
जरा 2014 के आंकड़ों पर दोबारा नज़र डालें. भाजपा को मिली 282 सीटों में से कोई 167 सीटों पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही थी. दूसरे शब्दों में, मोदी लहर कांग्रेस के सफाए पर बनी थी, जिसकी सीटें 206 से मात्र 44 पर पहुंच गई थीं. उसे जो भी घाटा हुआ था वह भाजपा के खाते में जुड़ गया था. भाजपा ने 38 सीटें सपा और बसपा से उत्तर प्रदेश में छीनी थी. अगर कांग्रेस आज 100 के आंकड़े को छूती है, तो इसका मतलब यह होगा कि वह भाजपा से 60 सीटें वापस छीनेगी. अब अगर यह मान लिया जाए कि 2014 में भाजपा ने सपा-बसपा से जो सीटें झटक ली थी, उन्हें सपा-बसपा गठबंधन के हाथों हार जाती है, तो इसका अर्थ यह होगा कि यह निर्णायक झटका होगा. एक बार फिर मैं अग्रिम जमानत की तीसरी अर्ज़ी पेश करता हूं कि मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसा ही होने जा रहा है.
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कांग्रेस 100 के आंकड़े से कितनी दूर है, यह समझने के लिए यह देखना होगा कि उसे 44 सीटें कहां-कहां से मिली थीं. ये 16 राज्यों में फैली हैं. केवल कर्नाटक में वह पूरे दहाई यानी 10 का आंकड़ा छू पाई थी. इसके बाद केरल में उसे 7 सीटें मिली थीं. बाकी 27 सीटें 14 राज्यों में फैली थीं, जिन्हें हम 1-2-3 करके गिन सकते हैं. इनमें से हरेक सीट चुनावी खेल से अलग, शुद्ध रूप से उम्मीदवार की व्यक्तिगत ताकत के बूते जीती गई थी.
जिन 167 सीटों पर कांग्रेस भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रही थी (कुल 223 में से), उनमें से केवल 14 सीटों पर वह भाजपा को हासिल हुए कुल वोटों के 10 प्रतिशत से भी कम वोटों के अंतर से हारी थी. उलटकर देखें— 10 से 15 प्रतिशत वोटों के अंतर से हारी गई सीटें केवल 6 थीं. कोई भी समझदार चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ यही कहेगा कि 10 प्रतिशत के अंतर को पाटना विरोधी के पक्ष में बने जबरदस्त लहर को उलटने के समान होगा. जहां तक बाकी सीटों की बात है, हार का अंतर 75 प्रतिशत तक चला गया है.
इस परिदृश्य में जरा एक कदम पीछे जाकर यह देखें कि पार्टी हाल में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कैसे जीत गई. यह 2014 की लहर को उलटने में सफल रही. मतलब यह कि यह इन राज्यों में उस तरह के वोट आधार को फिर आकर्षित कर सकती है. 100 के जादुई आंकड़े को हासिल करने के लिए इसे इन तीन राज्यों में कम-से-कम 30 सीटें तो जीतनी ही होंगी. छत्तीसगढ़ में इसने जो बड़ी बढ़त हासिल की थी उसके मद्देनजर उम्मीद की जानी चाहिए कि वहां इसे काफी सीटें मिल सकती हैं. लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान से 25 सीटों की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही आशावादी होना होगा. लोकसभा चुनाव में मोदी के पक्ष या विरोध में पड़ने वाले वोट विधानसभा में हासिल होने वाली सीटों को प्रभावित नहीं कर सकते.
यह चुनाव जबकि अपने मध्य में पहुंच चुका है, खेल इस मुकाम पर आ चुका है. अभी भी खेल खुला है. सारी नज़रें हालांकि उत्तर प्रदेश पर हैं, लेकिन अंतिम फैसला मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, झारखंड, असम आदि उन राज्यों पर निर्भर करेगा जिनकी कुल करीब 150 सीटों पर भाजपा और काँग्रेस में सीधा मुक़ाबला होगा.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पता है कि केवल कांग्रेस ही वह पार्टी है जो उसे सत्ता से वंचित कर सकती है. इस तथ्य में ही उस सवाल का जवाब छिपा है, जो अक्सर पूछा जाता है कि आखिर मोदी काँग्रेस पर ही निशाना क्यों साधते हैं, वहां भी जहां वह उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी नहीं है? कांग्रेस को 100 के आंकड़े से नीचे रखना मोदी के लिए उतना ही अहम है, जितना उनके विरोधियों के लिए यह जरूरी है कि वे उन्हें 200 के आंकड़े से नीचे रखें.
मोदी को दूसरे कार्यकाल से वंचित करने के लिए कांग्रेस को अगर 2014 के आंकड़े का तीन गुना यानी 132 सीटें जरूरी हैं, तो यह तीन महीने पहले मुमकिन दिख रहा था. लेकिन उसके बाद से काँग्रेस ने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या किया है? क्या उसने प्रतिबद्धता, संकल्प, संगठन और निर्णय क्षमता दिखाई है?
यहां पर मुझे 1980 की वह रात याद आती है जब हम कुछ पत्रकार हरियाणा की डबवाली में जहरीली शराब से हुई कई मौतों को कवर करके सुनसान हाइवे पर वापस लौट रहे थे. हममें से कुछ पत्रकार उस समय के विपक्ष के नेता देवीलाल की गाड़ी में उनके साथ लौट रहे थे. ड्राइवर ने कार की हेडलाइट के सामने अचानक आ गए एक खरगोश को देखकर ब्रेक लगा दिया था. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, खरगोश पहले दाएं, फिर बाएं भागा लेकिन चक्के के नीचे आ गया.
देवीलाल ने हमें एक कहानी सुनाई. उन्होंने कहा कि ऐसा ही एक बार तब हुआ था जब वे अविभाजित पंजाब के ताकतवर मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के साथ उनके राजनीतिक सहायक के तौर पर गाड़ी में जा रहे थे. कैरों ने भी कार रुकवाई थी और कहा था— चौधरी, तू देखिओ नेहरू के साथ भी ऐसा ही होगा. आपको तय करना होता है कि दाएं जाओगे या बाएं, दुविधा में जो रहा, वह गया.
कांग्रेस पर भी यही बात लागू होती है, जिसकी बागडोर आज नेहरू की तीसरी पीढ़ी के वारिसों के हाथों में है. उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा से लेकर दिल्ली में ‘आप’ तक से तालमेल करने का सवाल हो, या बंगाल की ममता बनर्जी से लेकर तेलंगाना के केसीआर और उड़ीसा के नवीन पटनायक से हाथ मिलने का प्रश्न हो और किसी भी कीमत पर एक मकसद के लिए एकजुट होने का सवाल हो, कर्नाटक में अपनी फौज को जेडीएस के उम्मीदवारों से झगड़ा न करके उनका समर्थन करने के लिए अनुशासित करने की बात हो, या बनारस में मोदी के खिलाफ प्रियंका गांधी को खड़ा करने के फैसले में अंत तक रहस्य बनाए रखने का मामला हो, राहुल की कांग्रेस की क्या छवि उभरती है? कार की हेडलाइट के सामने आ गए खरगोश वाली ही तो!
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अब अगर सफाई यह दी जाती है कि पार्टी को भविष्य के लिए खुद को तैयार करना है, तो यह एक मार्मिक कपोल कल्पना ही मानी जाएगी. क्योंकि, क्रिकेट की तरह राजनीति में भी आप आपनी पहली पारी को इसलिए खराब नहीं करते कि दूसरी पारी में आप अच्छा खेलेंगे. पार्टी को डॉ. मनमोहन सिंह से सीख लेनी चाहिए, जिन्होंने नोटबंदी पर संसद में हुई बहस में मेनार्ड केन्स को उदधृत करते हुए कहा था : ‘अंत में तो हम सबको मरना ही है’. लेकिन यहां तो बीच में ही कुचले जाने का खतरा है.
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