दिसंबर 2019 में, भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के खिलाफ एक ‘चार्जशीट’ जारी की. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने संत कबीर दास को उद्धृत करते हुए जवाब दिया: “हमारी संस्कृति सिखाती है निंदक नियरे राखिए -यानी अपने आलोचकों को अपने करीब रखिए. हम उनकी चार्जशीट पढ़ेंगे. जो भी अच्छे सुझाव होंगे, हम उन्हें अगले पांच साल में लागू करेंगे.” यह कोई भी अनुमान लगा सकता है कि केजरीवाल ने बाद में अपने निंदक के सुझावों को कैसे ट्रीट किया है.
हालांकि, INDIA, विपक्षी समूह जिसका केजरीवाल भी एक हिस्सा हैं, को कबीर की सलाह का पालन करना चाहिए. उन्हें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक 2023 पर बहस के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का जवाब अवश्य सुनना चाहिए था. विधेयक उस अध्यादेश को प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है जो अनिवार्य रूप से मंत्रियों या निर्वाचित सरकार से सरकारी अधिकारियों का नियंत्रण छीन लेता है और इसे केंद्र को सौंप देता है.
शाह ने विपक्ष को अलग करने के लिए मोटे तौर पर तीन बिंदु बनाए. पहला, ऐसा क्यों है कि विपक्ष जो इतने दिन से संसद की कार्यवाही में व्यवधान डाल रहा था अचानक दिल्ली बिल पर बहस के लिए तैयार हो गया ? क्या उन्हें नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े बिलों की भी परवाह है? अमित शाह ने लोकसभा में कहा, “वर्तमान में चल रहे मानसून सत्र शुरू होने के बाद से, नौ विधेयक पारित किए गए हैं. विपक्ष ने पहली बार दिल्ली सेवा विधेयक पर बहस में हिस्सा लिया. सभी बिल अपने-अपने तरीके से महत्वपूर्ण थे. अगर आपको लोकतंत्र की चिंता है तो हर बिल महत्वपूर्ण है… साहेब, ना लोकतंत्र की चिंता है, ना देश की चिंता है, ना जनता की चिंता है, ये लोग अपना गठबंधन बचाने आए हैं,”
उनका दूसरा बिंदु मूल रूप से विपक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दों के बारे में उनकी ईमानदारी पर एक बड़ा सवाल था. शाह ने कहा, “वे कहते हैं कि मणिपुर पर चर्चा करें. हम मणिपुर पर चर्चा के लिए तैयार हैं लेकिन नहीं, आप विरोध करेंगे, चर्चा नहीं… जैसे ही गठबंधन टूटने की बात आई, उन्हें मणिपुर की याद नहीं आई, लोकतंत्र की याद नहीं आई, दंगे की भी याद नहीं आई…”
उनका तीसरा बिंदु लोकतंत्र और निर्वाचित सरकार के अधिकारों को बचाने के मिथ्या तर्क के बारे में था. केंद्रीय गृह मंत्री से पूछा, “जब भी राजनीतिक भाषण देना होता है, जिम्मेदारियों से बचना होता है, विधानसभा के विशेषाधिकारों का उपयोग करना होता है, किसी को गाली देनी होती है, आधे दिन का सत्र (दिल्ली विधानसभा का) बुलाया जाता है और फिर इसे स्थगित कर दिया जाता है! क्या आपने कभी ऐसी सरकार देखी है?” जिसने 2020 में सिर्फ एक विधानसभा सत्र बुलाया गया.
शाह ने कहा, 2021, 2022 और 2023 में भी ऐसा ही हुआ. वो भी इसलिए क्योंकि बजट पास होना था. जहां तक निर्वाचित सरकार की जिम्मेदारियों का सवाल है, 2022 में केवल छह कैबिनेट बैठकें हुईं. उनमें से तीन बजट से संबंधित थीं. 2023 में अब तक केवल दो कैबिनेट बैठकें हुई हैं.
AAP का आचरण संदिग्ध
आइए पहले अमित शाह के तीसरे बिंदु पर नजर डालें: INDIA दिल्ली में चुनी हुई सरकार का बचाव कैसे कर सकता है जब वह विधानसभा को AAP की प्रचार शाखा के रूप में उपयोग की कोशिश करता है? उदाहरण के तौर पर देखिए अप्रैल में एक दिवसीय विशेष विधानसभा सत्र के दौरान क्या हुआ. विधानसभा ने “आप को कुचलने के लिए” सीबीआई और ईडी के इस्तेमाल के लिए पीएम मोदी के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया. यह बात दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति मामले में केजरीवाल से पूछताछ के एक दिन बाद हुई. प्रस्ताव में कहा गया, ”स्पष्ट रूप से, पीएम केवल एक व्यक्ति से डरते हैं जिसका नाम केजरीवाल है.” विधानसभा में बोलते हुए, दिल्ली के सीएम ने एक अनपढ़ राजा की बात की, जो चौथी कक्षा पास था.
और अमित शाह के उस दावे के बारे में क्या कहें कि दिल्ली कैबिनेट की बैठक औसतन दो-तीन महीने में एक बार होती है?
बेशक, दिल्ली सेवा विधेयक केंद्र द्वारा एक निर्वाचित सरकार को कमजोर करने के बारे में है. लेकिन जब ऐसी सरकार विधायी नियमों और प्रक्रियाओं के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देती है और अपने मंत्रिमंडल को अप्रासंगिक बना देती है, तो इसका बचाव करने के इच्छुक लोगों को अपने नैतिक दायरे को री-सेट करना होगा. आप सरकार का बचाव करने में कांग्रेस ने दिल्ली और पंजाब में अपने नेताओं को मुश्किल में डाल दिया है और खुद का ही नुकसान किया है. शाह ने कहा कि दिल्ली की आप सरकार भ्रष्टाचार छिपाने के लिए सतर्कता विभाग पर नियंत्रण चाहती है. पंजाब में आप के सत्ता में आने के महज 16 महीनों के भीतर, चार पूर्व कैबिनेट मंत्रियों को कथित भ्रष्टाचार के आरोप में सतर्कता ब्यूरो ने गिरफ्तार किया है और भगवंत मान के नेतृत्व वाली सरकार ने आधा दर्जन अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के खिलाफ जांच के आदेश दिए हैं जिसमें एक पूर्व सीएम और एक डिप्टी सीएम भी शामिल हैं.
यह विडंबना है कि कांग्रेस अब दिल्ली में आप सरकार को सशक्त बनाने के लिए लड़ रही है.
आइए अमित शाह के दूसरे बिंदु पर आते हैं – कि जब दिल्ली विधेयक की बात आई तो विपक्ष मणिपुर और दंगों के बारे में भी भूल गया. जाहिर तौर पर उनका इशारा हरियाणा दंगों की ओर था.
आइए इसके बारे में भी सोचें. हरियाणा के नूंह और गुड़गांव में सांप्रदायिक हिंसा में छह लोग मारे गए. हरियाणा में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार है. और केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के गृह मंत्री उन सांप्रदायिक दंगों के बारे में बात न करने के लिए विपक्ष पर तंज कस रहे थे! उन्होंने दिल्ली के पड़ोस में हुए दंगों पर चर्चा के लिए संसद की कार्यवाही को बाधित नहीं किया! चाहे भीड़ में मुस्लिम शामिल हों या उकसावे की कार्रवाई दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों से हुई हो, विपक्ष की सापेक्ष चुप्पी उनके सिद्धांतो के बारे में बहुत कुछ कहती है.
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महत्वपूर्ण बहस को छोड़ना
अब अमित शाह के पहले बिंदु पर आते हैं: दिल्ली विधेयक पर चर्चा करने के लिए विपक्ष लोकसभा में कैसे लौटा, जबकि उन्हें नौ अन्य विधेयकों की कोई परवाह ही नहीं थी? मणिपुर में केंद्र की विफलताओं और मोदी की चुप्पी से बहुत सारे लोग आश्चर्यचकित और संशकित हैं. विपक्ष का सरकार पर हमला सही था. लेकिन अनेक विधेयकों के प्रति उनकी उदासीनता का क्या कारण है? भारतीय प्रबंधन संस्थान (संशोधन) विधेयक, 2023 जो आईआईएम की स्वायत्तता को गंभीर रूप से कमजोर करता है, सरकार नियंत्रण लेना चाहती है.
विपक्ष के पास इस बारे में कहने को कुछ नहीं था. जन विश्वास विधेयक ने एक बड़ी बहस को जन्म दिया कि क्या यह घटिया दवाओं के निर्माताओं को साधारण जुर्माने के साथ छोड़ रहा है.
विपक्ष के पास इस बारे में कहने के लिए कुछ भी नहीं था. फिर खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक और वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक की बात करें. इन बिलों से भी लाखों लोग चिंतित हैं. लेकिन फिर भी, विपक्ष के पास इसके लिए कुछ भी नहीं था.
पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने द संडे एक्सप्रेस में अपने साप्ताहिक कॉलम में लिखा कि वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, बहु-राज्य सहकारी सोसायटी विधेयक और जीएनसीटीडी (संशोधन) विधेयक “केंद्रीकृत और सत्तावादी व्यवस्था लागू करने के लिए” संसदीय कानून का उपयोग करना सरकारी मॉडल का उदाहरण थे ” उन्होंने अपने तर्कों को मजबूत करने के लिए उन विधेयकों में विशिष्ट प्रावधानों का हवाला दिया.
यह सिर्फ इस सत्र या इन बिलों के बारे में नहीं है. पिछले नौ वर्षों में अधिकांश समय यही हाल रहा है. कांग्रेस का ध्यान पीएम मोदी और उनकी छवि पर हमला करने पर इतना केंद्रित है कि वह मतदाताओं को यह बताना भूल गई है कि वह लोगों के विभिन्न वर्गों से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर कहां खड़ी है. जहां तक चिदंबरम का सवाल है, उनकी पार्टी या मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी जैसे सहयोगी सोशल मीडिया हैंडल से उनके कॉलम भी साझा नहीं करते हैं.
शुक्रवार को, कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने लोकसभा में डिजिटल डेटा संरक्षण विधेयक पेश करने का बहुत ही उत्साही और तर्कसंगत विरोध किया और कहा कि यह निजता के मौलिक अधिकार के लिए “पूरी तरह से विरोधाभासी” है. डेटा उल्लंघन के कई मामलों में सरकार को छूट देने वाले विधेयक के बारे में भी आशंकाएं हैं. आपको CoWIN से टीका लगाए गए लोगों की व्यक्तिगत जानकारी लीक होने की खबर याद होगी. मनीष तिवारी द्वारा इस विवादास्पद विधेयक के बारे में लाल झंडा उठाने के बाद भी, कांग्रेस में किसी ने गंभीरता नहीं दिखाई. जब ये विधेयक चर्चा के लिए लोक सभा में सोमवार को आया तो किसी भी कांग्रेस सांसद ने भाग नहीं लिया. वे मणिपुर को लेकर विरोध करने में व्यस्त थे. तो, पार्टी लोगों के दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले विधेयकों के प्रति अपनी अज्ञानता और उदासीनता को कैसे उचित ठहराएगी?
बहाना
कांग्रेस नेता ये कह सकते हैं कि वे राज्यसभा में संख्या के खेल में फंसे थे. वे मणिपुर पर नियम 267 के तहत चर्चा चाहते थे, न कि नियम 176 के तहत. अनिवार्य रूप से, दूसरे में अधिकतम ढाई घंटे की छोटी अवधि की चर्चा शामिल थी, जबकि पहले में बिना समय सीमा के चर्चा की सुविधा होगी. इसके अलावा विपक्ष चाहता था कि पीएम मोदी संसद के अंदर बयान दें.
पता नहीं क्यों विपक्ष इतना आश्वस्त दिखता है कि लंबी अवधि की चर्चा और मोदी के एक बयान के बाद INDIA को 2024 में अगली सरकार बनाने के लिए भाजपा पर बड़ी बढ़त और मोमेंटम मिल ही जाएगा. जैसे उनसभी ने आम लोगों की दुर्दशा के बारे में सोच रहे नेताओं को 267 और 176 के बारे में बहस को कई सप्ताह से सुने जा रहे हैं आम आदमी को कुछ ऐसा लग सकता है जैसे विपक्ष चाहता है कि भाजपा 267 सांसदों तक सिमट जाए और भाजपा 2024 में INDIA को 176 तक सीमित रखना चाहती है. लेकिन राज्यसभा में इस पर बहस की क्या जरूरत है? खैर, जाने दीजिए. यह केवल मेरा एक मजाक था .
मणिपुर के प्रति केंद्र और प्रधानमंत्री की उदासीनता पर एक वास्तविक विरोध के रूप में जो शुरू हुआ वह विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच अहंकार की लड़ाई जैसा दिखने लगा है. अब कोई विजेता नहीं है और भाजपा को इससे कोई आपत्ति नहीं होगी. विपक्ष हर संसद सत्र में एक मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करता है – और अगले सत्र तक इसे भूल जाता है – इससे मोदी खुश होंगे . जैसे वो विपक्ष के सामने गुरुवार को अविश्वास प्रस्ताव पर बहस का जवाब देने को और आतुर होंगे.
(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
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