scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतभारत के 80 प्रतिशत किसान खेती छोड़ें, तभी भारत बन पाएगा विकसित देश, फिर से लाए जाएं कृषि कानून

भारत के 80 प्रतिशत किसान खेती छोड़ें, तभी भारत बन पाएगा विकसित देश, फिर से लाए जाएं कृषि कानून

किसान अधिक सकल घरेलू उत्पाद योगदान वाले क्षेत्रों की ओर आगे बढ़कर उच्च आय, बेहतर जीवन स्तर और बढ़ी हुई वित्तीय सुरक्षा प्राप्त कर सकते हैं.

Text Size:

आपदा में अवसर ऐसा मुहावरा है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और भी लोकप्रियता दी है. भारतीय कृषि के संदर्भ में यह मुहावरा काम का साबित हो सकता है. बार बार ये बात कही गई है कि भारतीय कृषि संकट में है. किसानों की बदहाली से लेकर, भुखमरी और किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. कृषि और किसानों को लेकर नीति निर्माता से लेकर विश्लेषक तक दया का भाव रखते हैं. किसानों की कारुणिक छवि को दो बीघा जमीन, मदर इंडिया और सद्गति जैसी फिल्मों ने और भी पुष्ट किया है.

लेकिन इसे अब बदले जाने की जरूरत है.

नेशनल एग्री-फूड बायोटेक्नोलॉजी इंस्टिट्यूट (नाबी) के चेयरमैन अश्विनी पारिख ने हाल में ये कहा कि भारत में हर दिन 4,000 किसान खेती-बारी छोड़ देते हैं. इस बयान को कई लोगों ने त्रासदी और संकट के रूप में देखा, जबकि इस बयान का ज्यादा जरूरी मतलब ये है कि अब भी देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी खेती से जुड़ी हुई क्यों है, और खेती छोड़ने वाले लोगों की रफ्तार इतनी कम क्यों है? पारिख ने अपने भाषण में खेती छोड़ने की प्रवृति पर चिंता जताई थी और कहा था कि इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

मेरी राय है कि किसानों का खेती-बारी से हटना एक अच्छी खबर है और इसमें तेजी आने से अर्थव्यवस्था का भला होगा. ये काम दुनिया के विकसित देशों में काफी पहले हो चुका है. लोगों के खेती छोड़ने में चिंता की कोई बात नहीं है, बल्कि इसे बढ़ावा देना चाहिए. इससे न सिर्फ देश का विकास होगा, बल्कि गांव के ठहरे हुए सामंती और भेदभाव मूलक सामाजिक संबंधों का भी अंत होगा.


यह भी पढ़ेंः मोदी सरकार लैपटॉप आयात पर रोक लगाकर चीन को नुकसान पहुंचाना चाहती है, पर इससे भारत का ही नुकसान होगा


खेत से कारखाने का सफर

भारत के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी अर्थव्यवस्था और खेती के लिए वही काम करे जिसे आज से लगभग सौ साल पहले अमेरिका ने किया था. कृषि अर्थव्यवस्था से औद्योगिक अर्थव्यवस्था तक का सफर अमेरिका ने बेहद तेजी से तय किया था. अमेरिका का दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का सफर इसी प्रक्रिया से आगे बढ़ा. इसका एक असर ये भी हुआ कि दक्षिणी राज्यों के दसियों लाख अश्वेत खेत मजदूर उत्तरी राज्यों की फैक्ट्रियों में काम करने के लिए आए. ये इतिहास के बड़े सामूहिक आप्रवास का एक उदाहरण है. शहरों में आने से इन अश्वेत लोगों की जिंदगी बेहतर हुई और भेदभाव भी कम हुआ. चीन ने भी यही काम कुछ दशकों पहले किया.

क्या भारत भी ऐसा कर सकता है? ये मुमकिन है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि खेती को लेकर भारत गांधीवादी दया भाव से मुक्ति पाए. साथ ही ग्रामीण जीवन को लेकर अनावश्यक रोमांटिक नजरिए से भी छुटकारा पाना जरूरी है. गांव कम ही लोगों के लिए शानदार जगह है.

दरअसल भारत की अर्थव्यवस्था लंबे समय से अंतर्विरोध का शिकार रही है. देश की आधी से ज्यादा आबादी, बल्कि हर तीन में दो आदमी खेती और संबंधित कामकाज में जुटा है, जबकि अर्थव्यवस्था में इन क्षेत्रों का कुल योगदान 20 प्रतिशत से भी कम (18.3 प्रतिशत) है और ये लगातार घट भी रहा है. इसका मतलब है कि बहुत ही ज्यादा लोग ऐसे कामों में लगे हैं, जिसमें बहुत कम पैसा आ रहा है. ऐसा लग सकता है कि बहुत सारे लोगों को खेती से रोजगार मिल रहा है, पर ये लोग दरअसल अर्द्ध बेरोजगार हैं.

इस अंतर्विरोध को ठीक करने के लिए खेती को लेकर राष्ट्र का नज़रिया बदलना चाहिए. पुरानी मान्यताओं के मुताबिक कहा जाता है कि – “उत्तम खेती, मध्यम बान (वाणिज्य), निषिद्ध चाकरी, भीख निदान.” ये परंपरागत सोच नुकसानदेह है.

खेती में ढेर सारे किसान लगे रहें, इसके लिए सरकार खेती को लाभकारी बनाने के कई उपाय करती है. इसके लिए सरकार लाभकारी मूल्य पर अनाज खरीदती है, खाद के लिए सब्सिडी देती है और सस्ती दर पर कर्ज मुहैया कराती है. मिसाल के तौर पर, 2022-23 में केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने के लिए 2.37 लाख करोड़ रुपए खर्च किए. इस नीति को जारी रखने और इसकी उपयोगिता अब सवालों के दायरे में है. भारत अब अनाज उत्पादन में आत्म निर्भर है. यही नहीं, ज्यादातर राज्य भी अपनी ज़रूरत का अनाज खुद पैदा कर रहे हैं. ऐसे में कुछ राज्यों के किसानों से एमएसपी दरों पर अनाज की खरीद करते रहना अर्थव्यवस्था की जरूरत नहीं, पुराने समय से चली आ रही नीतिगत आदत है. साथ ही, भारत में अगर काफी लोगों को खाने को नहीं मिलता तो इसका कारण अनाज की कमी नहीं, हर किसी तक अनाज पहुंचा पाने में असमर्थता और गरीबी के कारण खरीदने की क्षमता का न होना है.

लोग खेती में जुटे रहें और गांव के लोग गांव में ही बने रहें, ये सरकारों की बहुत पुरानी नीति है. नरेगा के जरिए अक्सर अनुत्पादक कामों के लिए लोगों को भुगतान किया जाता है ताकि किसी तरह से गांव के लोग वहीं बने रहें. इससे अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं होता और न ही लोगों की गरीबी ही दूर होती है.

इन नीतियों पर चलते हुए दशकों बीत चुके हैं. अगर इनसे भारत को विकसित देश बनना होता, तो इसके लक्षण इतने साल में नजर आ जाते. ऐसा हो नहीं रहा है. इसलिए जरूरी है कि खेती में ढेर सारे लोगों को फंसाए रखने की नीतियां बंद की जाएं. मेरा सुझाव है कि सरकार ऐसी नीतियां बनाए, जिससे खेती में लगे 80 प्रतिशत तक लोग दो से तीन दशकों में खेती से इतर, अन्य उत्पादक कार्यों में जुड़ जाएं.

ये कोई आसान काम नहीं है, पर नीतियों की दिशा इसी ओर होनी चाहिए. कृषि कानूनों को नए सिरे से लाया जाए और इसके लिए राष्ट्रीय सहमति बनाई जाए. पिछली बार जब इसकी कोशिश की गई तो सरकार इस बारे में राष्ट्रीय सहमति बनाने में नाकाम रही थी. दिल्ली के आसपास के एमएसपी खरीद वाले इलाके के लाभार्थी किसानों के विरोध के कारण सरकार को कृषि कानून वापस लेने पड़े थे. ये बात समझनी होगी कि कृषि सुधारों को प्राथमिकता के आधार पर लागू करना ही होगा.

अगर ऐसा होता है तो किसानी के अलाभकारी कामों में लगे करोड़ों लोग उन क्षेत्रों में जाएंगे, जिनका देश की जीडीपी में ज्यादा योगदान है और इस तरह उनकी आमदनी बढ़ेगीऔर जीवन स्तर में भी सुधार होगा. सस्ते खेत मजदूरों का मिलना अगर मुश्किल होगा तो खेती के आधुनिकीकरण का भी रास्ता खुलेगा और उपज भी बढ़ेगी. जाहिर है कि इतना बड़ा बदलाव करना आसान नहीं है. इसलिए लिए करोड़ों लोगों का कौशल विकास करना होगा तथा औद्योगीकरण को बढ़ावा देना होगा ताकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार का सृजन हो.

दुनिया के अनुभवों से सीखे भारत

दुनिया के कई देश ऐसे हैं जहां कम लोग ज्यादा उपज पैदा कर रहे हैं. इसका सबसे सफल तरीका खेती का आधुनिकीकरण और मशीनों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना है. दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएं प्रेसिसन फॉर्मिंग की तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं, जिसमें स्थान और समय की जरूरतों के हिसाब से खेती का तरीका तय किया जाता है. इसलिए लिए तमाम तरह के आंकड़ों, उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों और इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का प्रयोग होता है. सिंचाई की पद्धति भी ऑटोमैटेड की जा सकती है. इन सबसे कम क्षेत्र में ज्यादा उपज लेना संभव हुआ है.

ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों में विशाल खेतों में बड़े पैमाने पर खेती का प्रयोग सफलतापूर्वक किया गया, जिसके अच्छे परिणाम आए. ऐसे खेतों में आधुनिक तरीके से मशीनों से खेती करना संभव होता है और ज्यादा लोगों की जरूरत भी नहीं पड़ती.

ग्रीनहाउस खेती, वर्टिकल फार्मिंग, और हाइड्रोपोनिक्स जैसी नई तकनीक के इस्तेमाल से नीदरलैंड जैसे देश कृषि उपज के निर्यात में ग्लोबल लीडर बन चुके हैं. सवाल है कि क्या भारत के नीति नियंताओं की नजर इस ओर है?

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः बेटी की हत्या की आरोपी इंद्राणी मुखर्जी बोलीं, ‘मां की अंतरात्मा कहती है कि शीना अभी भी जिंदा हैं.’ 


 

share & View comments