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Friday, 22 November, 2024
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BSP की वजह से यूपी के दलितों का आत्मविश्वास बढ़ा. इसलिए वे आज BJP को वोट दे रहे हैं

बीजेपी के लिए दलित वोट को अम्बेडकरवादी लक्ष्यों से एक कदम पीछे हटने के रूप में देखा जाता है. नई किताब माया मोदी आजाद: दलित पॉलिटिक्स इन द टाइम ऑफ हिंदुत्व बसपा के पतन की व्याख्या करती है.

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1990 का दशक एक राजनीतिक और जातीय क्रांति का दशक था. उत्तर प्रदेश में दलित सभी बाधाओं के बावजूद सार्वजनिक स्थानों पर नीले रंग की अम्बेडकर की मूर्तियां बना रहे थे और अपनी बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी को वोट दे रहे थे. दो दशक बाद, कई भारतीय पूछ रहे हैं कि ‘अब वह क्रांति कहां है’?

बसपा ढलान पर है और राज्य के दलित योगी आदित्यनाथ, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा को वोट दे रहे हैं.

कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों और बसपा प्रशंसकों ने यूपी के दलितों के मतदान व्यवहार में इस महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव को लगभग विश्वासघात की भावना के साथ देखा है.

2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से यह सवाल विशेष रूप से कई बार उठा है. यह विद्वान सुधा पई और सज्जन कुमार की ‘माया मोदी आजाद: दलित पॉलिटिक्स इन द टाइम ऑफ हिंदुत्व’ नामक नई किताब का विषय भी है.

दोनों लेखकों के अनुसार, इसका उत्तर यह है कि यह एक स्वाभाविक अनिवार्यता है, और जरूरी नहीं कि इस पर शोक मनाने के लिए कोई नकारात्मक विकास हो. यह एक आत्मविश्वासी, मध्यवर्गीय दलित की भी निशानी है जो किसी एक राजनीतिक दल या नेता का आभारी नहीं है.

नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी के फेलो सज्जन कुमार ने इस सप्ताह नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पुस्तक लॉन्च के दौरान कहा, “अन्य विशेषाधिकार प्राप्त और बेहतर-संपन्न समुदायों की तरह, जो एक पार्टी से दूसरे में स्थानांतरित हो जाते हैं, दलित भी उसी आत्मविश्वास को अपना रहे हैं. इसलिए विखंडन पर शोक मनाने के बजाय, हमने इसे समझाया है और एक तरह से इसका जश्न मनाया है.”

मोदी के भारत में दलित राजनीतिक व्यवहार में इस बदलाव में कोई असाधारणता नहीं है. रिपब्लिकन पार्टी और यहां तक ​​कि डोनाल्ड ट्रम्प को अफ्रीकी अमेरिकी समर्थन के बारे में भी इसी तरह के प्रश्न पूछे गए हैं. और भारतीय एलजीबीटीक्यू+ समुदाय द्वारा मोदी को वोट देने के बारे में भी.

सदमा और विश्वासघात इस अपेक्षा से उत्पन्न होता है कि एक हाशिए पर पड़ा समुदाय क्रांति और आंदोलन मोड में स्थिर रहेगा. यह समूह का एक प्रकार का आकर्षण है. इसलिए भाजपा के लिए दलित वोट को मोटे तौर पर एक आंदोलन के लाभ के उलट या अंबेडकर-वादी लक्ष्यों से एक कदम पीछे हटने के रूप में देखा जाता है.

लेकिन किसी आंदोलन में प्रतीकात्मक लाभ के बाद क्या आता है, इसके बारे में सवाल सार्वभौमिक हैं – पद-गरिमा, उत्तर-नागरिक अधिकार, उत्तर-मध्यम वर्ग और उत्तर-संपन्नता?


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अर्थशास्त्र की पहचान

किताब कहती है कि बसपा का उदय दलित मध्यम वर्ग के निर्माण के चार दशकों में हुआ, जो मुख्यतः आरक्षण नीतियों के परिणामस्वरूप हुआ. लेकिन विडंबना यह है कि इसकी गिरावट गरिमा और आत्म-पुष्टि के एजेंडे की सफलता का एक तार्किक परिणाम भी है.

एक दशक की पहचान की राजनीति के कारण यूपी में 1990 के दशक के वैश्वीकरण का प्रभाव देर से आया; और जब ऐसा हुआ, तो सामाजिक न्याय की इच्छा ने स्वाभाविक रूप से आर्थिक आकांक्षाओं को जन्म दिया. यहीं पर बसपा लड़खड़ा गई, वह एक आंदोलनकारी, क्रोधित पार्टी से आर्थिक अवसरों वाली पार्टी में तब्दील नहीं हो सकी.

जेएनयू की प्रोफेसर सुधा पई ने कहा, “जब तक मायावती ने अपने सर्वजन प्रयोग का प्रयास किया, तब तक उन्होंने दलितों के बीच इतनी उम्मीदें जगा दी थीं, जितनी पार्टी पांच साल में पूरी नहीं कर सकती थी.” उन्होंने कहा, आज, आर्थिक आकांक्षा और हिंदू सांस्कृतिक एकीकरण, बसपा के बाद के चरण में यूपी में नई दलित राजनीति को चला रहे हैं.

लोकतंत्र की सामाजिक गहराई और विश्वास, जो बसपा ने शुरू किया, उसने समुदाय को राजनीतिक विकल्प और एजेंसी के युग में पहुंचा दिया है. बसपा को सामूहिक रूप से वोट देने के बजाय, समुदाय अब राजनीतिक रूप से विखंडित हो रहा है – उप-क्षेत्रीय (पूर्वाचल, बुंदेलखंड और पश्चिमी यूपी), पीढ़ीगत और उप-जाति श्रेणियों (जाटव, खटीक, पासी, वाल्मिकी) में.

एक सामरिक बदलाव

कई लोगों को उम्मीद थी कि उत्तर में अंबेडकरवादी दलित आंदोलन के दो दशक तमिलनाडु में पेरियार के आत्म-सम्मान आंदोलन के प्रक्षेप पथ को प्रतिबिंबित करेंगे. यह और बात है कि नास्तिक अभियान ज्यादा दूर तक नहीं चला. दरअसल, जब राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया गया था, तो उन्हें पर्याप्त दलित नहीं माना गया था क्योंकि वह हिंदुत्व के साथ सहज थे. यह नई किताब दलित पहचान और धर्म के इस द्विआधारी को खारिज करती है.

सज्जन कुमार ने कहा, “आज जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता का सवाल उठाया जा रहा है और फिर ओबीसी और दलितों के निम्नवर्गीय समुदाय से धर्मनिरपेक्षता को चुनने की अपेक्षा की जाती है, उससे यह बात गायब हो जाती है कि धार्मिकता के कई तरीके हैं. और हिंदुत्व आवश्यक रूप से कर्मकांडीय और ब्राह्मणवादी धार्मिकता का पालन नहीं कर रहा है. अक्सर, यह लोक धार्मिकता को पूरा करने के लिए तैयार रहता है, जिसकी प्रतिध्वनि निम्नवर्गीय समुदाय के बीच अधिक होती है.”

किताब में कहा गया है, “तीन दलित समुदायों- पासी, मुसहर और निषाद- को रामायण और राम से जोड़कर विशेष रूप से निशाना बनाया गया.” “हम यूपी में जो देख रहे हैं वह ‘राजनीतिक रूप से प्रेरित सांस्कृतिक परिवर्तन’ है.”

लेखकों द्वारा उठाया गया दूसरा बड़ा सवाल यह है कि दलित एक ओर तो अत्याचारों का विरोध कैसे करते हैं, लेकिन चुनाव होने पर भाजपा को वोट भी देते हैं. यह वैसा ही है जैसे जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के महीनों बाद और पूरे अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर विरोध प्रदर्शन शुरू होने के बाद अमेरिकी कितने हैरान थे, कुछ अश्वेत लोगों ने बावजूद इसके 2020 में ट्रम्प को वोट दिया. इससे पता चला कि “जागृत” होने के बीच एक खाई मौजूद है. द अटलांटिक का एक लेख यह बताता है कि आम दुनिया और वामपंथी दल नस्लवाद की समस्या को अलग-अलग तरह से देखते हैं. और मतदाताओं के लिए नीति “नस्ल और नस्लवाद पर बयानबाजी” से अधिक मायने रखती है.

उत्तर प्रदेश में, आज भी दलितों के खिलाफ हिंसा के लिए अक्सर गांवों में प्रमुख जाति समूहों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, आवश्यक रूप से भाजपा को नहीं. इसलिए, भाजपा की ओर बदलाव सामरिक है – समाजवादी पार्टी द्वारा प्रोत्साहित ओबीसी से एक प्रकार की सुरक्षा, जो दलितों के उत्थान के विरोधी हैं – और वैचारिक भी.

दलित मतदान व्यवहार में इस बदलाव को समझाने का एक लोकप्रिय तरीका यह है कि उन्हें मोदी और योगी की कल्याणकारी मुफ्त योजनाओं का लाभ मिल रहा है – यानी वे लाभार्थी समुदाय या ‘लाभाार्थी’ हैं.

जेएनयू के प्रोफेसर सुरिंदर सिंह जोधका ने कहा, ‘लाभार्थी’ एक अपमानजनक शब्द है, और निर्भरता की संरचना बनाता है. “यह लंबे समय तक नहीं चलेगा.” इस बात पर दर्शकों ने खूब तालियां बजाईं.

दूसरी बार तालियों की गड़गड़ाहट तब गूंजी जब राजनेता सुधींद्र कुलकर्णी ने कहा कि एक अलग दलित शक्ति द्वारा अलग राजनीति बनाने की उम्मीद विफल होनी तय है. “बीएसपी को जिसने हराया वह भारत की विविधता थी. और यही विविधता एक दिन बीजेपी को भी हरा देगी.”

(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट में ओपिनियन और ग्राउंड रिपोर्ट संपादक हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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