हिंदी मीडिया की अपनी आदतन छानबीन के क्रम में पिछले दिनों मैं भूले-बिसरे दिनों के कवि प्रदीप का एक गाना पढ़कर थोड़ा ठिठक गया. फिल्मी पर्दे पर बीते दौर के ‘जुबली कुमार’ राजेंद्र कुमार द्वारा मन्ना डे के स्वर में गाया यह गाना है- ‘झांक रहे हैं अपने दुश्मन, अपनी ही दीवारों से, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से.’ यह गाना हमारे भीतर छुपे देशभक्त को चेताता है-होशियार! तुमको अपने कश्मीर की रक्षा करनी है!! यह गाना महेश कौल की फिल्म ‘तलाश’ का है, जिसे 1958 में फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामजद किया गया था. आज यह गाना देश के मुख्य भाग में होने वाली चर्चाओं में क्यों दोहराया जा रहा है?
आप ढूँढेंगे तो यह संदर्भ भी मिलेगा कि पंडित नेहरू को यह गाना इतना नापसंद था कि उन्होंने इस पर रोक लगवा दी थी, क्योंकि इससे यह आभास होता था कि कई भारतीय ही हमारे दुश्मन हैं. वैसे, 1965 में युद्ध के दौरान लालबहादुर शास्त्री ने इस पर से रोक हटा दी थी. तथ्य भले ही कुछ भी कहते हों, अब तर्क यह दिया जा रहा है कि जब दुश्मन दहलीज पर पहुंच चुका है और लाखों देशद्रोही हमारे ही घरों में छिपे बैठे हैं तब यह गाना फिर आज कितना प्रासंगिक हो गया है!
साठ वर्षों में, ढाई युद्ध जीतने और पाकिस्तान के दो टुकड़े करने तथा 2.7 खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने के बाद आप तो यही सोचेंगे कि अब हम इतने सुरक्षित, समृद्ध और आशावादी बन चुके हैं कि अतीत के डरों से मुक्त हो सकें.
लेकिन हिंदी पट्टी से लेकर दक्षिण तक भारत के बड़े हिस्से का दौरा करने के बाद मैं बड़ी विनम्रता से यही खबर दूंगा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह इससे ठीक उलटा ही हासिल कर पाए हैं. आज जबकि भारत को भीतर और बाहर से खुद बिलकुल सुरक्षित महसूस करना चाहिए, हमारे ये नेता मतदाताओं के बड़े तबकों, खासकर लाखों युवाओं को, जो अपना इतिहास व्हाट्सअप से पढ़ते हैं और यह मान बैठे हैं कि देश 2014 के बाद अंधे युग से बाहर आ गया है, यह यकीन दिलाने में सफल हो चुके हैं कि हमारे दादा-नाना के दौर के खतरे फिर मंडराने लगे हैं. इन खतरों से लड़ने के लिए एक ऐसे मजबूत, आक्रामक और निडर नेता के सिवाय और क्या चाहिए, जो कमांडो को सर्जिकल स्ट्राइक के लिए या दुश्मन के इलाके में बमबारी के लिए अपने विमान भेजने से पहले कोई अगर-मगर न सोचे?
जबकि, आर्थिक स्थिति और रोजगार के हालात निराशाजनक हैं और संकट इतना गहरा है कि उसे किसी प्रोपगंडा से ‘दुरुस्त’ नहीं किया जा सकता, तब हमें यही लग रहा था कि मोदी-शाह जोड़ी इस चुनाव को ‘देश खतरे में है’ वाले राष्ट्रीय सुरक्षा चुनाव में तब्दील कर देगी. आज हम यही कह सकते हैं कि वे इसमें सफल हो रहे हैं.
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राष्ट्रीय सुरक्षा चुनाव बनाने की तीन शर्तें हैं. पहली यह है कि राष्ट्रहित की एक उग्र, उन्मादी परिभाषा गढ़ी जाए. दूसरी, एक ऐसा भयानक विदेशी दुश्मन गढ़ा जाए जिससे एक सच्चा राष्ट्रवादी नफरत करे, डरे. और सबसे अहम शर्त यह है कि इस दुश्मन से साठगांठ करने वाले, उसके हमदर्द देश के भीतर मौजूद हों. तब आप उन लोगों के खिलाफ वोट मांगने जा सकते हैं जिनका न तो कोई नैतिक समर्थन कर सकता है और न राजनीतिक समर्थन. इसे ध्रुवीकरण की राजनीति कहना काफी नहीं है. यह कहीं ज्यादा द्वेषपूर्ण, कहीं ज्यादा मारक है.
राष्ट्रहित की इस तरह की लोकलुभावन अवधारणा को तैयार करने के लिए सबसे पहले तो पहचान की कहीं तीखी परिभाषा चाहिए. अमेरिकी रणनीतिकार, हारवर्ड प्रोफेसर जोसेफ नाइ जूनियर ने ‘फ़ोरेन पॉलिसी’ में लिखा है कि राष्ट्रहित ‘एक फिसलन भरी अवधारणा है जिसका उपयोग विदेश नीति का वर्णन करने के लिए भी किया जाता है और उसे तय करने के लिए भी.’ उन्होंने सेमुएल हंटिंगटन को उदधृत करते हुए कहा है कि ‘राष्ट्रीय पहचान के सुरक्षित बोध के बिना’ आप अपने राष्ट्रहित को परिभाषित नहीं कर सकते.
मैं दावा कर सकता हूँ कि आप समझ गए होंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ. लेकिन मान लें कि आप अंदाजा न लगा पाए हों तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि वह पहचान जो है वह हिन्दू की है, जो भारतीय राष्ट्रवाद का मूल है. जो हिन्दू के लिए अच्छा है वह भारत के लिए भी अच्छा है, और बेहतर यही होगा कि इसका उलटा भी सच हो. अगर ऐसा नहीं है तो इसे ऐसा बनाने की जरूरत है. और गैर-हिंदुओं के लिए? बेशक, उनके लिए भी यही अच्छा होगा. अगर वे शिकायत करते हैं या इसे कबूल नहीं करते तो वे खुद को उदारवादी, घायल दिल वालों, शंकालु पत्रकारों, एक्टिविस्टों, ‘आदतन’ विरोध करने वालों, और ‘शहरी नक्सलियों’ की गद्दार जमात में शामिल किए जाने का खतरा मोल लेंगे. अपने बेडरूम और किचन में छिपे गद्दारों को ओर से सावधान रहने की कवि प्रदीप की चेतावनी को जरा याद कर लीजिए.
मोदी-शाह की जोड़ी ने इस चुनाव अभियान को इसी तरह आगे बढ़ाया है. विपक्ष न्याय, राफेल, धर्मनिरपेक्षता, समानता आदि के मुद्दों को उठाकर मुक़ाबले को अलग रंग देने में जुटा है. यह ऐसा है जैसे एक पक्ष फौजी धुन पर मार्च कर रहा है, तो दूसरा पक्ष तानपुरा पर राग अलाप रहा है. वे सारे मुद्दे बेशक महत्वपूर्ण हैं लेकिन तभी बचेंगे जब देश बचेगा. और जब देश के ऊपर गंभीर खतरे मंडरा रहे हों तब आप देश को किसके हाथ में सौंपेंगे? एक आजमाए हुए, निर्णायक, मजबूत नेता के हाथों में या एक ‘पप्पू’ के हाथों में, जो आपको कभी नज़र आता है और कभी लापता हो जाता है?
हालांकि, कोई सर्व-विजेता राष्ट्रवादी लहर तो नहीं है देश में, मगर यह इतनी मजबूत तो है ही कि आर्थिक तकलीफ़ों और असंतोष को कुछ हद तक फीका कर सके. देश के अंदरूनी हिस्सों में आपको ऐसे युवा, बेरोजगार, काफी हताश लोग मिलेंगे जो यह कहते पाए जाएंगे कि बेशक हम तकलीफ में हैं तो कोई बात नहीं, देश के लिए थोड़ी तकलीफ सह सकते हैं. दूरदराज़ के इलाकों में इस चुनावी माहौल में, अपनी हताशा को कुछ देर के लिए भुला देने की भावना से भरे ऐसे कई लोगों से मिलने के लिए बहुत प्रयास करने की जरूरत नहीं है. हमें इस तरह की भावना बेतुकी और हास्यास्पद लग सकती है मगर इससे वास्तविकता बदल नहीं सकती.
दूसरी चीज़ है-पहचान. इसको लेकर लहर उन जगहों पर आम तौर पर कमजोर है, जहां ऐसी आबादी ज्यादा है जिसकी राजनीतिक पहचान को तय करने वाले तत्व हिंदुत्ववादी भावना से ज्यादा मजबूत हैं. यह तत्व जाति हो सकती है, जैसा कि कर्नाटक में वोक्कलिगों के मामले में है या हिंदी पट्टी में यादवों और दलितों के मामले में है. यह तत्व भाषा तथा क्षेत्रीयता हो सकती है, जैसा कि तमिल और तेलुगु क्षेत्रों में हैं. या यह धर्म भी हो सकता है, जैसा कि मुस्लिमों और ईसाइयों के मामले में है. जहां भी इनमें से कुछ तत्वों का मेल हो जाता है, जैसा कि खासकर उत्तर प्रदेश में है, वहां इस तरह की लहर को काटा जा सकता है.
यही वजह है कि सबसे ज्यादा घाटा कांग्रेस को हो रहा है. कई क्षेत्रीय दलों के विपरीत, इसे वैकल्पिक पहचानों की कवच नहीं हासिल है. राहुल के दौर में इसने मजबूत, उग्र राष्ट्रवाद से लड़ने के लिए जो उदारपंथी शांतिवाद का हथियार चुना है वह खासकर इसलिए विश्वसनीय नहीं बन पाता क्योंकि खुद इसका इतिहास एक क्रूर, निर्मम शासन भी चलाने का रहा है. अगर आप यह सोचते हैं कि भाजपा ‘दुश्मनों और गद्दारों’ के नाम पर जो मुहिम चला रही है उसे आप देशद्रोह से संबंधित कानून को खत्म करने के वादे से बेअसर कर देंगे तो आप मुगालते में हैं और आपको पता नहीं है कि आपकी लड़ाई किस चीज़ से है.
मोदी-शाह की जोड़ी ने युवा मतदाताओं के बड़े तबके के मानस में सिर्फ उन्मादी राष्ट्रवाद की भावना ही नहीं भर दी है, एक खतरनाक अंधराष्ट्रीयता भर दी है. और इतिहास बताता है कि यह लोगों के दिमाग से कभी पूरी तरह खत्म नहीं होती. दुश्मनों की पहचान कर ली गई है, हथियारों का चुनाव कर लिया गया है- पाकिस्तानियों के लिए जेट विमान और कमांडो देश के भीतर बैठे गद्दारों के लिए झूठे लांछन और सोशल मीडिया पर ‘लिंचिंग’.
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कवि प्रदीप ने जिस खतरे और दुश्मन की पहचान की थी और जिन्हें हमने सोचा था कि खत्म कर दिया है, उन्हें फिर से जिंदा कर दिया गया है और इसकी सबसे पहले पहचान हिंदी प्रेस ने की है. साठ साल बाद आज जो मूड है उसे पकड़ा है एक युवा कवि ने, जो बेशक अलग पीढ़ी और शैली (रैप) का है.
जरा रणवीर सिंह-आलिया भट्ट की फिल्म ‘गलीब्वाय’ के इस जिंगो को तो सुनिए— ‘दो हज़ार अट्ठारह है, देश को खतरा है, हर तरफ आग है, तुम आग के बीच हो, ज़ोर से चिल्ला दो, सबको डरा दो, अपनी जहरीली बीन बजा के, सबका ध्यान खींच लो…’
क्योंकि, इसका रैपर कहता है, हम जिंगोस्तान में रह रहे हैं.
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