किसी भी मुख्यमंत्री के लिए ऐसा करना जरूरी नहीं होता. मुख्यमंत्री सामान्यत: य़े करते भी नहीं हैं. चुनावी मौसम में भी नहीं. जिस आदिवासी व्यक्ति के ऊपर पेशाब किए जाने की घटना हुई थी, उस मामले का प्रशासनिक तरीके से भी निपटारा हो सकता था. अपराधी पर कानूनी कार्रवाई और पीड़ित को नियमानुसार राहत देकर भी किसी सरकार का काम चल जाता. इससे ज्यादा कुछ करने की कोई मजबूरी नहीं थी. किसी मुख्यमंत्री ने कभी ऐसा नहीं किया जो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया. शिवराज सिंह चौहान ने ये काम सावरकरवादी विराट हिंदुत्व की परियोजना के तहत किया है.
शिवराज सिंह ने इसे प्रशासनिक और सामाजिक-व्यक्तिगत गलती के तौर पर देखा और पीड़ित आदिवासी युवक दसमत रावत को बुलाकर उसके पैर धोए और माफी मांगी.
इस मामले में विभिन्न प्रशासनिक कार्रवाइयां हो चुकी हैं. प्रवेश शुक्ला को आदिवासी युवक के सिर पर पेशाब करने के जुर्म में गिरफ्तार किया जा चुका है. अपराधी युवक के खिलाफ एससी-एसटी उत्पीड़न निरोधक कानून तथा अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उसे जेल में भेज दिया है. साथ ही उसके घर के गैरकानूनी तरीके से बने हिस्से को बुलडोजर चला कर गिरा दिया गया.
पैर धोने से मिलती-जुलती एक घटना या आयोजन फरवरी 2019 में हुआ था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुंभ मेले के दौरान इलाहाबाद आए थे और वहां उन्होंने दो महिलाओं समेत पांच सफाईकर्मियों के पैर धोए थे. इस मौके पर उन्होंने कुंभ को साफ सुथरा रखने में उनके योगदान की सराहना की थी और इसे “कर्म योग” कहा था.
हालांकि ये दो घटनाएं देखने में समान लगती हैं और कोई कह सकता है कि दोनों चुनाव के आसपास हुई थीं, लेकिन जहां प्रधानमंत्री हिंदू धर्म की लंबे समय से चली आ रही छुआछूत की समस्या पर प्रहार कर रहे थे, वहीं शिवराज सिंह चौहान एक तात्कालिक घटना पर शासन की ओर से अपना वक्तव्य या पक्ष रख रहे थे. इसका अलग से महत्व ये है कि जिस व्यक्ति का उन्होंने पैर धोया वह अत्याचार से पीड़ित था और पूरे समुदाय को इस घटना से सदमा लगा था. दोनों ही घटनाएं समुदायों की गरिमा बहाल करने के लिए महत्वपूर्ण हैं. लेकिन दूसरी घटना को मैं ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए मानता हूं क्योंकि इसमें सदमा तात्कालिक था और घाव गहरे थे. ये योजना के तहत हुआ आय़ोजन नहीं था.
हालांकि ये सावरकरवादी हिंदुत्व की योजना के तहत किया गया काम है, पर मेरी दृष्टि में ये राष्ट्र निर्माण का वह उद्यम भी था, जिसमें साझा दुख और सहानुभूति को प्राथमिकता दी गई.
राजनीति विज्ञान और दर्शनशास्त्र में राष्ट्र निर्माण में साझा दुख को एक महत्वपूर्ण पहलू माना जाता है. जब किसी व्यक्ति या समुदाय के दुख में राज्य के प्रशासन का मुखिया खुद को शामिल करे तो इसका सीधा असर प्रशासन पर पड़ता है. उसे ये सीधा संदेश जाता है कि राज्य का मुखिया ऐसी किसी भी घटना को लेकर गंभीर है और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता. किसी आपराधिक घटना को होने से पहले रोक पाना हमेशा संभव नहीं है लेकिन प्रशासन के प्रमुख की राय अगर स्पष्ट हो तो प्रशासन दोषी को सजा दिलाने की कोशिश जरूर करता है और इस बात का भी प्रयास करता है कि आगे ऐसी कोई घटना न हो.
शिवराज सिंह के इस कदम का असर समाज पर भी व्यापक रूप से होगा. आदिवासियों के प्रति कैसा व्यवहार नहीं करना है, इसकी एक मर्यादा रेखा शिवराज सिंह ने खींच दी है. खुद एक आदिवासी के पैर धोने, उनके साथ समय बिताने और खाना खाने आदि से समाज में ये असर जा सकता है कि जब राज्य के मुख्यमंत्री ऐसा कर सकते हैं, तो ये करने लायक चीज है.
इसलिए मेरा मानना है कि इस वाकये को चुनावी राजनीति से जोड़कर न देखा जाए. इसका असर एक विधानसभा चुनाव से कहीं ज्यादा दूर तक होगा.
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पेशाब प्रकरण की समाजशास्त्रीय व्याख्या
इस घटना को तमाम तरीके से देखा जा रहा है. मेरी मान्यता है कि इसे शासन, मीडिया और न्यायपालिका में ब्राह्मण जाति और कुल मिलाकर सवर्ण वर्चस्व के नतीजे के तौर पर भी देखा जाना चाहिए. भारत की उच्च नौकरशाही, न्यायपालिका और मीडिया में सवर्ण वर्चस्व एक तथ्य है, सवर्णों में भी ब्राह्मण जाति इस सत्ता प्रतिष्ठानों में बहुत बड़ी संख्या में है. मिसाल के तौर पर, राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के उच्च पदों को लेकर किए गए सर्वे के मुताबिक 49 प्रतिशत पदों पर वहां ब्राह्मण हैं.
कोई एक वर्ग या समूह जब सत्ता प्रतिष्ठानों में इस हद तक वर्चस्वशाली हो जाता है, तो उस वर्ग के युवाओं को ये लग सकता है कि वे जो चाहे कर सकते हैं और कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि अपने लोग सब जगह बैठे हैं.
दरअसल कानून का एकमात्र काम गलत करने वाले को सजा देना नहीं है. कानून का एक काम गलत करने की सोचने वालों के मन में भय उत्पन्न करना भी है. कानून में निषेध की शक्ति भी है. लेकिन अगर कोई समुदाय या उसके कई लोग आश्वस्त हो जाएं कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, तो ये कानून के राज के अंत की शुरुआत है. ये समानता के सिद्धांतों के भी खिलाफ है क्योंकि यही आश्वस्ति, यही भरोसा अन्य वर्ग के लोगों को नहीं होता.
प्रवेश शुक्ला का अपराध करते समय बेफिक्र और बेपरवाह होना ये दिखाता है कि सत्ताधारी दल और प्रभावशाली सामाजिक समूह का सदस्य होने के कारण उसका आत्मविश्वास अहंकार की हदें लांघ गया था. उसे इस बात की भी परवाह नहीं थी कि उसके कुकृत्य का वीडियो बनाया जा रहा है.
इसका दूसरा पहलू ये है कि पीड़ित पक्ष को कानून पर इतना कम भरोसा था कि उसने इस मामले को लेकर शिकायत दर्ज करने या उच्चाधिकारियों से मिलने की कोशिश भी नहीं की. भारत में लोकतंत्र का उसके लिए वह मतलब नहीं है जो प्रवेश शुक्ला के लिए है. वंचित समुदायों के बीच लोकतंत्र के प्रति विश्वास का कम होना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छी खबर नहीं है. ये विश्वास लोकतंत्र की बुनियाद है और निस्संदेह इस प्रकरण में हम इस बुनियाद को कमजोर पड़ते देख सकते हैं.
बॉलीवुड का विलेन और समाज की हकीकत
बॉलीवुड का विलेन शुरुआती नेहरूवादी समाजवाद के दौर में मिल मालिक हुआ करते थे. आगे चलकर सबसे ज्यादा विलेन गांव के ठाकुर या सामंत की शक्ल में दिखाए जाने लगे. ठाकुर का विलेन बनना इतना सामान्य हो गया कि क्षत्रिय जाति की यह छवि समाज में भी रूढ़ हो गई.
हाल ही में एक वेबसाइट ने ठाकुर विलेन की एक लंबी लिस्ट छापी है, जिसमें इस जाति के विभिन्न नकारात्मक और खलनायकी वाले किरदार सामने आते हैं. इन विलन में राम तेरी गंगा मैली के भागवत चौधरी दुष्ट और दलाल है, डांस-डांस का राजबहादुर ए.एम सिंह बलात्कारी और हत्यारा है, आज का अर्जुन फिल्म का ठाकुर भूपेंद्र सिंह अत्याचारी और हत्यारा है, करण अर्जुन का ठाकुर दुर्जन सिंह बदमाश और हत्यारा है, और शौर्य का ब्रिगेडियर रुद्र प्रताप सिंह अत्याचारी और कानून का उल्लंघन करने वाला है. गुलाल का दुकी बना, दंबग-2 का ठाकुर बच्चा लाल और गैंग्स ऑफ वासेपुर का रामाधीर सिंह भी गुंडा-मवाली-बदमाश है.
लेकिन समाज की हकीकत इससे मेल नहीं खाती. अब विलेन घोड़े पर चढ़कर नहीं आते. ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था के क्षय के कारण गांवों की अमीरी और रूतबा घटा है और जमीनों के मालिकों की पहले वाली हैसियत नहीं रह गई है. काफी सामंत अब गांव की जमीन बेचकर शहर आ चुके हैं या जमीन बटाई पर दे चुके हैं. साथ ही उच्च नौकरशाही, मीडिया और न्यायपालिका में भी उनकी कोई हनक नहीं बन पाई है. ऐसी हालत में ठाकुर डॉन के लिए टिक पाना आसान नहीं रह गया है.
उत्तर भारत में इस बीच हमने ब्राह्मण डॉन की एक नई जमात को उभरते और ठाकुर डॉन की जगह लेते देखा है. श्रीप्रकाश शुक्ला और विकास दुबे का नाम यूं ही चमक कर नहीं आया है. बिहार में भूमिहार ब्राह्मणों के बीच कई डॉन उभरकर आए हैं. दरअसल किसी भी डॉन का लंबे समय तक टिका रहना खासकर न्यायपालिका और अफसरशाही के प्रत्यक्ष या प्रछन्न (दबा- छुपा) समर्थन से ही संभव है. साथ ही मीडिया की भूमिका डॉन की छवि चमकाने या उसे ज्यादा खूंखार बताने आदि में होती है. ये सब ठाकुर डॉन से छिन चुका है.
दरअसल मध्य प्रदेश की घटना हमारे सोचने के लिए कई दरवाजे खोलती है. इससे पैदा हुए कई विवाद और मसलों को हम आगे भी लोकविमर्श में स्थान लेते देख सकते हैं.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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