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Friday, 15 November, 2024
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2024 के चुनाव से पहले मोदी और BJP के लिए गहरा रहा संकट, क्या हिंदुत्व का मुद्दा नैया पार करा पाएगा

कर्नाटक चुनाव में हार, बालासोर त्रासदी, पहलवानों का विरोध और जैक डोर्सी की टिप्पणियां सभी एक के बाद एक तेजी से सामने आई हैं. मोदी सरकार की अपराजेयता चकनाचूर हो रही है.

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यह तथ्यों का सामना करने का वक्त है. कर्नाटक चुनाव में हार के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार के लिए वास्तव में कुछ खास अच्छा नहीं रहा है. मुख्यधारा के मीडिया पर अपने ‘प्रभाव’ के बावजूद, जिसके माध्यम से वह न केवल अपनी बात रखती है, बल्कि किसी भी विरोधी विचार का दमन भी सुनिश्चित करती है, सरकार एक निश्चित छाप को जनता की कल्पना पर कब्जा करने से रोकने में असमर्थ रही है.

धारणा यह है कि आखिर मोदी सरकार सर्वशक्तिमान और अपराजेय नहीं है. यह चुनाव हार सकती है. यह गलतियां कर सकती है. इसे बदलाव करने होंगे. यह दबाव के आगे झुक सकती है. और यह किसी भी अन्य सरकार की तरह ही अप्रत्याशित घटनाओं की दया पर निर्भर है.

क्या यह एक बड़ी बात है? सामान्य तौर पर तो नहीं. हम ज्यादातर सरकारों से सर्वशक्तिमत्ता की उम्मीद नहीं करते हैं. लेकिन इस सरकार के लिए हां, यह बहुत बड़ी बात है. कुछ समय पहले तक, हम में से अधिकांश को यह विश्वास था कि मोदी सरकार हमेशा के लिए सत्ता पर काबिज होकर हर संकट को दूर करेगी, जबकि उसके अक्षम प्रतिद्वंद्वियों ने असहाय होकर संघर्ष किया.

पिछले एक महीने में, मुझे लगता है कि बदलाव शुरू हो गया है. जैसा कि हर एक हफ्ते में एक नई घटना या संकट ने सरकार को झकझोर कर रख दिया है, प्रधानमंत्री मोदी बहुत अधिक मानवीय दिखने लगे हैं.

आप तर्क दे सकते हैं (जैसा कि अब भाजपा करती है) कि कर्नाटक का परिणाम सत्ता विरोधी लहर के कारण अपरिहार्य था. लेकिन प्रचार के दौरान खुद बीजेपी ने इसे ऐसा नहीं देखा. उसे विश्वास था कि वह जीत रही है. उसने महसूस किया कि अगर वह कर्नाटक के लोगों से बसवराज बोम्मई सरकार की विफलताओं को भूल जाने और फिर से ‘मोदी मैजिक’ के लिए वोट करने के लिए कहे, तो यह काफी होगा.

यह काम नहीं आया और अब पार्टी की काल्पनिक चुनावी मशीन के बारे में सवाल पूछे जा रहे हैं. हां, भाजपा मध्य प्रदेश में कांग्रेस की तुलना में बहुत बेहतर स्थिति में है, लेकिन क्या विधानसभा चुनाव इतना आसान होने जा रहा है? राजस्थान का क्या? यह कुछ महीने पहले की तुलना में अब कम स्पष्ट लगता है.


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संकटों का अंबार

बीते कुछ महीनों में संकटों का अंबार लग गया है. ओडिशा में बालासोर ट्रेन दुर्घटना एक राष्ट्रीय त्रासदी थी और इसे दलगत राजनीति से ऊपर रखना चाहिए. लेकिन क्योंकि पीएम मोदी भारतीय रेलवे के कायापलट को लेकर मुखरता से बात रखते रहे हैं. ऐसे में उन पर भी सवाल उठने लाजिमी है.

कोविन ऐप से डेटा लीक होने के मामले में भी ऐसा ही है. सरकार की आधिकारिक स्थिति (जहां तक मैं बता सकता हूं) ऐसा प्रतीत होता है कि यह वास्तविक डेटा उल्लंघन नहीं है और जो डेटा लीक हो रहा है वह पिछले उल्लंघन में प्राप्त किया गया था. यह एक ऐसा स्पष्टीकरण है जो शायद ही आश्वस्त करने वाला हो.

लीक मायने रखता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि लोगों को अपनी निजी जानकारी का लीक होना पसंद नहीं है, बल्कि इसलिए कि मोदी सरकार ने हमें बार-बार बताया है कि कैसे कोविन प्लेटफॉर्म से कुछ भी लीक नहीं होगा, कि सरकार तकनीकी रूप से इतनी समझदार है कि हमें अपने डेटा को सुरक्षित रूप से स्टोर करने की इसकी क्षमता के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है.

और फिर राजनीतिक प्रबंधन है जो अचानक भाजपा के लिए इतना अच्छा नहीं चल रहा है. यौन उत्पीड़न के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे पहलवानों की महीनों तक अनदेखी करने, दिल्ली पुलिस द्वारा उन पर हमला होते देखने, सोशल मीडिया पर गालियां खाने और फिर उन्हें उस स्थान से बाहर निकालने के बाद, जहां वे प्रदर्शन कर रहे थे. मोदी सरकार को वो करने के लिए मजबूर होना पड़ा जिससे उसे नफरत है: यानि कि पीछे हटना.

गृह मंत्री अमित शाह ने पहलवानों से मुलाकात की, एक समझौते की रूपरेखा पर बातचीत की गई और खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने बाद में पहलवानों को आश्वासन दिया कि आरोपी बृजभूषण शरण सिंह को भारतीय कुश्ती महासंघ में किसी भी आधिकारिक पद पर रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी. कार्रवाई का वादा किया गया है और मेरा मानना है कि इसका पालन किया जाएगा.

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण मणिपुर की घटना है. जब पूर्वोत्तर के राजनेता भाजपा में शामिल होने या उसके साथ सहयोगी बनने के लिए होड़ में थे, तो सरकार ने घोषणा की कि भाजपा ने अब पूर्वोत्तर को जीत लिया है और इस क्षेत्र में प्रमुख पार्टी बन गई है.

ऐसे में सरकार के आलोचकों से पूछिए कि अमित शाह को मणिपुर का दौरा करने में एक महीना क्यों लगा, जो अब भी जल रहा है? राज्य में भाजपा की सरकार है और हिंसा को रोकने में उसकी विफलता भाजपा के इस दावे का मज़ाक उड़ाती है कि वह जहां भी सत्ता में है, सुचारू और शांतिपूर्ण शासन की गारंटी दे सकती है.

और मानो इतना ही काफी नहीं था, अब ट्विटर के पूर्व सीईओ जैक डोर्सी का दावा है कि किसान आंदोलन के दौरान मोदी सरकार ने ट्विटर से आलोचनात्मक आवाजों को चुप कराने को कहा था. ऐसा न करने पर ट्विटर के कर्मचारियों पर छापेमारी के तौर पर परिणाम हो सकता था. डोर्सी ने दावा किया कि ट्विटर को कई तरह के नकारात्मक परिणामों की चेतावनी दी गई थी.

यह दावा उन लोगों के लिए एक सहज अपील है जो मानते थे कि ट्विटर सरकार विरोधी आवाज़ों को पर्याप्त स्थान नहीं दे रहा था और उनके ट्वीट्स के प्रसार को प्रतिबंधित कर रहा था. इसके अलावा, वही बात उठती है: किसे लाभ हुआ? डोर्सी ने ट्विटर बेच दिया है. भारत में अपने अनुभवों के बारे में झूठ बोलकर उसे कुछ हासिल नहीं होता. दूसरी ओर, सरकार इन दावों को खारिज करने के लिए बाध्य है.

इन मुद्दों पर पीएम मोदी को चिंतित होना चाहिए.


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भाजपा की यूएसपी

भाजपा के पास बेचने के लिए दो प्रमुख प्रस्ताव हैं. पहला, ‘नरेंद्र मोदी को वोट दें, वह सक्षम और एक महान नेता हैं’. बीत कुछ समय में इस यूएसपी पर जरूर कुछ बादल छाए हैं.

इसके अलावा भाजपा के पास दूसरी यूएसपी ही बच जाती है: ‘हम एक हिंदू भारत बनाएंगे!’

ऐसा लगने लगा है कि भाजपा के पास 2024 के लोकसभा चुनाव में इस नारे के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. नए संसद भवन के उद्घाटन पर सेंगोल उत्सवों की कर्मकांडीय प्रकृति- आधुनिक भारत में अभूतपूर्व है जो इस बात का संकेत देती है कि सरकार पहले ही उस राह पर कदम रख चुकी है. अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन अगला महान धार्मिक आयोजन होगा.

क्या मोदी के लिए रिकॉर्ड जीत को बनाए रखने के लिए हिंदुत्व का मुद्दा काफी होगा? पिछले दो महीनों की घटनाओं को देखें तो इस बात की तस्वीर साफ हो सकती है क्योंकि अगर सरकार जल्द ही नैरेटिव पर काबू नहीं पाती है, तो काफी कुछ हाथ से निकल सकता है.

(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और एक टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: कृष्ण मुरारी)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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