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Tuesday, 19 November, 2024
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मणिपुर और अराजकता के बीच केवल सेना ही खड़ी है. सरकार के एप्रोच का रिव्यू करने का वक्त

पूर्वोत्तर में सांप्रदायिक और बहुसंख्यकवादी तर्क लागू नहीं किए जा सकते. इसके लिए धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक शासन की आवश्यकता है, जो जातीय और जनजातीय हितों की रक्षा करता हो.

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पांच हफ्ते की आपसी वर्गगत हिंसा (Ethnic Cleansing) – इंफाल घाटी से कुकीज़ और पहाड़ियों से मैतेई – के बाद  मणिपुर चाकू की नोक पर है. राज्य सरकार, नौकरशाही, पुलिस और सभी राजनेता – जिनमें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लोग भी शामिल हैं – जातीय आधार पर विभाजित हैं. गृहमंत्री अमित शाह ने समझौता करने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए हिंसा को 15 दिनों के लिए रोकने की अपील की है. हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों में छिटपुट हिंसा जारी है. राज्य सरकार निष्क्रिय है, लेकिन राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया गया है. सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, मणिपुर में सुरक्षा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के पूर्व प्रमुख कुलदीप सिंह द्वारा संभाली जा रही है, जिन्हें केंद्र सरकार के कहने पर सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया गया था.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार और 3 जून तक, पिछले महीने पहली बार हिंसा भड़कने के बाद से अब तक 98 लोग मारे जा चुके हैं और 310 घायल हो चुके हैं. आगजनी के 4,014 मामले और 3,734 प्राथमिकी दर्ज की गई हैं. 4,000 से अधिक हथियार और 5 लाख राउंड गोला बारूद लूटे गए हैं, जो कि ज्यादातर इंफाल घाटी में पुलिस थानों/सशस्त्र पुलिस बटालियनों के शस्त्रागार से या बस पक्षपातपूर्ण पुलिस द्वारा सौंपे गए हैं. अब तक केवल 790 हथियार और 10,648 राउंड बरामद किए गए हैं. राहत शिविरों में आंतरिक रूप से विस्थापित 40,000 व्यक्ति हैं.

मणिपुर में जातीय संघर्ष के इतिहास को देखते हुए, इस तरह की अफवाहें चारों तरफ हैं कि इससे कहीं ज्यादा हिंसक दूसरे राउंड की हिंसा हो सकती है. अस्थिर स्थिति उन पूर्व के विद्रोही संगठनों के फिर से उठ खड़े होने के लिए भी अनुकूल है, जिन्होंने या तो सरकार के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं या बस निष्क्रिय पड़े हैं. मणिपुर के एक अराजक राज्य में बदल जाने के बीच केवल एक चीज़ जो खड़ी है, वह है- भारतीय सेना.

उग्रवाद पर सेना की प्रतिक्रिया

केंद्र सरकार और सशस्त्र बलों की दूरदर्शिता को देखते हुए, 1980 के बाद से राज्य में सेना की आतंकवाद विरोधी तैनाती जारी है. 1980 के बाद 30 वर्षों तक, सेना ने तीन अलगाववादी जातीय समुदायों – नागा, मैतेई और कुकी – से लड़ाई लड़ी और अंततः मणिपुर को नियंत्रण में लाया था.

1997 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड – इसाक-मुइवा (NSCN-IM) और 2008 में कुकी के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें सेना और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPFs) की निगरानी में रखे गए शिविरों में विद्रोही चले गए. मैतेई विद्रोहियों ने कभी भी किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए लेकिन निष्क्रिय हो गए. विद्रोही समूहों के अधिकांश हथियारों की तस्करी म्यांमार के रास्ते चीन से की जाती थी.

सेना की 3 कोर के तहत काम करने वाली असम राइफल्स का उग्रवाद ग्रिड काफी हद तक बरकरार है. यह बल भारत-म्यांमार सीमा की भी निगरानी करता है. 3 कोर का 57 माउंटेन डिवीजन भी स्थायी रूप से मणिपुर और नागालैंड में स्थित है. 57 माउंटेन डिवीजन की प्राथमिक भूमिका भारत-चीन सीमा के लिए रिजर्व फॉर्मेशन के रूप में काम करना है. राज्य के 16 जिलों में से सात में स्थित 19 पुलिस थानों को छोड़कर, मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA) अभी भी लागू है.

अपने लंबे अनुभव को देखते हुए, सेना ने मैतेई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के 19 अप्रैल को मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश के बाद राज्य में लगातार बन रही स्थिति पर पैनी नजर रखी थी और 3 मई को हिंसा भड़कने पर उसने तत्काल प्रतिक्रिया दी. किसी अन्य के द्वारा नहीं बल्कि खुद मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के जातीय-आधारित दुष्प्रचार द्वारा उकसाए गए माहौल की उपेक्षा करते हुए, सेना स्थानीय सरकार के तहत ‘एड टू सिविल अथॉरिटी’ मोड में काम कर रही है. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, जनरल अनिल चौहान ने एक स्पष्ट बयान दिया: “मणिपुर की स्थिति का उग्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है और यह मुख्य रूप से दो जातियों के बीच संघर्ष है. यह एक कानून-व्यवस्था की स्थिति है, और हम राज्य सरकार की मदद कर रहे हैं.” 1 जून को टाइम्स नाउ के साथ एक विस्तृत साक्षात्कार में, सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने मणिपुर में कानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए सेना की भूमिका और कार्यों का विवरण दिया.

सीओएएस ने कहा कि 3 मई को हिंसा भड़कने के तुरंत बाद सेना और असम राइफल्स के 130 आंतरिक सुरक्षा कॉलम (8,000-10,000 सैनिकों) को कानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए तैनात किया गया था. वायु सेना की मदद से अतिरिक्त सैनिकों को भेजा गया. 3-5 मई तक अराजकता अपने चरम पर थी, 6-21 मई के बीच कम हुई और उसके बाद अचानक भड़क उठी. कभी-कभी हिंसा भड़कने उठने की वजह से स्थिति वर्तमान में अस्थिर है. सेना लूटे गए हथियारों को बरामद करने के लिए तलाशी अभियान चला रही है. इसके अलावा, सशस्त्र बलों ने 36,000 आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान की है और 21,000 लोगों की देखभाल की है जिन्होंने सेना के शिविरों में शरण ली थी. NH37 और NH2, मणिपुर के दो प्रमुख राजमार्ग जिन्हें इसकी जीवन रेखा माना जाता है, को खुला रखा गया है.

वर्तमान स्थिति सबसे चुनौतीपूर्ण है जिसका सामना सेना ने ‘सिविल अथॉरिटी की सहायता’ में किया है. मैतेई और कुकी के बीच दरार गहरी है. साम्प्रदायिक दंगों के विपरीत, सेना की मौजूदगी के बावजूद, अल्पसंख्यक गांवों पर छापा मारा जाता है और उनमें आग लगा दी जाती है. सीओएएस के अनुसार, महिलाओं के नेतृत्व वाली भीड़ द्वारा परेशानी वाली जगहों की ओर जाने वाली सेना की टुकड़ियों को रोक दिया जाता है, जबकि उन पर पक्षपातपूर्ण आचरण का भी आरोप लगाया जाता है. जब क्षेत्र में सक्रिय 21 मैतेई अधिकारियों के नाम सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए तो सेना को सार्वजनिक रूप से अपनी तटस्थता दोहरानी पड़ी. सेना और पक्षपातपूर्ण पुलिस के बीच टकराव (सेना द्वारा इनकार) की खबरें आई हैं.

पूर्वोत्तर के दृष्टिकोण की समीक्षा करें

मणिपुर में वर्तमान स्थिति को तूफान से पहले की खामोशी कहा जा सकता है. सीओएएस ने टाइम्स नाउ को बताया था कि जैसे-जैसे स्थिति में सुधार होगा ‘एड टू सिविल अथॉरिटी’ मोड की समीक्षा की जाएगी. मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसा किया गया है. जातीय कट्टरपंथियों ने राजनीतिक पर कब्जा कर लिया है. किसी केंद्र शासित प्रदेश या कुकी और नागाओं के लिए एक क्षेत्रीय प्रशासनिक परिषद से कम पर समझौते के फार्मूले के लिए दोनों के तैयार होने की संभावना नहीं है, जो कि मैतेई लोगों के लिए अस्वीकार्य हो सकता है क्योंकि यह उनके ऐतिहासिक मैतेई राष्ट्र की विचारधारा के लिए ताबूत की अंतिम कील साबित होगा. नागाओं ने ऐतिहासिक रूप से नागालिम या बड़े नागा राष्ट्र की मांग की है. एनएससीएन-आईएम का पूरा नेतृत्व मणिपुर की तांगखुल जनजाति से है. हाल ही में मणिपुर के नगा नेता यह सुनिश्चित करने के लिए अमित शाह से मिलने के लिए दिल्ली में गए थे कि नगा किसी भी मणिपुर समझौते से अलग न हों.

जब तक किसी स्वीकार्य समझौते के फॉर्मूले पर सहमति नहीं बन जाती, तब तक जातीय हिंसा का दूसरा दौर अपरिहार्य है. यह दौर एक आभासी जातीय (Ethnic) गृहयुद्ध होगा जहां भीड़ सेना से नहीं बल्कि मिलिशिया ग्रुप से निपटेगी. 4,000 हथियार लूटे गए हैं, जिनमें ज्यादातर मैतेई के पास हैं. सोए हुए मैतेई विद्रोही समूह छिपे हुए हथियारों के साथ फिर से सामने आ सकते हैं. कुकी-ज़ोमी विद्रोही 2008 के समझौते से हट सकते हैं, निश्चित शिविरों से हथियार लूट सकते हैं और सामुदायिक रक्षकों के रूप में फिर से उभर सकते हैं. पारंपरिक नागा-कुकी प्रतिद्वंद्विता और एक-दूसरे के क्षेत्र पर दावों को देखते हुए, नागा भी 1998 के संघर्ष विराम का उल्लंघन कर सकते हैं और मैदान में कूद सकते हैं.

पूर्वोत्तर में अलगाववादी उग्रवाद ने अपनी सत्ता चलाई है और इसके फिर से उभरने की संभावना नहीं है. हालांकि, अगर मणिपुर में पूर्ण रूप से आंतरिक [10] जातीय विद्रोह भड़क उठता है, तो सेना को अपनी तैनाती दोगुनी करनी होगी. ऐसी स्थिति का मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और असम पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा, जो पूर्वोत्तर को चार दशक पीछे धकेल देगा. इससे उत्तरी मोर्चे पर सेना की क्षमताओं पर भी गंभीर असर पड़ेगा.

राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, विशेष रूप से भाजपा के लिए यह विवेकपूर्ण होगा कि वे पूर्वोत्तर के प्रति अपने दृष्टिकोण की समीक्षा करें. इस क्षेत्र में सांप्रदायिक और बहुसंख्यकवादी तर्क लागू नहीं किए जा सकते. इसके लिए धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक शासन की आवश्यकता है, जो जातीय और जनजातीय हितों की रक्षा करता हो. वर्तमान में, स्थिति 1960 और 1970 के दशक के समान भयानक दिखती है. एक मात्र चैन की बात यह है कि अलगाव की मांग अनुपस्थित है. सेना के पास एक बार फिर राजनेताओं के द्वारा अपने फायदे के लिए पैदा की गई इस समस्या को हल करन के अलावा कोई चारा नहीं है.

लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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