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Thursday, 21 November, 2024
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लोकसभा चुनाव 2014 के मुद्दों को कौन चुरा ले गया?

पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने देश को उम्मीदों की सवारी कराई थी. तमाम तरह के वादे और दावे किए गए थे. आश्चर्यजनक है कि बीजेपी आज उन मुद्दों की बात नहीं कर रही है.

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2014 के लोकसभा चुनावों के पहले देश में ऐसा समां पैदा किया गया था कि चारों तरफ अराजकता के सिवा कुछ और नहीं है. बेरोज़गारी-भ्रष्टाचार चरम पर है, कांग्रेसी नेताओं ने देश को लूट लिया है, देश बर्बाद हो रहा है, शिक्षा जगत का पूरा ढांचा ढह चुका है, देश के सारे लोग बीमार हैं, दलित-पिछड़ी जातियों के बीच कुछ खास जातियों ने बाकी सारी जातियों का हक मार लिया है, देश की सत्ता पर राजतंत्र काबिज है. वगैरह-वगैरह.

लोगों को भरोसा दिया गया था कि अगर बीजेपी की सरकार बनती है तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. देश का काला धन विदेश से वापस लाया जाएगा तो सबके खाते में 15-15 लाख रुपए तो यों ही आ जाएंगे. हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार मिलेगा. देश मज़बूत होगा. प्रधानमंत्री मोदी खुद निचली कही जाने वाली जाति की पहचान को अपने भाषणों में बता रहे थे और दलित-पिछड़ी जाति के वोटरों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. हर किसी के लिए बीजेपी ने कोई न कोई बड़ा वादा ज़रूर किया था. रही सही कसर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी अपने भाषणों से कर रहे थे.


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इस तरह के और अन्य कई मुद्दे चुनाव में कारगर हथियार बने और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने केंद्र में सरकार बनाई. महज पांच साल के भीतर इन तमाम मुद्दों में से कोई भी मुद्दा 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के चुनाव प्रचार में शामिल नहीं है. तो एनडीए के लिए इस साल के चुनावी मुद्दे क्या हैं? बीजेपी नेता चुनाव को फिर से हिंदू-मुसलमान बहस में ले जा रहे हैं.

भाजपा के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं से लेकर इस पार्टी के नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक की जुबान से इन मुद्दों की गूंज नहीं दिख रही है. सभी भाजपा नेताओं के भाषणों का लब्बोलुआब अपने श्रोताओं के दिमाग में देशभक्ति के नाम पर पाकिस्तान से दुश्मनी घोलना और परोक्ष रूप में मुस्लिम समुदाय को निशाने पर लाना दिख रहा है. सवाल है कि कहां गए वे तमाम मुद्दे जो सत्तर साल का हवाला देकर आम लोगों के सामने परोसे जा रहे थे?

आज़ादी के बाद से अब तक ‘कुछ नहीं होने’ का हवाला देकर ‘सब कुछ करने’ का दावा किया गया था. लेकिन पिछले पांच सालों में सबसे ज़्यादा क्या होता दिखा? जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘शंख फूंकने’ का दावा किया जा रहा था, उसमें एनडीए राज के शुरू होने के अगले तीन सालों के भीतर ही संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय सतर्कता आयोग ने जानकारी दी कि भ्रष्टाचार के मामलों में 67% की बढ़ोत्तरी हो गई.

जिस बेरोज़गारी को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया गया था, उस मोर्चे पर अगले दो साल के भीतर ही संसद में खुद केंद्र सरकार के एक मंत्री ने बाकायदा आंकड़ों के साथ बताया कि केंद्र सरकार की सीधी भर्तियों वाली नौकरियों में 89% तक की गिरावट आई. सरकारी नौकरियों में यह गिरावट क्यों आई या अगर कटौती की गई, तो इस कटौती का मकसद क्या था, यह न किसी ने बताया, न लोगों ने पूछना ज़रूरी समझा.

लेकिन संसद में पेश इन तथ्यों के बरक्स भाजपा के नेता सार्वजनिक मंचों पर आम लोगों के सामने इस आशय की बातें जोर-शोर दोहराते रहे कि भ्रष्टाचार का खात्मा हो गया है और हर तरफ रोज़गार की धूम है. रोज़गार के सवाल को ‘पकौड़ा बेचने’ जैसे जवाब से ढंकने की कोशिश की गई.

यानी दो सबसे बड़े मुद्दे- भ्रष्टाचार और रोज़गार के मोर्चे पर आम जनता के पास सच की तस्वीर नहीं पहुंच सकी, क्योंकि साधारण लोगों के पास सूचना का आम स्रोत टीवी चैनल और अखबार हैं और इन पर अमूमन हर वक्त लोगों को ऐसे मुद्दों में उलझाने के मानो योजनाबद्ध कार्यक्रम चलते रहे, जिनका हासिल या तो कुछ नहीं है या फिर वे किसी भी समाज को पीछे ले जाने में ही अपनी भूमिका निभाते हैं.

नेताओं के बेमानी और कई बार आपत्तिजनक बयानों, विवाद और उत्तेजना फैलाने वाली गतिविधियों को कथित मुख्यधारा के मीडिया में बहस का केंद्र-बिंदु बनाए रखा गया और इस बीच लोगों के सामने देश और समाज के विकास से संबंधित मुद्दों पर विचार करने और राय बनाने की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई.


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यह बेवजह नहीं है कि इस लोकसभा चुनावों में बहस के और आम लोगों को संबोधित किए जाने वाले मुद्दे आमतौर पर राष्ट्रवाद, देशभक्ति के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं. ठीक है कि राष्ट्रवाद या देशभक्ति को मुद्दा बनाना भाजपा के लिए सुविधाजनक है, लेकिन देश की दूसरी सभी पार्टियों के सामने ऐसी कौन-सी मजबूरी है कि वे भाजपा की ओर से गढ़े गए या खड़े किए मुद्दों पर ही जवाब की शक्ल में सफाई देने की मुद्रा में जो ज़ाहिर करते हैं, उससे भाजपाई राष्ट्रवाद का ही पोषण होता है.

विपक्षी पार्टियों का यह आम रवैया इसलिए भी हैरान करता है कि इन भावनात्मक मुद्दों के मैदान में भाजपा बिना किसी झिझक के सबसे बाज़ी मार ले सकती है. शायद यही वजह है कि पांच साल के कार्यकाल में कोई भी ऐसा कार्यक्षेत्र नहीं है, जिस पर केंद्र की भाजपा सरकार यह दावा कर सके कि वह उसकी उपल्ब्धि है और इसलिए उसे ही फिर से सरकार बनाना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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