अपनी मां की गोद में बैठे एक 15 महीने के बच्चे त्रिग्यांश जैन जो इस समय दूध की बोतल से खेल रहा है और बिस्किट खा रहा, उसे मालूम ही नहीं है कि इन दिनों वो दिल्ली हाई कोर्ट में मिनी सेलेब्रिटी बन गया है.
वे भारत के जनसंख्या नियंत्रण नियमों—तीसरे बच्चे के अधिकार—के खिलाफ एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रहा है. दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के एक स्कूल में उसकी मां के मैटरनिटी लीव का बेनिफिट दांव पर है. क्या तीसरे बच्चे की कामकाजी मां को भी वही अधिकार मिल सकते हैं, जो पहले और दूसरे बच्चे के समय दिए जाते हैं?
पिछले साल, जब बच्चा बमुश्किल 35 दिनों का था, उसने दिल्ली हाई कोर्ट में ‘मातृ देखभाल के अधिकार’ के लिए एक याचिका दायर की, क्योंकि उसकी मां, अमिता जैन जो कि तत्कालीन उत्तरी दिल्ली नगर निगम (अब एमसीडी) के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं, को तीसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव देने से मना किया गया था.
अदालत के जज, एमसीडी दफ्तर के अधिकारी यहां तक कि चाय बनाने वाले तक भी इस केस के बारे में चर्चाएं कर रहे हैं.
एमसीडी के एजुकेशन डिपार्टमेंट की एक अधिकारी ने चौंकते हुए कहा, “यह तो इतना सा बच्चा है. अभी ठीक से चल भी नहीं सकता, पूरी तरह से मां के सहारे पर है. उसको मालूम भी है कि इधर चल क्या रहा है.”
सेंट्रल सिविल सर्विस —सीसीएस (लीव रूल्स) के अनुसार, भारत की परिवार नियोजन पहल जो बड़े परिवारों को हतोत्साहित करने के लिए बनाई गई है, के हिस्से के रूप में मां को अपनी नौकरी के दौरान केवल पहले और दूसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव बेनिफिट दिया जाता है, लेकिन जैन परिवार का तर्क है कि ये नियम नवजात शिशु की देखभाल और पोषण के अधिकार का विरोध करते हैं क्योंकि अमिता की दो बड़ी बेटियां उनके नौकरी में आने से पहले पैदा हुईं थीं.
त्रिग्यांश का जन्म 17 जनवरी 2022 को हुआ था, अमिता उन दिनों में कभी-कभार कक्षा के छात्रों को असाइनमेंट भेज रही थीं.
उन्होंने कहा, “मैंने 18 जनवरी से 17 फरवरी 2022 की अवधि में (मैटरनिटी लीव बेनिफिट) के लिए अप्लाई किया तो मुझे मेरी अर्जित छुट्टियां लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.” चूंकि, छुट्टी की ऐप्लीकेशन को खारिज कर दिया गया था और परिणामस्वरूप अमिता ने “अपनी पेड लीव का उपयोग किया”.
दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष दायर त्रिग्यांश की याचिका में कहा गया है कि “उनके (उनके बेटे के) मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है”, वहीं, एमसीडी का तर्क है कि वे केंद्र सरकार के नियमों का पालन कर रहे हैं.
त्रिग्यांश के वकील ने बताया, “अंतिम बहस 11 मई को की जाएगी और हम माननीय अदालत का फैसला अपने हक में आने की उम्मीद कर रहे हैं.”
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नियमों में क्या है विवाद
अमिता जैन ने त्रिग्यांश को ऐसे समय में जन्म दिया जब देश कोरोना की तीसरी लहर से उभर रहा था, अधिकांश प्रतिबंध हटा दिए गए थे, लेकिन स्कूलों में अभी तक फिजिकल कक्षाएं बहाल नहीं की गई थीं, इसलिए अमिता वर्क फ्रॉम होम कर रही थीं.
अमिता ने स्कूल में 27 जनवरी 2022 को लीव के लिए अप्लाई किया, लेकिन लेकिन 20 दिन बाद यानी 17 फरवरी को प्रिंसिपल ने सीसीएस लीव रूल्स, 1972 के नियम 43 (1) का हवाला देते हुए उनके आवेदन को खारिज कर दिया, जिसमें लिखा था कि मैटरनिटी लीव का बेनिफिट केवल उन्हीं सरकारी कर्मचारियों को दिया जाता है जिनके दो से कम जीवित बच्चे हैं.
इसका पेचीदा हिस्सा सीसीएस के रूल 43 के सबरूल -1 की वो लाइन है, जिसमें कहा गया है कि चाइल्ड केयर लीव पर अधिकार नहीं जताया जा सकता है और यह एम्प्लॉयर के अप्रूवल के बाद ही दी जाएगी.
अमिता ने स्कूल प्रबंधन के साथ उनके मामले पर बहस करने की कोशिश की. उनका आरोप है, “मुझसे कहा गया था कि अपने दम पर स्थिति को संभालो, क्योंकि हम इस मामले में कुछ नहीं कर सकते”
और तभी उन्हें पता चला कि भारत के मैटरनिटी लीव बेनिफिट और सर्विस रूल को नियंत्रित करने वाले कानून रहस्यमय, पेचीदा और जटिल हैं.
हालांकि, त्रिग्यांश जैन ऐसे पहले बच्चे नहीं हैं जिनकी मां को इस नुकसान का सामना करना पड़ा है, लेकिन वे मैटरनिटी लीव बेनिफिट के तहत सबसे कम उम्र के याचिकाकर्ता ज़रूर हैं. भारत में ऐसे और भी मामले हैं जहां माता-पिता ने सरकारी नौकरी में शामिल होने के बाद मैटरनिटी लीव बेनिफिट और अपने तीसरे बच्चे के लिए लाभ की मांग करते हुए अदालत का रुख किया है.
ऐसा पहली बार नहीं है जब तीसरे बच्चे के अधिकारों पर बहस की जा रही है. सितंबर 2019 में, उत्तराखंड हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा कि एक महिला सरकारी कर्मचारी राज्य सरकार के नियमों के अनुसार, अपने तीसरे बच्चे के दौरान मैटरनिटी लीव बेनिफिट की हकदार नहीं है. खबरों के मुताबिक, मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा ने एकल पीठ द्वारा 2018 के पहले के आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें राज्य सरकार के उस नियम को रद्द किया गया था, जिसमें उन महिला कर्मचारियों को मैटरनिटी लीव से वंचित किया गया था, जो अपने तीसरे बच्चे के साथ गर्भवती थीं.
2019 के एक अन्य मामले में एक सब इंस्पेक्टर, जिसने अपनी पहली गर्भावस्था के दौरान जुड़वा बच्चों को जन्म दिया था और जब वो फिर से गर्भवती हुई तो उन्हें भी मैटरनिटी बेनिफिट के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी थी. मद्रास हाई कोर्ट ने कहा कि जब तक कोई कानून नहीं है जो एक महिला को जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए बच्चों की संख्या को प्रतिबंधित करता है, सरकार एक महिला के बच्चों की संख्या के आधार पर मैटरनिटी लीव बेनिफिट से इनकार नहीं कर सकती है.
हालांकि, जैन परिवार को उम्मीद है कि उनकी जीत ज़रूर होगी. मैटरनिटि बेनिफिट (संशोधन) एक्ट 2017 ने कामकाजी महिलाओं के लिए पेड मैटरनिटी लीव की अवधि 12 से बढ़ाकर 26 हफ्ते तक कर दी. दो या दो से अधिक जीवित बच्चों वाली महिलाओं के लिए, 2017 के अधिनियम के अनुसार, पेड लीव की अवधि 12 सप्ताह है- ‘प्रसव की अपेक्षित तिथि’ से 6 हफ्ते पहले और 6 सप्ताह बाद.
हालांकि, अमिता के मामले में एमसीडी और कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के साथ एक प्रतिवादी यूनियन ऑफ इंडिया ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा कि सीसीएस नियम सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होते हैं. जवाबी हलफनामे में कहा गया है, “… हमारे नियम (सीसीएस) एमसीडी पर स्वत: लागू नहीं होते हैं.”
जैन की हताशा तब स्पष्ट होती है जब वे विभिन्न नियमों और उप-नियमों से गुज़रती हैं.
अमिता ने कहा- सीसीएस के मुताबिक, “अगर भ्रूण में तीसरे, चौथे या पांचवें बच्चे की धड़कन का पता चल जाए तो मां छुट्टी नहीं ले सकती. हालांकि, अगर वही बच्चा मरा हुआ पैदा होता है तो 45 दिन की छुट्टी देने का नियम है. यह अस्वीकार्य है.”
नियमों का हवाला देते हुए उन्होंने आगे कहा, “45 दिनों तक का मैटरनिटि लीव बेनिफिट भी एक सरकारी महिला कर्मचारी को दिया जा सकता है, भले ही जीवित बच्चों की कितनी भी संख्या के बावजूद, उनका अबॉर्शन हो गया हो.”
इसका सीधा मतलब यह है कि जीवित बच्चे केवल दो ही होने चाहिए, मृत बच्चे कितने भी हो 45 दिनों की छुट्टी दी जाएगी.
मैटरनिटि बेनिफिट एक्ट में अबॉर्शन के मामले में प्रावधान है कि एक महिला 6 हफ्ते के लिए “सवैतनिक मातृत्व लाभ” की हकदार हो सकती है. यह अबॉर्शन के अगले दिन से प्रभावी होता है.
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कानून और ग्रे जोन
अमिता जैन भी सीसीएस में केवल स्कूल में शामिल होने के बाद पैदा हुए बच्चों की गिनती करके एक चतुर बचाव का रास्ता खोजने की कोशिश कर रही हैं.
वे कहती हैं, “मैंने स्कूल 2015 में ज्वाईन किया था और कायदे से मैं अपने पहले बच्चे के लिए छुट्टी का लाभ मांग रही हूं, जिसका जन्म 2022 में हुआ था.”
मार्च 2022 में एक सरकारी स्कूल के शिक्षक ने मद्रास हाई कोर्ट में इसी तरह का तर्क दिया था. उनके दोनों बड़े बच्चे सरकारी नौकरी में शामिल होने से पहले पैदा हुए थे और दोनों उनके पहले पति के साथ रह रहे थे. उनकी दूसरी शादी से उन्हें तीसरी संतान हुई और उन्होंने मैटरनिटी लीव के लिए अप्लाई किया, जिसे धर्मपुरी के मुख्य शिक्षा अधिकारी ने अस्वीकार कर दिया. मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया कि वे उन्हें एक साल का मैटरनिटि लीव दें. अदालत ने कहा कि मातृत्व लाभ को बच्चों की संख्या के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है,
लेकिन तीसरे बच्चे के लाभ को नियंत्रित करने वाले कानून और नियम न केवल देश की जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए बल्कि भारत की स्थानिक पुत्र-वरीयता संस्कृति को हतोत्साहित करने के लिए भी तैयार किए गए हैं. कई दंपती तब तक बच्चे पैदा करते रहते हैं जब तक बेटा पैदा नहीं हो जाता.
जैन दंपति की दो बेटियां हैं लेकिन वो इस बात से इनकार करते हैं कि वे बेटे के लिए कोशिश कर रहे थे. अमिता कहती हैं कि अपने तीसरे बच्चे को जन्म देने के ठीक बाद उन्होंने “फैमिली प्लानिंग ऑपरेशन” कराया. “फैमिली प्लानिंग ऑपरेशन कराना ज़रूरी नहीं है, लेकिन हमें कोई दूसरा बच्चा नहीं चाहिए. हमारा परिवार पूरा हो गया है. हालांकि, अमिता का कहना है कि अगर तीसरी संतान बेटी होती तो भी वे इसी कानूनी प्रक्रिया को अपनातीं.”
सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील सुनील कुमार जो कि त्रिग्यांश के मामले में भी काउंसिल हैं ने कहा, “एक बच्चे के अधिकार उसके भाई-बहनों की संख्या से प्रभावित नहीं होने चाहिए. भले ही दो बच्चों की नीति पूरी हो गई हो, किसी भी बाद के बच्चे को अपनी मां की देखभाल का अधिकार होना चाहिए. सरकार को इस अधिकार को पहचानना चाहिए और इसका सम्मान करना चाहिए.”
महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का तर्क है कि एक महिला कर्मचारी को मैटरनिटि लीव के अधिकार से वंचित करना उसके प्रजनन अधिकारों के उल्लंघन और फैमिली प्लानिंग के प्रति जबरदस्ती के रूप में देखा जा सकता है.
श्रम अधिकार शोधकर्ता और एक्टिविस्ट राखी सहगल कहती हैं, “महिलाएं अपने नवजात बच्चे की देखभाल के लिए और अपनी नौकरी खोने या भेदभावपूर्ण प्रथाओं के अधीन होने के डर के बिना बच्चे के जन्म से उबरने के लिए मैटरनिटि लीव लेने की हकदार हैं. इस अधिकार से इनकार को जनसंख्या नियंत्रण के एक रूप के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि यह उन बच्चों की संख्या को सीमित करता है जो महिलाओं को अपना रोजगार खोए बिना हो सकता है.”
लेकिन शिक्षा विभाग में एमसीडी के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि सेवा नियमों के अपवाद दुर्लभ हैं.
अधिकारी ने कहा, “हमने उन्हें (जैन परिवार) को समझाया है कि हमारे रूल नहीं बदलेंगे, लेकिन वे इस मामले को अदालत में ले गए हैं, क्योंकि मामला विचाराधीन है, हम इस बारे में बात करने के लिए अधिकृत नहीं हैं.”
एक साल के दौरान इस मामले की नौ सुनवाई हो चुकी हैं. दिल्ली हाई कोर्ट की खंडपीठ ने कहा था कि बच्चे की उम्र को देखते हुए इस मामले को अत्यावश्यकता से लिया जाना चाहिए. उस समय त्रिग्यांश तीन महीने का था.
अदालत की बेंच ने दूसरी सुनवाई में कहा, “मामला अत्यावश्यक है, विशेष रूप से इसलिए कि याचिकाकर्ता इतनी से उम्र में बहुत पीड़ित है क्योंकि वह अपनी मां की देखभाल से वंचित है.”
इसने आगे कहा, “याचिकाकर्ता जीवित रहने के लिए पूरी तरह से मां के दूध पर निर्भर है और उसके अधिकारों का उल्लंघन इस तथ्य के अलावा किसी अन्य कारण से नहीं किया जा रहा है कि वे तीसरा बच्चा है.”
प्राइमरी स्कूल में अमिता जैन के अधिकांश सहयोगियों के दो बच्चे हैं. स्टाफ रूम की बातचीत मामले के इर्द-गिर्द घूमती है.
स्कूल की एक टीचर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “अगर अमिता जीत जाती हैं, तो मेरे पति और मैं तीसरा बच्चा पैदा कर सकेंगे.”
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