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Thursday, 31 October, 2024
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यूनिवर्सल बेसिक इनकम का आखिर क्या है मतलब

ब्राज़ील में यह योजना ग़रीबी कम करने में काफ़ी कारगर साबित हुई है. इसे भविष्य में ग़रीबी समाप्त करने में काफ़ी कारगर माना जा रहा है.

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब से ग़रीबों के लिए ‘न्याय’ यानी न्यूनतम आय का वादा किया है, तब से इस विषय पर काफ़ी बहस चल पड़ी है कि यह योजना कैसी होगी, इस पर आने वाला ख़र्च कहाँ से आएगा और इसका प्रभाव क्या होगा? इस लेख में इस प्रोग्राम के सैद्धांतिक पक्ष को समझने के साथ यह भी देखने की कोशिश की गयी है कि इसका भारत के समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता है?

यूनिवर्सल बेसिक इनकम से निकली है ‘न्याय’ की अवधारणा

राहुल गांधी द्वारा घोषित ‘न्याय योजना’ को बाकी दुनिया में यूनिवर्सल बेसिक इनकम कहा जाता है. इस समय दुनियाभर के अकादमिक जगत में इस पर काफ़ी बहस हो रही है, क्योंकि इसे ग़रीबी हटाने का सबसे बेहतरीन हथियार माना जा रहा है. इसके साथ ही इस योजना को इक्कीसवीं सदी में बढ़ती आर्थिक असमानता के ख़िलाफ़ भी एक कारगर उपाय माना जा रहा है.

ख़बरों के अनुसार विश्वप्रसिद्ध फ़्रांसीसी अर्थशास्त्री थामस पिकेटी ने इस योजना को बनाने में राहुल गांधी की मदद की है. विदित हो कि इस समय थामस पिकेटी दुनिया भर में बढ़ रही आर्थिक आसमान का अद्धयन करने वाले सबसे प्रमुख अर्थशास्त्री हैं. इस विषय पर उनकी किताब ‘इक्कीसवीं सदी में पूँजी’ काफ़ी चर्चित हुई है.

पिकेटी ने लुकास चांसेल, अभिजीत बनर्जी और नितिन कुमार भारती के साथ भारत में बढ़ रही आर्थिक आसमानता पर भी अलग से अध्ययन किया है. बताया जाता है कि पिकेटी के अलावा आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन समेत अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी इसमें राहुल की मदद की है.


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भले ही राहुल की न्याय योजना पर अभी बवाल मचा हो लेकिन भारत में यूनिवर्सल बेसिक इनक़म का विचार नया नहीं है, क्योंकि वित्त मंत्रालय द्वारा सालाना जारी किए जाने वाले पिछले आर्थिक सर्वेक्षण में इसको आइडिया के तौर पर लांच हुआ बताया गया है. दरअसल ब्राज़ील, फ़िनलैंड, कनाडा, फ़िलिपींस जैसे देशों ने अपने यहाँ यूनिवर्सल बेसिक इनकम को अलग-अलग नामों से लागू किया. ब्राज़ील में यह योजना ग़रीबी कम करने में काफ़ी कारगर साबित हुई है. इसे भविष्य में ग़रीबी समाप्त करने में काफ़ी कारगर माना जा रहा है.

यूनिवर्सल बेसिक इनकम की सैद्धांतिकी

यूनिवर्सल बेसिक इनक़म का मतलब है कि सभी वर्ग के लोगों को बिना उनकी उम्र, सम्पत्ति, रोज़गार, परिवार आदि को देखे हुए कुछ पैसा दिया जाए, जिसको वो अपनी इच्छानुसार ख़र्च कर सकें. हालांकि आज के परिपेक्ष्य में इसे केवल ग़रीबों, बुज़ुर्गों, विधवाओं और बेसहारा आदि लोगों के लिए ही लागू करने के लिए कहा जाता है.

यूनिवर्सल बेसिक इनकम के पीछे तीन अवधारणाएं हैं-

एक, यदि सभी के पास कुछ न कुछ पैसा होगा तो उससे लोगों की क्रय शक्ति बढ़ेगी, जिससे बाज़ार में डिमांड बढ़ेगी, जिसे पूरा करने के लिए उत्पादन बढ़ेगा, व्यापार में वृद्धि आएगी, रोज़गार सृजित होंगे, विकास को गति मिलेगी और कुल मिलाकर विभिन्न प्रकार के टैक्सों से सरकार की भी आमदनी बढ़ेगी.

दो, व्यक्ति पैसा नहीं होने की वजह से तमाम ग़लत निर्णय लेता है, मसलन बच्चों को ठीक से ना पढ़ाना, पौष्टिक भोजन न करना, क्राइम की दुनिया में चले जाना वग़ैरह वग़ैरह. इन सबका कुल परिणाम यह होता है कि पूरे समाज की सुख, शांति और समृद्धि पर असर पड़ता है. ऐसे में अगर व्यक्ति को रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कुछ पैसे मिल जाएँगे तो वह इन सब कामों में नहीं लगेगा, जिससे सरकार को पुलिस, नौकरशाही आदि पर ज़्यादा ख़र्च नहीं करना पड़ेगा. सरकार का ख़र्च कम होने की एक वजह से नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के प्रमुख अर्थशास्त्री मिल्टन फ़्रीड्मन ने भी अपनी किताब ‘कैपिटलिज्म और फ़्रीडम’ में यूनिवर्सल बेसिक इनकम की अवधारणा का समर्थन किया है.

तीन, ऐसा माना जाता है कि तकनीकी में उन्नति एक सतत प्रक्रिया है. तकनीकी में प्रगति अर्थव्यवस्था के चरित्र और संरचना को तेज़ी से बदल देती है. जिस समय अर्थव्यवस्था की संरचना और चरित्र बदल रहा होता है, उस समय लोग नयी तकनीकी को तेज़ी से नहीं अपना पाने की वजह से बड़ी संख्या में बेरोज़गार हो जाते हैं. यूनिवर्सल बेसिक इनकम ऐसे समय में बेरोज़गारों को राहत देती है, जिससे उनके मन में असंतोष ना पैदा हो.


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यदि आज के समय में देखा जाए तो नब्बे के दशक में आयी सूचना और तकनीकी क्रांति ने अर्थव्यवस्था की संरचना को बदल दिया है. दुनिया आज तेज़ी से नॉलेज आधारित अर्थव्यवस्था में तब्दील होती जा रही है. इसमें आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस और बायोटेक्नोलाजी के क्षेत्र में हुई प्रगति ने भी इसमें काफ़ी योगदान दिया है.

कुल मिलाकर इसका प्रभाव यह पड़ रहा है कि बेरोजगारी तेज़ी से बढ़ रही है, जिसकी वजह से आर्थिक असमानता और ग़रीबी भी बढ़ रही है. अर्थव्यवस्था में आ रहे इस परिवर्तन की वजह से वैश्विक स्तर पर यह कहा जा रहा है कि पूँजीवाद संकट में है. यूनिवर्सल बेसिक इनकम बेरोज़गार लोगों को संकट से बचाने में मदद करेगी.

पैसा कहां से आएगा?

न्यूनतम आय योजना को लागू करने के लिए सबसे बड़ा सवाल यह उठाया जा रहा है कि इस पर आने वाले ख़र्चे को सरकार कहां से वहन करेगी? इसके चार सम्भावित जवाब हो सकते हैं.

पहला, सरकार कुछ वस्तुओं और सेवाओं पर इस उम्मीद के साथ टैक्स बढ़ा सकती है कि इस योजना के लागू होने पर ख़रीदारी बढ़ेगी, जिससे उद्योग और व्यवसाय बढ़ेगा.

दूसरा, सरकार उच्च आय और सम्पत्ति वाले सुपर अमीरों पर टैक्स बढ़ा सकती है.

तीसरा, सरकार अपनी मौजूदा योजनाओं को बन्द करके, नौकरशाही और पुलिसिंग वग़ैरह पर ख़र्चों में कटौती कर सकती है;

और चौथा, सूचना और तकनीकी क्षेत्र में आ रही निरंतर क्रांति की वजह से सरकार के लिए नए आय के स्रोत पैदा हुए हैं, मसलन स्पेक्ट्रम की नीलामी. सरकार यहां से भी ऐसी योजना के लिए संसाधन जुटा सकती है.

इन सबके अलावा सरकार अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से इस विश्वास के साथ लोन के सकती है कि भविष्य में जो इनकम होगी, उससे लोन चुका दिया जाएगा.

कौन कर सकता है विरोध

एक सबसे बड़ा सवाल है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम की योजना का भारत में विरोध कौन लोग कर सकते हैं? इसमें तीन तरह के लोग हो सकते हैं. पहले समूह के लोग विचारधारा के आधार पर इस तरह की नीति का विरोध कर सकते हैं, जिसमें वामपंथी सबसे प्रमुख हैं. इनके विरोध का आधार यह हो सकता है कि यह पूरी अवधारणा नवउदारवाद से आयी है. चूँकि राहुल गांधी की पार्टी वामपंथी विचारधारा के विचारकों से भरी पड़ी है, इसलिए उनके लिए इसको लागू करा पाना आसान नहीं होगा.

इस नीति का विरोध करप्ट राजनेताओं और नौकरशाहों का समूह भी कर सकता है, क्योंकि इसके लागू होने से तमाम तरीक़े की अन्य योजनाओं के बन्द होने का ख़तरा रहेगा, जहां इनको अच्छा ख़ासा कमीशन मिलता है.

तीसरा और सबसे आख़िरी समूह उन लोगों का है जो ग़रीबी और असमानता को मिटाने के लिए आ रहे नए विचारों को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे लोग आत्मविश्वास की कमी के कारण विरोध में खड़े हो जाते हैं. भारत में ऐसे लोगों की भरमार है.

न्यूनतम आय योजना की सीमाएं

यूनिवर्सल बेसिक इनकम की अवधारणा से निकली हुई किसी योजना के भारत जैसे विविधता वाले देश में सफल होने की अपनी सीमाएं हैं, क्योंकि यहाँ का समाज जाति, धर्म, भाषा, लिंग, रंग आदि के आधार पर इस क़दर बंटा हुआ है कि यहां लोगों के सोचने के तरीक़े में खोट आ गया दिखता है. इसमें एक सबसे बड़ी बात है कि यहां लोग सिर्फ़ अपने दुःख से ही दुखी नहीं हैं, बल्कि दूसरे के सुख से भी दुखी हैं. गरीबों को राहत मिलने से देश में हर कोई खुश नहीं होगा.

(पीएचडी स्कॉलर, रॉयल हालवे, यूनिवर्सिटी आफ लंदन)

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