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Friday, 26 April, 2024
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सवर्ण मतदाताओं से डर रही हैं तमाम राजनीतिक पार्टियां

भारत में सवर्णों की संख्या अलग अलग अनुमानों के मुताबिक 15 से 20 परसेंट हैं. लेकिन राजनीति पर उनका दबदबा उनकी संख्या के अनुपात में कई गुना ज़्यादा है.

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भारत की एकेडमिया में ‘दबंग जातियों’ (डोमिनेंट कास्ट) के तौर पर चिन्हित की गयी अलग-अलग राज्यों की तमाम जातियां मसलन हरियाणा के जाट, गुजरात के पाटीदार, महाराष्ट्र के मराठा, आंध्र-प्रदेश के कापू आदि लंबे समय से ओबीसी वर्ग में शामिल होने की मांग के लिए आंदोलन कर रही हैं. लेकिन सरकारों ने इनकी मांग पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया है.

ऐसे ही ओबीसी वर्ग में शामिल गुर्जर समुदाय अपने को एसटी में शामिल करने की मांग कर रहा है, लेकिन उनका मामला लगातार टलता रहा. इसी तरह से उत्तर प्रदेश में राजभर, निषाद, नाई, कुम्हार समेत 17 से अधिक अतिपिछड़ी जातियां पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने के लिए आंदोलनरत हैं, फिर भी सरकारों ने इनकी मांग पर कोई खास ध्यान नहीं दिया है.

इसके विपरीत, उच्च जातियों के आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के आरक्षण हेतु लाये गए हालिया संविधान संसोधन बिल की बात करें तो इसके लिए कोई आंदोलन नहीं था, ना ही कोई डिमांड थी. ऐसे में सरकार ने जब रातों-रात इस पर संविधान संशोधन बिल लाने का फैसला किया, और उससे भी तेज़ी से इसे लागू करा दिया, तो सवाल उठाना लाज़मी है कि सरकार ने ऐसा क्यों किया?


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विभिन्न लोगों ने सरकार की इस मंशा पर तमाम लेख लिखे हैं, और सवाल उठाए हैं, लेकिन मेरी दिलचस्पी यह समझने में है कि विपक्ष की पार्टियों को किस चीज़ ने इस बिल के पक्ष में मतदान करने के लिए मजबूर किया? या फिर यूं कहें कि विपक्ष की तमाम पार्टियों को किस चीज़ ने इस कदर डरा दिया कि वो इस संविधान संशोधन विधेयक पर सरकार के रुख से एकदम से सहमत नज़र आयीं?

इस सवाल का जवाब ढूंढने के क्रम में तीन प्रमुख सैद्धांतिक कारण नज़र आते हैं- मोरल गिल्ट (नैतिक अपराधबोध), वोटिंग का तरीका, और पार्टियों के बीच में कंपिटीशन. इस लेख में सवर्ण रिज़र्वेशन पर राजनीतिक पार्टियों के बीच बनी आम सहमति को इन्हीं तीन सैद्धांतिक कारणों से समझने की कोशिश की गयी है.

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मोरल गिल्ट यानि नैतिक अपराधबोध

भारतीय समाज मूल रूप से जाति आधारित समाज है, जहां पर सभी जातियों के कार्य निर्धारित रहे हैं. कोई भी समाज लिखित और अलिखित दोनों प्रकार के नियमों से चलता है. भारत का संविधान भले ही लिखित रूप में क़ानूनों का दस्तावेज़ है, लेकिन समाज में अलिखित कानून भी हैं, जिनका मूल स्रोत मान्यताएं और परंपरा है. भारत में अलिखित कनूनों का सबसे प्रभावशाली स्रोत जाति व्यवस्था है, जो लोगों को यह सिखाती रहती है कि क्या करना गलत है और क्या करना सही है?

इसी वजह से बाबासाहब आम्बेडकर ने अपनी किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में भारतीय समाज व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि इस समाज में ‘असेंडिंग सेंस ऑफ रेवेरेन्स एण्ड डीसेंडिंग सेंस ऑफ कंटेम्प्ट है’, जिसका मतलब है कि जैसे-जैसे ऊपर के क्रम में जाया जाता हैं, वैसे-वैसे तथाकथित उच्च जातियों के प्रति सम्मान बढ़ता जाता है, और जैसे जैसे नीचे की तरफ जाते हैं, कमज़ोर जातियों के प्रति तिरस्कार बढ़ता जाता है.


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इसी अलिखित नियम का परिणाम है कि जब लोग ब्राह्मण जाति के गरीब को देखते हैं, तो उसके प्रति दया और करुणा जैसी भावना का संचार होता है, वहीं निचली जाति के दीनहीन व्यक्ति को देखते समय ऐसी भावना अमूमन नहीं उत्पन्न होती. बल्कि कोई आसानी से कह सकता है कि आलस्य, जुए, कामचोरी, शराबखोरी आदि के कारण वह गरीब है. लेकिन यही बात गरीब ब्रह्मण के बारे में नहीं कही जाती.

यही दया और करुणा की भावना लोगों को उच्च जाति के कमज़ोर लोगों की या तो मदद के लिए प्रेरित करती है, और नहीं करने पर एक मोरल गिल्ट यानि नैतिक जुर्म का अहसास कराती रहती है. भारतीय समाज में सही और गलत के निर्धारित करने का यह तरीका यहां की सामाजिक मनोदशा (सोशल साइकोलॉजी) में रचा बसा है.

इसके अलावा भारतीय समाज का पुनर्जन्म की अवधारणा में विश्वास उसको यह सिखा देता है कि इस जन्म में व्यक्ति की स्थिति उसके पिछले जन्म के पापों का परिणाम है. ऐसी स्थिति में समाज के कमजोर तबकों की खराब स्थिति के लिए लोग नैतिक तौर पर उसको ही जिम्मेदार मान लेते हैं, और उनकी मदद के लिए नहीं खड़े होते.


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इस तरीके के नैतिक अपराधबोध की शिक्षा हमें बचपन से ही परिवार और समाज द्वारा किस्से, कहानियों, गीतों, व्रत, त्योहारों आदि के माध्यम से दे दी जाती है. आधुनिकता के दौर में फिल्में, टीवी सीरियल आदि से इन शिक्षाओं को फिर से स्थापित किया जा रहा है.

यदि उच्च जातियों के आरक्षण हेतु लाये गए संविधान संशोधन बिल पर लगभग सभी पार्टियों के समर्थन की बात करें तो ऐसा लगता है कि राजनेता अपने को मोरल गिल्ट (नैतिक अपराधबोध) से बचाना चाह रहे थे. इसी तरीके से इस संशोधन के विरोध को लेकर समाज में कोई खास हलचल ना होने को भी समझा जा सकता है.

वोटिंग के तरीके में भिन्नता

नैतिक जुर्म के अलावा सरकार के उक्त विधेयक का विरोध ना होने का कारण हम अलग-अलग समुदायों द्वारा वोट करने के तरीकों में भी ढूंढ सकते हैं. लोग वोट क्यों करते हैं, इसको लेकर राजनीति विज्ञान में काफी शोध हुए हैं. भारत के चुनावों पर हुए विभिन्न शोध तीन कारणों की तरह इशारा करते हैं. पहला कारण प्रोफेसर कंचन चंद्रा के शोध से निकलकर आया है, जिसको वो एथेनिक वोटिंग कहती हैं, इस तरह की तहत वोटिंग में मतदाता वोट अपने नेताओं से कुछ पाने की आस में करते हैं.

इसे प्रो. चंद्रा पैरेंट-क्लाइंट रिलेशन के तौर पर समझाती हैं. इस तरह की वोटिंग का एक तरीका स्ट्रैटजिक वोटिंग, जिसमें कोई समुदाय किसी खास नेता को सिर्फ इस वजह से वोट देता है, क्योंकि उसके जीतने से विरोधी समुदाय की प्रगति रुक जाएगी. भारत के परिपेक्ष्य में इस सिद्धान्त की उपयोगिता पर प्रो ओलिवर हीथ ने गिल वर्नियर और संजय कुमार के साथ मिलकर शोध किया है, और इसे काफी हद तक सही पाया है.

भारत में प्रचलित दूसरे तरह की वोटिंग को सिविक वोटिंग कहते हैं, जिसकी अवधारणा प्रो प्रदीप चिब्बर के शोध से निकलकर आई है. प्रो चिब्बर के अनुसार उच्च जातियों का शहरी उच्च वर्ग देशप्रेम, राष्ट्रवाद आदि जैसे सिविक मुद्दों पर वोट देता है.

इसके अलावा भारत में प्रचलित वोटिंग का तीसरा कारण प्रो मुकुलिका बनर्जी ने अपने शोध सेक्रेड इलेक्शन में खोजा है, जिनके अनुसार भारत में वोट डालने का कारण जनता के एक बड़े हिस्से में चुनाव के दिन को लोकतन्त्र का त्योहार के रूप में देखना है. प्रो बनर्जी इसको सेक्रेड (पवित्र) वोटिंग के तौर पर समझाती हैं, जो कि समाज के दबे, कुचले, और गरीब तबके में ज़्यादा पायी जाती है.

यदि भारत में वोटिंग के इन तीनों कारणों को जाति के नज़रिए से समझा जाये तो समाज का निचले तबके का बड़ा हिस्सा (प्रमुख रूप से गरीब, दलित आदि) उत्सव मनाने के लिए वोट देने जाता है. दलित पिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा अपने नेताओं से कुछ फायदा मिलने के लिए भी वोट करता है, जिसे क्लाइंटिज़्म कहा जाता है. वहीं शहरी उच्च जातियों का बड़ा हिस्सा सिविक वोटिंग करता है, इसलिए उसको फर्क नहीं पड़ता कि सरकार उसको कुछ दे रही है या नहीं, बल्कि उसको ऐसी बातों से फर्क पड़ता है कि सरकार पड़ोसी देशों को या किसी खास समुदाय को टाइट किए हुए है या नहीं. उच्च जातियों का एक बड़ा हिस्सा स्ट्रैटजिक वोटिंग करते हुए दिखता है, जिसकी वजह से इसकी वोटिंग किसी की हार-जीत निर्धारित करने में काफी कारगर साबित होती है. ऐसा लगता है कि इसी स्ट्रैटेजिक वोटिंग का खौफ राजनेताओं को उच्च जातियों के पक्ष में खड़ा होने को मजबूर करता है.

बढ़ता पार्टी कंपटीशन

पिछले दो दशकों में राजनीतिक पार्टियों में बहुत टूट फूट हुई है, जिससे राजनीतिक पार्टियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. इसके साथ ही सामाजिक जनांदोलनों के राजनीतिक आंदोलन की शक्ल लेने से भी तमाम नयी राजनीतिक पार्टियों का जन्म हुआ है. ऐसे में भारत में राजनीतिक पार्टियों के बीच चुनाव जीतने को लेकर कंपटीशन बढ़ गया है. कंपटीशन बढ़ने की वजह से बीएसपी और बीजेपी जैसी कैडर बेस्ड पार्टियों को अपनी संरचना बदल कर मास पार्टी बनना पड़ा है. इसके तहत पार्टियों किसी एक समुदाय की पार्टी ना होकर सभी समुदायों की पार्टी के तौर पर खुद को प्रचारित करती हैं, और समाज के विभिन्न तबके के वोटरों को आकर्षित करने की कोशिश करती हैं. ऐसे परिवेश में अगर कोई खास समुदाय स्ट्रैटजिक वोटिंग करता है, तो उसको लुभाने के लिए सभी पार्टियां प्रयासरत रहती हैं.

ऐसा लगता है कि उच्च जातियों के एक सेक्सन की स्ट्रैटजिक वोटिंग का खौफ भारत की सभी प्रमुख पार्टियों को डरा रहा है, क्योंकि इनकी स्ट्रैटजिक वोटिंग का प्रभाव सिर्फ अपने वोट तक सीमित नहीं रहता बल्कि दूसरे समुदाय के वोटों को प्रभावित करता है. इसका प्रमुख कारण उच्च जातियों का संख्या में कम रहने के बावजूद सत्ता प्रतिष्ठानों, शक्ति के श्रोतों, पब्लिक स्पेस और मीडिया पर कब्जा है, जो कि जनता की राय बनाने में काफी अहम रोल अदा करते हैं.

(लेखक डिपार्टमेन्ट ऑफ पॉलिटिक्स एण्ड इंटेरनेशनल रिलेशन, रॉयल हॉलवे, लंदन विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं.)

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