फिनलैंड उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो का 31वें सदस्य के रूप में 4 अप्रैल 2023 को शामिल हुआ. इसकी आधिकारिक घोषणा नाटो महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग ने की. फिनलैंड के राष्ट्रपति सौली निनिस्तो अपने रक्षा और विदेश मंत्रियों के साथ ब्रसेल्स में नाटो मुख्यालय के शामिल हुए. इस समारोह में अमरीकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेंन भी मौजूद थे.
नाटो, जिसे 1951 यानी शीत युद्ध के संदर्भ में यूरोप और अन्य जगहों पर पूर्व सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए एक सैन्य गठबंधन के रूप में बनाया गया था. हालांकि, नाटो ने सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भी लगातार विस्तार किया है. यह तब से दुनिया के विभिन्न हिस्सों मसलन अफगानिस्तान, यूगोस्लॉवीया, इराक और लीबिया में युद्धों मे शामिल रहा है.
वर्तमान में चल रहे रूस – यूक्रेन युद्ध को भी इस परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जा सकता है. रूस, सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्य है. नाटो के पूर्व की ओर विस्तार पर रूस हमेशा से आपत्ति जताता रहा है. उसका मानना है कि यह उसके राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है. रूस के उप विदेश मंत्री अलेक्जेंडर ग्रूशको ने फिनलैंड के नाटो में शामिल होने पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि उनका देश नार्डिक देश के साथ अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाएगा.
मालूम हो कि फिनलैंड और रूस 1300 किलोमीटर से अधिक की सीमा साझा करते हैं. ग्रुशको ने यह भी कहा हैं कि अगर फिनलैंड मे अन्य देशों की सेना तैनात की जाती है तो रूस “रूस सैन्य सुरक्षा को और मजबूती से सुनिशचित करने के लिए अतिरिक्त कदम उठाएगा”.
पृष्ठभूमि
फिनलैंड और स्वीडन ने सैन्य तटस्थता की अपनी दशकों पुरानी नीति को त्याग कर वर्ष 2022 में नाटो की सदस्यता के लिए आवेदन किया था.
फिनलैंड के परिग्रहण की घोषणा तुर्की की संसद द्वारा कुछ दिन पहले की गयी. मालूम हो कि तुर्की ने फिनलैंड की नाटो सदस्यता के प्रयासों को महीनो तक मंजूरी प्रदान नहीं की थी. नाटो में फिनलैंड की सदस्यता को मंजूरी देने वाला अंतिम देश तुर्की था. कुर्द कार्यकर्ताओं के समर्थन पर तुर्की की चिंताओं को दूर करने और तुर्की को हथियारों के निर्यात में ढील देने के बाद राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोआन ने यह निर्णय लिया .
नाटो के किसी भी विस्तार को उसके सभी सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होती है. स्वीडन, जिसने मई 2022 में यानी फिनलैंड के साथ ही नाटो में शामिल होने के लिए आवेदन किया था, अंकारा द्वारा सदस्यता अवरूध किया जा रहा है. कुर्द कार्यकर्ताओं, विशेष रूप से कुर्दिश वकर्स पार्टी के सदस्यों को शरण देने के आरोप लगते हुए तुर्की अभी भी स्वीडन की सदस्यता के मंजूरी को रोक रहा है. तुर्की कुर्दिश वकर्स पार्टी के सदस्यों और कुर्द अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे अन्य कार्यकर्ताओं पर देश में “आंतकवादी कृत्यों” में शामिल होने का आरोप लगाता है.
इधर हंगरी ने भी पूर्व प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान की नीतियों की आलोचनाओं पर स्वीडन की सदस्यता को मंजूरी देने से इनकार कर दिया है.
यह भी पढ़ें: भारतीय सेना को आपातकालीन खरीद के लिए 6 और महीने मिले, कॉन्ट्रैक्ट साइन करने की जल्दबाजी में MoD
क्या रूस- यूक्रेन युद्ध ने फिनलैंड की तटस्थता नीति को बदल दिया ?
1948 की फीनो – सोवियत संधि में फिनलैंड ने तत्कालीन सोवियत यूनीयन को यह आश्वस्त किया था कि बिना मॉस्को की अनुमति के किसी भी विदेशी सैनिकों को अपनी धरती पर अनुमति नहीं देगा. परन्तु, रूस के यूक्रेन आक्रमण के बाद परिस्थितियों में बदलाव आया. इसके पूर्व क्रेमिया का अनुभव इन देशों के सुरक्षा के लिए एक गम्भीर प्रश्न बन चुका था. अंततः पड़ोस में चल रहे युद्ध ने फिनलैंड और स्वीडन जैसे देशों के लिए यह निर्णय आसान बना दिया. विदित हो कि नाटो के किसी भी सदस्य देश के खिलाफ सैन्य आक्रमण की स्थिति में सभी सदस्य देश उस आक्रमण का मिल कर सामना करते हैं.
फिनलैंड के अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव
नाटो में शामिल होने से फिनलैंड की सुरक्षा भले निश्चित हो लेकिन इसका प्रभाव इसके अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है. चुकी रूस अब फिनलैंड सीमा पर अपनी सैन्य मौजूदगी को बढ़ाएगा तो इसका असर फिनलैंड के रक्षा व्यय ( डिफ़ेन्स इक्स्पेंडिचर) पर भी होगा. नाटो की नीतियों में परिवर्तन होने के कारण अब सदस्य देशों को रक्षा व्यय का 2 प्रतिशत करना होगा. फिनलैंड एक लोक कल्याणकारी राज्य है. रक्षा व्यय के बढ़ने से लोक कल्याणकारी योजना में कटौती करनी होगी.
यह भी पढ़ें: बठिंडा मिलिट्री स्टेशन में फायरिंग, चार जवानों की मौत
भू- राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता
फिनलैंड के पास अपेक्षाकृत छोटा लेकिन सक्षम सैन्य शक्ति है. नाटो में इसका समावेश निश्चित तौर पर नार्डिक क्षेत्र में पश्चिमी शक्तियों के प्रभाव को बढ़ाने का काम करेगा. लेकिन इसके साथ साथ इस पूरे इलाक़े यानी यूरेशिया और सेंट्रल एशिया में भू – राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के साथ साथ हथियारों की रेस भी बढ़ेगी. यूक्रेन युद्ध, रूस और चीन की नज़दीकियां और नाटो का विस्तार ने एक बार पुनः पूरी दुनिया को पीछे धकेलने का काम किया है. शीत युद्ध के बाद जहां विसैन्यीकरण और शस्त्र नियंत्रण जैसे मुद्दे अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में प्रमुखता से प्रचारित हो रहे थे वहीं अब सैन्य खेमा और शस्त्रों की होर देखने को मिलेगी.
भारत का रुख़
हालांकि, सीधे तौर पर फिनलैंड के नाटो में शामिल होने से भारत की विदेश नीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. लेकिन, यदि यह भू- राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता लम्बे समय तक बनी रहती है तो इसका असर भारत पर भी पड़ना लाज़मी है. यदि भारतीय नज़रिए से देखें तो रूस का कमजोर होना और युद्ध हारना दोनो ही राष्ट्रीय हित मे नहीं.
भारत ने न तो यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस की आलोचना की और न ही पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की परवाह की. इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन युद्ध को लेकर लाए गए रेजलूशन में भी भारत अनुपस्थित रहा. यानी भारत चाहता है कि युद्ध का तत्काल अंत हो और महाशक्तियों के बीच एक नया सुरक्षा संतुलन हो ताकि वैश्विक अर्थव्यवस्था को स्थिर किया जा सके. ऐसा होने से दुनिया गम्भीर मुद्दे पर ध्यान केंद्रित कर पाएगी. नाटो के विस्तार और रूस की आक्रामक तेवर न सिर्फ भारत के सुरक्षा और समृद्धि के लिए चिंताजनक है बल्कि विश्व शांति के लिए भी ख़तरे की घंटी है. भारत का प्रयास क्षेत्रिय स्थिरता को कैसे बढ़ावा मिले इस दिशा में होना चाहिए. गुटनीरपेक्षता के बजाए भारत को अपनी व्यावहारिक यथार्थवाद में निहित तटस्थटा पर टिके रहने की आवश्यकता है.
(लेखक दिल्ली विश्विद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व शिक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: 2019 में बालाकोट स्ट्राइक के बाद खुद के हेलिकॉप्टर को मार गिराने वाला IAF अधिकारी बर्खास्त