चुनाव सामने हैं. पार्टियां जनता को रिझाने में लगी हैं और जनता अपने हित की पार्टी और उम्मीदवार के चयन की प्रक्रिया में है. सभी पार्टियों ने अपनी प्राथमिकताएं तय कर ली हैं कि किस समुदाय, धर्म या क्षेत्र के लोगों को कितना और कैसे रिझाना है. जाहिर है संबंधित तबकों के प्रतिनिधि भी पार्टियों और नेताओं को भुनाने की रणनीति के अनुसार कदम उठा रहे हैं. जिन तबकों का सामाजिक संगठन और राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर है, उनकी तवज्जो चुनावी राजनीति में कम ही है. उनके हित भी सुरक्षित नहीं.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के आदिवासी या अनुसूचित जनजातियां भी फिलहाल इसी स्थिति में हैं.
आइए, सबसे पहले पिछले 5 वर्ष में आदिवासियों के साथ सरकार द्वारा किये गए बर्ताव को देखते हैं. नई सरकार आते ही आदिवासियों पर पहला हमला हुआ- उनकी फेलोशिप रोककर. एक दशक से जारी राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप, जो कि उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे और शोध कर रहे अनुसूचित जाति, जनजाति, और बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों को मिल रही थी, को अचानक से अनुसूचित जनजाति या आदिवासियों के लिए रोक दिया गया.
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यूजीसी से बार-बार पूछे जाने पर पता चला कि चूंकि अनुसूचित जनजाति की फेलोशिप का खर्च जनजातीय मंत्रालय उठाता है और जनजातीय मंत्रालय की ओर से फंड जारी नहीं किया गया है इसलिए हम यह फेलोशिप नहीं दे सकते. इस बारे में जब जनजातीय मंत्रालय से पूछा गया तो स्पष्टीकरण मिला कि अब हम यह फेलोशिप यूजीसी के माध्यम से नहीं चलाना चाहते, खुद चलाना चाहते हैं.
सवाल उठता है कि जब यह फेलोशिप सभी तबको के शोधार्थियों को यूजीसी द्वारा दी जाती है तो अनुसूचित जनजाति की फेलोशिप अलग करने की जरूरत क्या थी! खैर, इस चिट्ठी-पत्री में दो साल गुजर गए. लगातार आरटीआई आदि के माध्यम से सवाल पूछे जाते रहे. अंततः 2017-18 में यह फेलोशिप फिर शुरू की गई. यूजीसी की जगह जनजातीय मंत्रालय द्वारा सीधे. लेकिन इस बीच 2015-16 और 2016-17 की फेलोशिप प्रक्रियाओं की भेंट चढ़ गई. हां, उस दौरान फेलोशिप का नाम जरूर बदल दिया गया. अब राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप को ‘नेशनल फेलोशिप फॉर एसटी स्टूडेंट्स’ कहते हैं.
इस तरह सरकार की तरफ से आदिवासियों को पहला तोहफा उनकी दो साल की फेलोशिप यानी कुल 1500 फेलोशिप छीनने के रूप में मिला. चूंकि आदिवासी कोई राजनीतिक शक्ति नहीं हैं, इसलिए यह मसला आदिवासियों की तरह हाशिए पर ही रहा.
आदिवासियों पर दूसरा हमला अनुसूचित जाति/अनसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हुआ. जिस पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के राष्ट्रव्यापी आंदोलन और बंद (2 अप्रैल 2018) के बाद केन्द्र सरकार को अधिनियम को अपने मूलरूप में वापस लाने के लिए अध्यादेश लाना पड़ा.
आदिवासियों के हितों पर तीसरा हमला मार्च 2018 में हुआ जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले को केन्द्र सरकार की कमजोर पैरवी के कारण उच्चतम न्यायालय ने मान्यता दे दी, जिसके तहत आरक्षण के रोस्टर को कॉलेज या विश्वविद्यालयवार से बदलकर विभागवार कर दिया गया. इससे उच्च शिक्षण संस्थाओं में आदिवासियों का प्रवेश लगभग वर्जित हो गया.
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चूंकि इस आदेश से आदिवासियों के साथ दलित और पिछड़े भी प्रभावित हुए इसलिए तीनों वंचित समुदायों ने मिलकर देशभर में प्रदर्शन किये और 5 मार्च को सफल भारत बंद किया. इससे सरकार फिर दबाव में आई और उसने अपनी आखिरी बैठक में इस मसले पर भी आनन-फानन में एक अध्यादेश पारित करा लिया. एक तो अध्यादेश आने के ठीक बाद ही चुनाव की घोषणा हो गई है, दूसरे, अध्यादेश में कुछ तकनीकी समस्याएं भी बताई जा रही हैं और तीसरे, विश्वविद्यालयों के सवर्ण कुलपति और प्रशासन सामाजिक न्याय विरोधी हैं इसलिए इस अध्यादेश के शीघ्र लागू होने की संभावनाओं पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं.
पिछले पांच वर्षों में उच्च शिक्षण संस्थाओं में आदिवासियों की भागीदारी में कोई खास इजाफा नहीं हुआ. झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. वहां के प्रमुख मेडिकल संस्थान रिम्स में हाल ही में आए नौकरियों के एक विज्ञापन में 362 सीटों में गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी गई हैं लेकिन आदिवासियों के लिए कोई सीट नहीं है. यह तथ्य चौकाने वाला है.
जंगलों से आदिवासियों का हजारों साल पुराना अनन्य रिश्ता है. जंगलों से आदिवासियों का अस्तित्व परिभाषित होता है. मौजूदा सरकार की उपेक्षा के कारण लाखों आदिवासियों पर बेदखली का खतरा बना हुआ है. यूपीए-1 के दौरान बना वन अधिकार अधिनियम आदिवासियों के वन अधिकार सुनिश्चित करने वाला आजाद भारत का सबसे मजबूत कानून है. लेकिन इसके लागू होते ही कुछ तथाकथित पर्यावरण रक्षक गैर सरकारी संगठनों ने जंगलों पर आदिवासियों के अधिकारों को ही अवैध बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी.
सरकार की उपेक्षा के कारण सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2019 में 10 लाख से अधिक आदिवासी व वन पर आश्रित परिवारों की वनों से बेदखली का फरमान जारी कर दिया. जब देशभर में इसका विरोध हुआ तो सरकार चेती और उसने सुप्रीम कोर्ट से इस बेदखली को स्थगित करने हेतु मोहलत मांगी. सुप्रीम कोर्ट ने 3 महीने की मोहलत तो दे दी लेकिन सवाल यह है कि 3 महीने बाद क्या होगा?
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दूसरा, हाल ही में आए खुद पर्यावरण मंत्रालय के उस सर्कुलर का क्या करें जो वन अधिकार अधिनियम में ग्राम सभाओं को दिये गए अधिकारों से उन्हें वंचित करता है! इस सर्कुलर के अनुसार अब आदिवासियों की जमीन अधिग्रहित करने के लिए ग्राम सभाओं की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी. उल्लेखनीय है कि वन अधिकार अधिनियम में ग्राम सभाओं को मजबूत किया गया था.
उपर्युक्त तमाम प्रकरणों को देखकर लगता है कि आदिवासियों के हित लगातार हाशिए पर हैं. सवाल किसी एक पार्टी या एक सरकार का नहीं है. पहले की सरकारों ने भी ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर आदिवासियों को निशाना बनाया, सलवा जुडूम बनाकर आदिवासियों को आपस में लड़ाकर मारा, आदिवासियों की जमीनें औने-पौने दामों में पूंजीपतियों को दीं, आदिवासियों को विकास के नाम पर विस्थापित किया व उनका पुनर्वास सुनिश्चित नहीं किया और आदिवासियों की भाषा-संस्कृति तक पर हमला किया.
देश की संविधान सभा ने आदिवासियों से उनके अधिकारों और स्वायत्तता की रक्षा का वादा किया लेकिन आज उस वादे को निभाने वाला कोई दिखाई नहीं देता. आज न कोई आदिवासियत को समझने वाला, न आदिवासी हितों को समझने वाला. शातिर राजनीति से दूर होने के कारण आदिवासी एक राजनीतिक समूह के रूप में भी नहीं उभर पाये हैं. ढेरों चुनाव आये और गए. आदिवासी बद से बदतर हालत में पहुंचते गए. अब फिर एक बड़ा चुनाव सामने है. आदिवासियों के सामने भी फिर वही सवाल है- किसपे भरोसा करें! चुनावी लोकतंत्र जिस तरह से धनबल, बाहुबल और मीडिया बल की गिरफ्त में फंस चुका है, आदिवासियों के समक्ष इसमें शामिल होने का विकल्प भी नहीं बचा है.
(डॉ. मीणा तुर्की के अंकारा विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. साथ ही वे जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर भी हैं)