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Wednesday, 18 December, 2024
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बेरोज़गारी का वार इस चुनाव में हो सकता है घातक, भाजपा इसको हल्के में न ले

बेरोज़गारी का संकट उतना प्रत्यक्ष नहीं जितना कि खेतिहर संकट और राफेल मामला. पर इसका सबसे घातक असर 2019 के चुनावों पर हो सकता है.

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क्या इस चुनाव में बेरोज़गारी महीनी से मार करने वाला सबसे घातक सियासी हथियार साबित होने जा रही है? 17वीं लोकसभा के लिए आम चुनावों की औपचारिक घोषणा के बाद के इस पहले हफ्ते में जब सियासत का पारा राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर ऊंची छलांग लगाने के बाद एक बार फिर से लुढ़ककर रोज़मर्रा के सरोकारों पर आ टिका है, तो हमें सबसे पहला सवाल यही पूछना चाहिए. सारे सबूत इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि बेरोज़गारी इस चुनाव में सबसे घातक सियासी हथियार साबित होने जा रही है. लेकिन संभव है, ऐसा ना भी हो.

आइए, शुरुआत कुछ ठोस आंकड़ों के सहारे करें. बेंगलुरु की अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्पलॉयमेंट ने 2018 के नवंबर में नौकरियों तथा बेरोज़गारी के हालात पर एक रिपोर्ट स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया नाम से पेश की. इस रिपोर्ट में रोज़गार के मोर्चे पर मौजूदा हालात का एक तरह से सार-संक्षेप प्रस्तुत किया गया है. एक अदृश्य अर्द्ध-बेरोज़गारी का रोग तो इस देश में बरसों से रहा है लेकिन उसकी रोकथाम कर पाना मुमकिन था. रिपोर्ट के मुताबिक अब हम अर्द्ध-बेरोज़गारी की स्थिति से आगे निकलकर आंखों के आगे एकदम मुंह बाये खड़ी खुली बेरोज़गारी के मुहाने तक आ पहुंचे हैं और इस समस्या को संभाल पाना बहुत मुश्किल है. रिपोर्ट का आकलन है कि खुली हुई बेरोज़गारी की यह समस्या शिक्षित तथा नौजवान तबके में 5 फीसद से लेकर 15 फीसद तक हो सकती है. स्पष्ट बेरोज़गारी की यह स्थिति अलग से है यानि, लोगों को हमेशा हलकान रखने वाली, काम की तुलना में कम मेहनताना देने वाली और पुराने तर्ज़ की अर्द्ध-बेरोज़गारी का चंगुल तो बदस्तूर चला ही आ रहा है तिसपर खुली हुई बेरोज़गारी की एक नई मुश्किल आन खड़ी हुई है.

अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी की इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद बेरोज़गारी के साक्ष्य देते दो और रिपोर्ट सार्वजनिक जनपद में आये हैं. सरकार ने तो खूब जुगत भिड़ गयी कि रिपोर्ट बाहर ही ना आये लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन  (एनएसएसओ) का आवधिक लेबर फोर्स सर्वे रिपोर्ट लीक हो गया और इस रिपोर्ट से पता चलता है कि 2018 में बेरोज़गारी 6.1 प्रतिशत पर जा पहुंची है. बेरोज़गारी का आकलन 1972 से शुरु हुआ था, उसके बाद से अबतक की यह सबसे विकराल स्थिति है. एनएसएसओ की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि मोदी-राज में बेरोज़गारी के मोर्चे पर हालात पहले की तुलना में ज़्यादा संगीन हुए हैं और अंदेशा है कि नोटबंदी के बाद के वक्त में हालात और भी ज़्यादा बिगड़े हों- सबसे गहरी चोट महिला कार्यबल को लगी है, महिला कामगार सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी का शिकार हुई हैं. सेंटर फॉर दि मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) के एक विश्वसनीय सर्वेक्षण का आकलन है कि बढ़ती हुई बेरोज़गारी का पारा ऊपर चढ़कर 6.9 प्रतिशत पर जा पहुंचा है. सीएमएआई की हाल की रिपोर्ट का आकलन है कि 2017 के दिसंबर से 2018 के दिसंबर के बीच 1 करोड़ 10 लाख नौकरियां खत्म हो चुकी हैं.

इन विश्वसनीय आंकड़ों के पक्ष में ज़मीनी स्तर की ढेर सारी रिपोर्ट्स तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से निकलकर आने वाले आकलनों को पेश किया जा सकता है. इंडियन मैन्युफैक्चर्रस आर्गेनाइज़ेशन तथा कंडफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने भी माना है कि बड़ी तादाद में नौकरियां खत्म हुई हैं. कई क्षेत्रों मे नौकरियां कम हो गई हैं- इस संकट को क्षेत्रवार कई रिपोर्टों में दर्ज किया गया है. और, हम यह तो खैर जानते ही हैं कि दो-चार की तादाद में कही किसी सरकारी नौकरी के लिए विज्ञापन निकलता है तो उसके लिए लाखों की तादाद में नौजवान आवेदन-पत्र भेजते हैं.

इनकार, उलटबांसी, भुलावे और आंकड़ों की बाजीगरी की सरकार ने हज़ार कोशिशें कर लीं लेकिन सच्चाई आखिरकार लोगों के सामने है. तीन बातें इतनी ज़ाहिर हैं कि आप मुंह फेरे रहें तो भी वो आपकी आंखों में घुप जायेंगी. एक तो यह कि हमलोग बेरोज़गारी की बढ़ते संकट में फंस चुके हैं. दूसरी बात यह कि मोदी-राज में बेरोज़गारी के मोर्चे पर हालात और भी ज़्यादा संगीन हुए हैं. और तीसरी बात कि नोटबंदी तथा जीएसटी पर हड़बड़ी में अमल सरीखी बेतुकी नीतियों ने बेरोज़गारी के मोर्चे पर स्थिति को बिगाड़ने में योगदान किया है.

लेकिन राजनीति सच्चाई के ठोस आंकड़ों भर का नाम नहीं. असल सवाल है: क्या लोग रोज़गारहीनता से उपजते संकट का अहसास कर पा रहे हैं? पिछले एक साल के ओपिनियन पोल पर नज़र डालें तो यही नज़र आता है कि तमाम सर्वेक्षणों में बीजेपी और मोदी को चुनाव की दौड़ में सबसे आगे बताया गया है, तो भी इन सर्वेक्षणों से यह बात झांकती है कि लोग बेरोज़गारी के संकट का अनुभव कर रहे हैं. बेरोज़गारी लोगों की प्राथमिकता के मुद्दों में शीर्ष पर है- यह बात हर सर्वेक्षण से निकलकर सामने आयी है. सीएसडीएस के भरोसेमंद ‘मूड ऑफ दि नेशन’ सर्वेक्षण में मई महिने में आया है कि 26 फीसद मतदाताओं ने बेरोज़गारी को प्रधान मुद्दा माना. ये सीएसडीएस के इसके पहले किए गये सर्वेक्षणों से दोगुना है: 2014 में ये 8 प्रतिशत थी, 2009 में 13 प्रतिशत और 1996 में 12 प्रतिशत रहा. बालाकोट की घटना के बाद इंडिया टुडे ने प्रातिनिधिक स्तर का एक टेलीफोनिक सर्वे किया. इस सर्वे में भी 36 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा है कि वे लोग बेरोज़गारी के मसले को प्रधान मानकर ही अपना वोट डालेंगे. इसकी तुलना में 23 प्रतिशत मतदाताओं ने कहा कि उनके वोट डालने का फैसला आतंकवाद के मुद्दे को ध्यान में रखकर तय होगा जबकि 22 प्रतिशत ने कहा कि खेतिहर संकट को प्रधान मानकर वो अपना वोट डालेंगे.


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आइए, अब ज़रा उन बातों पर गौर करें जो अरुण जेटली ने कही हैं. जेटली का तर्क है कि अगर बेरोज़गारी इतनी ही ज़्यादा है तो फिर लोग सड़क-चौबारे इसके बारे में आवाज़ क्यों नहीं उठा रहे ? इसका जवाब है कि दरअसल, लोग आवाज़ तो उठा रहे हैं. आप रोज़मर्रा के समाचारों पर गौर कीजिए- आपको दिख जायेगा हर दिन रोज़गार से जुड़े मसलों पर कहीं ना कहीं विरोध-प्रदर्शन हो रहा है. पिछले महीने मगध विश्वविद्यालय के छात्रों ने अपने परीक्षाफल के प्रकाशन में हो रही देरी को लेकर पटना में विरोध-प्रदर्शन किया, पुणे में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर चुके विद्यार्थियों ने विरोध-प्रदर्शन किया कि आखिर उन्हें जूनियर इंजीनियर के पद पर बहाली के लिए आवेदन-पत्र भरने से क्यों रोका जा रहा है? यूपी में पुलिसकर्मी के रुप में चयनित उम्मीदवारों ने विरोध-प्रदर्शन किया कि आखिर उन्हें नियुक्ति क्यों नहीं दी जा रही. और फिर यह भी गौर कीजिए कि गुजरात में पाटीदार, महाराष्ट्र में मराठा, आंध्रप्रदेश में कापू तथा हरियाणा में जाट समुदाय के लोग विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. फिर युवा अधिकार मार्च तथा युवा हल्ला बोल सरीखे मंचों से राष्ट्रीय स्तर के भी कुछ विरोध-प्रदर्शन हुये हैं- तो फिर हम इन सारे विरोध-प्रदर्शनों को किस रुप में देखें-सोचें?

यह बात सही है कि बेरोज़गारी का संकट उतना प्रत्यक्ष नहीं जितना कि खेतिहर संकट. और, राफेल मामले या फिर भ्रष्टाचार के अन्य मामलों को लेकर जिस तरह का सियासी ध्रुवीकरण देखने में आया है उतना बेरोज़गारी के मुद्दे पर नहीं. बेरोज़गारी का दंश झेल रहे लोग इसे निजी नाकामयाबी या फिर निजी दुर्भाग्य के रुप मे देखते हैं- वे बेरोज़गारी की स्थिति को व्यवस्थागत अन्याय के रुप में नहीं देखते. बेरोज़गारी की चपेट में आये लोग निजी दायरों में अपनी इस समस्या का निदान ढूंढते हैं- किसी सामूहिक निदान की दिशा में पहल नहीं करते. बेरोज़गारी के कारण कई तरह की प्रतिक्रियाएं और विरोध-प्रदर्शनों ने उभार लिया है. लेकिन, बेरोज़गारी की चपेट में आये लोगों की कोई राष्ट्रीय स्तर की लामबंदी अभी तक नहीं हो पायी है. ऐसा कोई बना-बनाया मंच नहीं हैं जहां छात्र, नौकरी की आस लगाये बेरोज़गार अभ्यर्थी, ठेके पर जैसे-तैसे रखे गये कामगार तथा रोज़गार के लिहाज़ से नाकाबिल मान लिये गये नौजवान एकजुट होकर खड़े हो सकें. ऐसा कोई सकारात्मक अजेंडा भी नहीं है कि विरोध-प्रदर्शन करने वाले बेरोज़गार नौजवान और उनके समूह उसे अपना बता सकें. इसी कारण बेरोज़गारी आज की तारीख में सबसे चुप्पा मगर सबसे धारदार सियासी मुद्दा है.


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बेरोज़गारी के मुद्दे के इर्द-गिर्द एक सन्नाटा है- ऐसा सोचकर राजनीतिक दल इत्मीनान की सांस ले सकते हैं. वे मान सकते हैं कि बेरोज़गारी ऐसा कोई मुद्दा नहीं बनने जा रही जिससे आम चुनावों की दशा और दिशा तय हो. हो सकता है, राजनीतिक दल सोच की इसी लकीर पर सोच भी रहे हों. लेकिन बेरोज़गारी के मुद्दे के इर्द-गिर्द छाया सन्नाटा ही उसे सबसे ज़्यादा खतरनाक बनाता है. राजनीतिक दलों को अहसास भी ना होगा और यह मुद्दा हाथ से फिसलकर एकदम से विकराल बन जायेगा लेकिन उसका पता-ठिकाना खोजना राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल बना रहेगा. बेरोज़गारी का असर सत्ताधारी पार्टी के पैरों के नीचे की ज़मीन हिला सकता है, वोट एक झटके से दूसरी तरफ मुड़ सकते हैं और वोटों के दूसरी ओर मुड़ने के साथ सियासत के शीर्ष पर राजमुकुट के नीचे का चेहरा बदल सकता है. इसे कहते हैं- चुप्पा वार लेकिन एकदम आर-पार!

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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