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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतओपिनियन पोल करने वाले भले इसे पसंद न करें, पर वे 2004 वाली भूल ही दोहरा रहे हैं

ओपिनियन पोल करने वाले भले इसे पसंद न करें, पर वे 2004 वाली भूल ही दोहरा रहे हैं

2019 के चुनावी पूर्वानुमान भी 2004 की प्रतिकृति साबित हो सकती है याद कीजिए जब अटल बिहारी वाजपेयी अपनी लोकप्रियता के चरम पर होने के बावजूद हार गए थे.

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मौसम चुनावों का है. सो, ओपिनियन पोल की बयार बहने लगी है. हाल-फिलहाल कम से कम तीन देशव्यापी ओपनियन पोल सामने आ चुके है और तीनों ही में पूर्वानुमान है कि बीजेपी तथा उसके साथी दलों की सीटों की संख्या घट जायेगी. लेकिन किसी ने बीजेपी को 200 से कम सीटें नहीं दी हैं. जाहिर है, ये पूर्वानुमान इस सियासी धारणा को पुष्ट करते हैं कि बीजेपी सरकार बनाने के दौड़ में अभी बनी हुई है- पूर्वानुमान से थोड़ी ज्यादा सीटें मिल गयीं तो नरेन्द्र मोदी फिर से सरकार के अगुआ होंगे और सीटें पूर्वानुमान से कुछ कम रहती हैं तो भी सरकार बीजेपी की बनेगी, भले ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कोई और बैठे.

लेकिन मुझे लग रहा है कि ये ओपनियन-पोल गलत हैं. ऐसी कोई गुंजाइश नहीं दिखती कि बीजेपी इस बार के आम चुनाव में 200 सीटों का आंकड़ा छू पायेगी जबकि सीटों के इस आंकड़े तक पहुंचना सरकार बनाने के लिए बहुत जरुरी है.


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तो क्या ओपनियन पोल जानते-बूझते हमें गुमराह करने में लगे हैं ? ना, ऐसी बात नहीं. चुनावी नतीजों के पूर्वानुमानों के मैदान में एक अरसा मैंने भी गुजारा है. मुझे खूब पता है, कोई भी चुनाव-सर्वेक्षक नहीं चाहता कि उसका पूर्वानुमान गलत हो. पेशे के एतबार से देखें तो पूर्वानुमान के गलत होने पर उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. ओपिनियन-पोल में संभावित गलती की वजह तकनीकी है.

बात को समझने के गरज से यहां हम याद करें कि प्रणव रॉय ओपनियन पोल से जुड़ी दो त्रुटियों टाइप-1 एरर और टाइप-2 एरर में भेद किया करते थे. आमतौर पर चुनाव सर्वक्षकों से टाइप-1 एरर वाली ही चूक होती है. चुनाव-सर्वेक्षक जोखिम नहीं लेना चाहते, सो बड़ा एहतियात बरतते हैं. वे ये तो भांप लेते हैं कि चुनावी मुकाबले में जीत किसकी होने जा रही है लेकिन यह नहीं जान पाते कि जीत कितने बड़े पैमाने पर होगी. हाल-फिलहाल से उदाहरण लेना चाहें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी और उत्तरप्रदेश में बीजेपी की जीत को याद कर लीजिए. ज्यादातर चुनाव-सर्वेक्षकों ने ठीक पकड़ा कि जीत किस पार्टी की होगी लेकिन यह समझने में चूक गये कि पार्टी की जीत किस बड़े पैमाने पर होगी.


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टाइप-2 श्रेणी की गलती होने पर चुनाव-सर्वेक्षक सही विजेता का पूर्वानुमान नहीं कर पाता या फिर बहुत बड़ी जीत का पूर्वानुमान लगा बैठता है और नतीजा इससे अलग आता है. टाइप-2 श्रेणी की गलती चुनाव-सर्वेक्षकों के लिए किसी दुःस्वप्न से कम नहीं. चुनाव-सर्वेक्षक जोखिम उठाये और अपनी नजर सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों से निकलते निष्कर्ष पर टिकाये रहें तो टाइप-2 एरर होने की आशंका रहती है. इस तरह की एक गलती खुद मुझसे 2017 में हुई- तब मैंने जोश ही जोश में कह दिया था कि बीजेपी गुजरात में मुकाबला हार जायेगी.

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बीते चार हफ्ते में दो भरोसेमंद चुनाव-सर्वेक्षणों पर मेरी नजर गई है. इन सर्वेक्षणों में बीजेपी की सीटों की संख्या में कमी होने के पूर्वानुमान लगाये गये हैं और सीटों में कमी के आंकड़े को ही अंतिम नतीजे के रूप में पेश कर दिया गया है. चुनाव-पूर्व हुये सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर सर्वेक्षकों ने पूर्वानुमान लगाया था कि राजस्थान के चुनावी मुकाबले में कांग्रेस की एकतरफा जीत होने वाली है और उस वक्त भी सर्वेक्षक ‘टाइप-2 एरर’ से गच्चा खा गये थे जबकि आंकड़े सही थे.

साल 2004 में यही बात हुई थी. लग रहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पांच साल का अपना कार्यकाल कामयाबी से पूरा कर लिया है. वाजपेयी की लोकप्रियता का ग्राफ उस वक्त विपक्ष के किसी भी नेता की तुलना में ऊंचा था. ये भी कहा जा रहा था कि अर्थव्यवस्था में बहार छायी है, इंडिया ‘शाइन’ कर रहा है. बीजेपी ने राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव भी जीते थे. वाजपेयी ने आम चुनाव छह महीना आगे खिसकाये तो हर चुनाव-सर्वेक्षक यही मानकर चल रहा था कि बीजेपी 300 से ज्यादा सीटों के साथ सरकार बनायेगी.

चुनाव की तारीख से तुरंत पहले के चुनाव-सर्वेक्षणों में एनडीए को 271 सीट मिलती बतायी. तमाम एक्जिट पोल में एनडीए को जितनी सीटें मिलती बतायी गईं उनका औसत निकालें तो आंकड़ा 255 सीटों का निकलता है. सो, तमाम बातें इशारा कर रही थीं कि सरकार फिर से अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनने जा रही है. लेकिन जब नतीजे आये तो एनडीए 187 सीटों पर सिमट गई. बीजेपी को बस 145 सीटें मिली थीं और वाजपेयी मुकाबले में एकदम फिसड्डी बनकर रह गये.

आखिर 2004 में गलती कहां हुई थी ? दरअसल, सभी चुनाव-सर्वेक्षकों ने बीजेपी को हो रहे सीटों के घाटे को कम करके आंकने में एहतियात बरता. लेकिन, चूंकि सीटों की संख्या के मामले में चुनाव-सर्वेक्षक ये गलती कर चुके थे सो छोटी-छोटी चूक एक साथ मिलकर भयंकर गलती में बदल गईं. अमूमन, लोकसभा चुनावों के नतीजों का पूर्वानुमान करना आसान होता है क्योंकि राज्य-स्तर पर टाइप-1 श्रेणी की चूक हुई भी हो तो राष्ट्रीय फलक पर ऐसी चूकों का समीकरण एक-दूसरे के मुकाबिल होकर आकलन के पलड़ों के बीच संतुलन साध देता है. आपने एक राज्य में किसी पार्टी की मिलने जा रही सीटों की संख्या को बढ़ती पर रखा है तो दूसरे राज्य में उसी पार्टी के खाते में जा रही सीटों की संख्या को घटती पर रखते हैं, सो हिसाब में कमोबेश बराबरी चली आती है.

लेकिन 2004 में हर चुनाव-सर्वेक्षक ने ज्यादातर राज्यों में बीजेपी की सीटों की संख्या में होने जा रहे नुकसान को छोटा करके आंका. ऐसा उन राज्यों में खासतौर पर हुआ जहां बीजेपी की सीधी टक्कर कांग्रेस से थी. ऐसे में पूर्वानुमान में होने वाली एक जगह की चूक, दूसरी जगह की चूक के मुकाबिल ना हो सकी और हिसाब बराबर होने की जगह एक तरफ झुकता चला गया क्योंकि एक सी चूक लगातार जमा होती रही. इस तरह टाइप-1 एरर ने आखिर में टाइप-2 एरर का रूप ले लिया और लोगों ने देखा कि चुनाव-सर्वेक्षकों से चुनावी मुकाबले का विजेता बता पाने में भारी गलती हो गई है.

डर है कि साल 2019 के आम चुनावों में चुनावी पूर्वानुमानों का हश्र 2004 वाला ही ना हो जाये. एक राज्य में होने वाली चूक दूसरे राज्य में होने वाली चूक के मुक़ाबिल होने से हिसाब को बराबरी पर ले आती है, यह तर्क बेशक दमदार है लेकिन ये तर्क हिन्दीपट्टी के बाहर पड़ने वाले 317 सीटों पर लागू होगा.

मिसाल के लिए, ऐसे समझें कि तमिलनाडु में अगर आप सर्वेक्षण में डीएमके और साथी दलों को हासिल होने जा रही सीटों की संख्या बढ़ती पर रखते हैं तो फिर वाईएसआर कांग्रेस को मिलने जा रही सीटों की संख्या को घटती पर रखने से एक जगह की चूक दूसरी जगह की चूक से बराबर हो जायेगी. इसी तरह अगर किसी चुनाव-सर्वेक्षण में कांग्रेस को गुजरात में हासिल होने जा रही सीटों को ज्यादा करके बताया तो कर्नाटक में पार्टी को मिलने जा रही सीटों को कम करके बताने से हिसाब बराबर का बैठेगा.

लेकिन हिन्दीपट्टी की 226 सीटों में आकलन की तमाम त्रुटियां एक ही तरफ जमा हो जायेंगी. याद करें कि बीजेपी को 2014 में हिन्दीपट्टी में 191 सीटें (साथी दलों को जोड़ लें तो सीटों की संख्या 202 हो जाती है) जीती थीं. सो, सीटों की संख्या के मामले में इस ऊंचाई पर पहुंच जाने के बाद बीजेपी को हिन्दीपट्टी में सीटें खोनी हैं. लेकिन, छाछ को फूंक-फूंककर पीने की शैली में अपना गणित करने वाला हर चुनाव-सर्वेक्षक बीजेपी को तमाम सूबों में सीटों के मामले में होने जा रहे नुकसान को तनिक कम आंकते हुये चलेगा.

मतलब, अगर सर्वेक्षण से निकलकर आ रहा है कि बीजेपी को यूपी में 12 सीटें मिल रही हैं तो चुनाव-सर्वेक्षक इजाफत का खेल करके मान लेगा कि कि यूपी में बीजेपी की झोली में 20 सीटें आ रही हैं. अगर सर्वेक्षण में ये निकलकर आ रहा है कि कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में 10 सीटें मिल रही हैं तो जोखिम से जान छुड़ाकर रखने की नीयत से चुनाव-सर्वेक्षक मानकर चलेगा कि कांग्रेस को छत्तीसगढ़ ज्यादा से ज्यादा 7 सीटें मिलेंगी. चूंकि ऐसी तमाम गलतियां बीजेपी के फायदे में हो रही हैं सो आखिरकार चुनाव-सर्वेक्षक सत्ताधारी पार्टी को जितनी सीटें हासिल होने के इमकान हैं, उसमें 30 से 50 सीटों की इजाफत कर देगा.

मैं ये नहीं कह रहा कि इस बार के आम चुनाव में आप ओपिनियन पोल या फिर चुनावी भविष्यवाणियों पर नज़र रखना छोड़ दें. दरअसल, मैं तो हमेशा ही कहता हूं कि चुनावी-सर्वेक्षण चाहे कितना भी कच्चा क्यों ना हो वो ड्राइंगरूम या न्यूजरूम में होने वाली चुनावी गप-गोष्ठियों की तुलना में कहीं ज्यादा जानकारी भरा होता है. हां, मैं ये सिफारिश जरुर करुंगा कि आप वास्तविक और दिलचस्प जान पड़ते रुझानों पर गौर करें, सिर्फ ये ही ना देखते रहें कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलने जा रही हैं.

किसी चुनाव-सर्वेक्षण का ज्यादा अहम हिस्सा ये होता है कि किस पार्टी को कितने प्रतिशत वोट मिल रहे हैं, विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच पार्टी को किस तादाद में वोट मिलने हैं, साथ ही लोग सरकार और उसके नेताओं के बारे में क्या सोच रहे हैं. अगर आप अलग-अलग पार्टियों को मिल रही सीटों के पूर्वानुमान पर गौर कर रहे हैं तो मैं यही कहूंगा कि बीजेपी के खाते में जितनी सीटें बतायी जा रही हैं उसमें से अपनी तरफ से 30 से 50 सीटें घटा दीजिएगा.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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