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Saturday, 21 December, 2024
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रघुराम राजन पर बिफरा हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस, कहा – बयान हिंदुओं के प्रति नफरत दर्शाने वाला

हिंदुत्व समर्थक मीडिया ने पिछले कुछ हफ्तों में विभिन्न खबरों और समसामयिक मुद्दों को कैसे कवर किया और उन पर क्या संपादकीय टिप्पणी की, इसी पर दिप्रिंट का राउंड-अप.

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नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने अपने एक संपादकीय में कहा है कि यद्यपि दुनिया भारत में उज्ज्वल संभावनाएं देखती है लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन जैसे ‘निश्चल धर्मनिरपेक्ष समाजवादी’ धर्म के प्रति गलत और अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल कर ‘हिंदुओं के प्रति अपनी घृणा’ को प्रदर्शित कर रहे हैं.

दरअसल, इस संपादकीय में राजन द्वारा 5 मार्च को समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए उस इंटरव्यू का जिक्र किया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि निजी क्षेत्र के निवेश, उच्च ब्याज दरों और धीमी वैश्विक वृद्धि को देखते हुए भारत ‘खतरनाक ढंग’ से ‘हिंदू विकास दर’ के करीब पहुंच रहा है.

गौरतलब है कि 1978 में दिवंगत अर्थशास्त्री राज कृष्ण ने ‘हिंदू विकास दर’ का शब्द गढ़ा था जिसका इस्तेमाल 1960 और 1980 के दशक के बीच की अवधि के संदर्भ में किया जाता है भारत में आर्थिक वृद्धि काफी धीमी—करीब 4 प्रतिशत प्रति वर्ष—रही थी.

हिंदुत्ववादी लेखकों ने जिन अन्य मुद्दों पर लिखा उनमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी की तरफ से अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार पर जुबानी हमला बोला जाना, तीन पूर्वोत्तर राज्यों मेघालय, त्रिपुरा और नागालैंड में पिछले महीने के विधानसभा चुनावों के परिणाम और कट्टरपंथी सिख नेता अमृतपाल सिंह की गतिविधियां आदि शामिल हैं.

‘हिंदू-विरोधी, भारत-विरोधी’

ऑर्गनाइजर के संपादकीय में कहा गया है कि यह तो वक्त ही बताएगा कि ‘क्या भारतीय अर्थव्यवस्था सकारात्मक रुझान दिखा रही है या नहीं जैसा कि एसबीआई ने बचत और निवेश पर उपलब्ध आंकड़ों के संदर्भ में हालिया जीडीपी संख्या के आधार पर दावा किया है.’

राजन की तरफ से इस्तेमाल शब्दों के जवाब में संपादकीय में लिखा गया, ‘तथ्य तो यही है कि पूरी दुनिया भारत में ‘उज्ज्वल संभावनाएं देख रही है, खासकर कोविड-19 के बाद और एक ऐसे समय में जब विश्व यूक्रेन-रूस युद्ध में उलझा’ है.’

संपादकीय में इस बात पर भी हैरानी जताई गई कि आखिर यह शब्द हिंदू धर्म से क्यों जुड़ा.

संपादकीय में कहा गया, ‘नेहरूवादी समाजवाद का हिंदू सिद्धांतों और विचारों से कोई लेना-देना नहीं था; यहां तक कि खुद नेहरूवादी भी इस बात को स्वीकारेंगे. फिर पश्चिमी उदारवादी विचारों से प्रेरित एक व्यक्ति ने पश्चिम के ही प्रिय एक अन्य सिद्धांत समाजवाद को हिंदू धर्म के साथ क्यों जोड़ा? पाकिस्तान एक बार फिर आर्थिक संकट से जूझ रहा है, लेकिन इस घटनाक्रम को कभी इस्लामी विकास दर नहीं कहा गया. कई यूरोपीय देश आर्थिक गतिरोध और नकारात्मक विकास दर के चक्र से गुजर रहे हैं लेकिन इसे भी ईसाई विकास दर नहीं कहा जाता है.’

इसमें आगे कहा गया, ‘फिर सबसे पुरानी और खुली सभ्यता को बदनाम करने के पीछे क्या कारण हो सकता है? तो इसका जवाब है ‘धर्मनिरपेक्ष’ मानसिकता. पश्चिमी दृष्टिकोण और अब्राहमिक धर्म दोनों में हिंदूफोबिया अंतर्निहित है. खुद को विद्वान साबित करने के लिए किसी भी हिंदू पर प्रतिगामी, पारलौकिक, भाग्यवादी और सांप्रदायिक का ठप्पा लगाना उनकी मूल धारणा का हिस्सा है.

इसी पोर्टल पर एक दूसरे लेख में राजन की तरफ से की गई तुलना को ‘दुर्भावनापूर्ण’ बताया गया, जिसमें कहा गया है कि अर्थशास्त्री ने भारत की विकास गाथा को बदनाम करके अपने ही चरित्र को उजागर किया है.

दूसरी तरफ, दक्षिणपंथी लेखक हरिशंकर व्यास ने इस पर अचरज जताया कि यह मोदी सरकार के लिए चिंता का विषय क्यों है. अपने कॉलम नया इंडिया में व्यास ने कहा, ‘जब अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने हिंदू विकास दर की बात की, तो सत्ता-प्रेमियों ने उन्हें न केवल फर्जी अर्थशास्त्री कहा, बल्कि उन्हें वामपंथी, नेहरू का बेटा और देशद्रोही भी करार दे डाला.’

व्यास आश्चर्य के साथ कहते हैं कि ‘स्वतंत्र भारत के तथाकथित अमृतकाल की सरकार छोटी-छोटी बातों पर इतना रोना-धोना क्यों मचा रही’ है.

उन्होंने आगे कहा, ‘क्यों? क्योंकि यही मानसिकता भारत के कलियुग का मूल तत्व है. झूठ, पाखंड में रहना और सच से दूर रहना भारतीयों का स्थायी स्वभाव है. इसलिए वे सदियों से गुलाम रहे हैं और 21वीं सदी में फिर से गुलाम बन रहे हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सवाल यह है कि जब नरेंद्र मोदी और उनका अमृत काल अमर है तो छोटी-छोटी बातों की चिंता क्यों? वे हार नहीं सकते और जब भाजपा-संघ परिवार हमेशा के लिए हिंदुओं का अधिपति बन गया है, तो आईना दिखाने या सच बोलने वालों से इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? जब दुनिया नरेंद्र मोदी से सीख रही है, तो राहुल गांधी (और) राजन जैसे बेरोजगारों के भाषणों के बारे में शिकायत करने की क्या जरूरत है?’

राहुल गांधी की तरफ से आरएसएस, मोदी सरकार और भारतीय लोकतंत्र की स्थिति सहित तमाम विषयों पर इस महीने के शुरू में ब्रिटेन में की गई टिप्पणियों को लेकर संघ के हिंदी मुखपत्र पांचजन्य सहित देश के तमाम आलोचनाओं से हंगामा खड़ा कर दिया था.

पाञ्चजन्य के एक संपादकीय में कहा गया, यह तो एक ‘आम धारणा’ बन गई है कि गांधी दूसरे देशों में जाकर भारत-विरोधी अभियान चलाते हैं और इसमें कोई नई बात नहीं है.

इसमें आगे कहा गया, ‘यही नहीं मोदी सरकार को गिराने के लिए विदेशों से मदद मांगना भी कोई नई बात नहीं है. समस्या यह है कि भारत के लोकतंत्र की उदारता का घोर दुरुपयोग किया जा रहा है.’ साथ ही जोड़ा गया कि भारतीय लोकतंत्र को ताक पर रखने के निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं.

इसमें यह भी कहा गया, ‘राहुल गांधी की टिप्पणियों से जुड़ा यह घटनाक्रम निश्चित तौर पर इतिहास में दर्ज होगा.’


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पूर्वोत्तर में आरएसएस

ऑर्गनाइजर के एक अन्य लेख में आरएसएस पर कई पुस्तकों के लेखक रतन शारदा ने पूर्वोत्तर भारत में भाजपा की सफलताओं का श्रेय संघ को दिया.

शारदा ने लिखा कि 2 मार्च को तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद लोगों ने कहा कि कैसे भाजपा अपने विकास कार्यों के बल पर इस क्षेत्र में पैठ बना रही है. उन्होंने आगे लिखा कि हालांकि, यह एक अधूरा दृष्टिकोण है.

भाजपा ने त्रिपुरा और नगालैंड में सरकार को बरकरार रखा है जबकि मेघालय में सरकार बनाने के लिए कोनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ गठबंधन किया है.

शारदा ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘पिछले नौ सालों में पूर्वोत्तर में आया यह बदलाव दशकों तक वहां काम करने वाले गुमनाम नायकों की कड़ी मेहनत का नतीजा है. परिवर्तन आना तब शुरू हुआ जब आरएसएस ने 1950 में इस क्षेत्र में अपने 10 प्रचारक भेजे. संघ ने अपनी संस्कृति और सदियों पुरानी परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए स्वदेशी आस्थाओं को नैतिक समर्थन दिया, जिन पर चर्च ने हमला किया था.’

उन्होंने लिखा कि यह एक कठिन कार्य था, जिसे बिना किसी संसाधन और किसी तरह के सामाजिक या राजनीतिक समर्थन के बिना चलाया गया, ‘और यह इलाका 1836 के बाद से ही शत्रुतापूर्ण भावना रखने वाले विभिन्न चर्च के नियंत्रण में था.’

उन्होंने लिखा, ‘आरएसएस कार्यकर्ताओं और प्रचारकों ने उत्पीड़न, धमकी और हिंसा भी झेली.’

अमृतपाल सिंह पर क्या लिखा गया

ऑर्गनाइजर के लिए एक लेख में रक्षा और सुरक्षा विश्लेषक कर्नल जयबंस सिंह (सेवानिवृत्त) ने लिखा कि कट्टरपंथी सिख एक्टिविस्ट अमृतपाल सिंह ने पूरी सक्रियता के साथ एक अलगाववादी एजेंडा चला रखा है.

24 फरवरी को अजनाला में हुई घटना—जब अमृतपाल और उनके समर्थकों ने अपने एक सहयोगी की रिहाई के लिए एक पुलिस स्टेशन पर धावा बोल दिया और झड़प के दौरान छह पुलिसकर्मी घायल हुए थे—का जिक्र करते हुए लेख में कहा गया है कि पंजाब संकट सुलझाने के लिए सरकारों सहित सभी हितधारकों को तुरंत अपने संसाधनों के साथ मुस्तैद हो जाना चाहिए.

जयबंस सिंह ने लिखा, ‘अमृतपाल केवल 10वीं पास है और जीविका चलाने के लिए विदेश चला गया क्योंकि उसे भारत में अपना कोई भविष्य नहीं दिखता था. अब, वह जटिल राजनीतिक और सामाजिक सिद्धांतों की बातें करके स्पष्ट तौर पर खालिस्तान की मांग की पुरजोर वकालत कर रहा है. जाहिर है, यह उसे सिखाया-पढ़ाया गया है. हमारा अनुभव यही बताता है कि स्पष्ट तौर पर इस सबके पीछे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ है. वह संभवत: एक विदेशी शत्रु की तरफ से प्रायोजित एजेंट है, जो आप के नेतृत्व वाली सरकार की कमजोरी का फायदा उठाकर सीमावर्ती राज्य में असंतोष और विभाजनकारी भावनाएं भड़काने पंजाब आया है.

यह लेख उन खबरों के कुछ दिनों बाद आया है जिनमें कहा गया था कि आरएसएस ने अपने हरियाणा सम्मेलन में पंजाब पर चर्चा की थी.

पाञ्चजन्य में एक लेख में पत्रिका के कंट्रीब्यूटर अजय खेमरिया ने भारत में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के कामकाज पर सवाल उठाया. उन्होंने गैर-सरकारी संगठनों के लिए सख्त नियमन की मांग की, खासकर उनके फंड और इनके इस्तेमाल के तरीकों को लेकर.

ओपिनियन पीस में कहा गया, ‘यह महज संयोग नहीं है कि जिन संगठनों को मिशनरी संस्थानों के जरिये विदेशी पैसा मिलता है, उन्हें इस देश में सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) से भी बड़ी रकम मिल रही है. यही नहीं, यूनिसेफ भी इनमें से अधिकांश संगठनों को शिक्षा, स्वास्थ्य और बाल कल्याण के नाम पर एक बड़ी राशि दे रहा है. पिछले 9 साल में देश में करीब 1.26 लाख करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं.’

लेख में दावा किया गया कि इस राशि का केवल आधा हिस्सा विभिन्न एनजीओ के माध्यम से जन कल्याण और विकास पर खर्च किया गया है.

आदतन आंदोलन करने वालों के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से इस्तेमाल किए गए शब्द का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा, ‘जांच से पता चलता है कि कुछ बड़े एनजीओ अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर यह राशि हासिल करते हैं और फिर सहयोगी एनजीओ के नाम पर ऐसे संगठनों को दे देते हैं, जो सीधे तौर पर आंदोलनजीवी वर्ग से जुड़े हैं.’


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भारत और जी-20

स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक अश्विनी महाजन ने जी-20 की भारत की अध्यक्षता पर दैनिक जागरण में अपने एक लेख में लिखा कि दुनिया के सबसे बड़े देश ‘विभिन्न मोर्चों पर विफल हो रहे हैं.’

उन्होंने लिखा, ‘मौजूदा वैश्विक संस्थाओं के संविधानों में विश्व बंधुत्व, शांति, विकास, आपसी सहयोग जैसी बातों का जिक्र तो है. लेकिन असल में दुनिया के तमाम बड़े देश ही उन सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहे.’

उन्होंने आगे लिखा, ‘दुनिया के सबसे बड़े देशों का सबसे शक्तिशाली समूह जी-20 समूह—जहां से दुनिया की 85 प्रतिशत जीडीपी आती है, जहां दुनिया की दो-तिहाई आबादी रहती है, और जो दुनिया के कुल व्यापार में 75 फीसदी की हिस्सेदारी रखता है—के लिए भारत ने ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ को ही अपना आधारबिंदु बना रखा है.

महाजन ने लिखा, यदि भारत वास्तव में दुनिया को एक नई वैश्विक व्यवस्था की ओर ले जाने में सफल होता है तो वित्तीय अस्थिरता, आतंकवाद, संघर्ष, भोजन और ऊर्जा असुरक्षा जैसी समस्याओं को हल करने के लिए एक वैश्विक सहमति बन सकती है.

‘एक जीवंत लोकतंत्र’

आरएसएस विचारक और पूर्व भाजपा नेता राम माधव ने विवादास्पद और अब खत्म किए जा चुके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के बारे में एक लेख लिखा.

द इंडियन एक्सप्रेस के लिए अपने लेख में माधव ने तर्क दिया कि न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित निकाय एनजेएसी—जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में खारिज कर दिया था—पर बहस और असहमति भारतीय लोकतंत्र का जीता-जागता उदाहरण है.

माधव ने लिखा, ‘न्यायपालिका स्वतंत्र रहती है. संसद के अंदर और बाहर न्यायिक निरीक्षण और हस्तक्षेप पर सवाल उठाए जाते हैं और जोरदार बहस की जाती है, लेकिन इसके पीछे इरादा इसकी स्वतंत्रता को कम करने का कतई नहीं होता है. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के माध्यम से उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को सुव्यवस्थित करने के संसद के फैसले को सरकार ने तब रोक दिया जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था.’

उन्होंने आगे लिखा, ‘कई प्रतिष्ठित न्यायविद इस राजनीतिक दृष्टिकोण से सहमत हैं कि कॉलेजियम प्रणाली को एक अधिक संतुलित व्यवस्था से बदला जाना चाहिए. इसके गठन पर असहमति एनजेएसी फिर से बनाने में देरी की वजह है, लेकिन यह देरी अपने आप में भारत के लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण है.’

माधव ने साथ ही लिखा, जवाहरलाल नेहरू ने खुद भी कई बार ‘अलोकतांत्रिक होने को लेकर’ कांग्रेस में अपने सहयोगियों की तरफ से ही कड़ी आलोचना का सामना किया था.

उन्होंने लिखा, ‘मोरारजी देसाई ने उन्हें दिखावापसंद बताया और दुर्गा दास के शब्दों में वह ‘एक अच्छे अभिनेता’ थे. नेहरू के सहयोगी और मध्य प्रदेश के (तत्कालीन) मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्र ने लिखा था कि ‘नेहरू राज में लोकतंत्र का दाना गायब हो गया और भूसी रह गई’ है.’

राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के संदर्भ में उन्होंने लिखा कि भारतीय लोकतंत्र अपने शिखर पर पहुंच गया जब एक आदिवासी ने सर्वोच्च संवैधानिक पद संभाला.

उन्होंने कहा, ‘पिछड़े वर्ग के किसी नेता का सरकार में सर्वोच्च पद पर पहुंचना आसान नहीं होता. कैबिनेट में 60 फीसदी से ज्यादा भागीदारी एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं की है. फिर भी, अगर कुछ नेता यह कहते हैं कि यह परिपक्व और समावेशी लोकतंत्र खतरे में है, तो यह या तो उनकी राजनीतिक विफलताओं पर हताशा का नतीजा हो सकता है या फिर इसकी वजह अपने पूर्वजों से मिली सामंती मानसिकता है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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