नई दिल्ली: हाल ही में नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले के दौरान पत्रकार और पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर की पसमांदा क्रांति पर उनकी नई किताब काफी चर्चा में रही. कुछ ही मिनटों में किताब की 50 कॉपियां बिक गईं. अनवर से इस पर साइन कराने के लिए लोगों का तांता लगा हुआ था.
राजकमल प्रकाशन के मैनेजिंग डायरेक्टर अशोक माहेश्वरी ने अनवर की नई किताब ‘संपूर्ण दलित आंदोलन- पसमांदा तसव्वुर’ के बारे में बात करते हुए कहा, ‘इस साल अन्य आयोजनों के मुकाबले में यह इवेंट अब तक का सबसे लोकप्रिय था.’
माहेश्वरी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘लेकिन यह हैरानी की बात नहीं है क्योंकि पसमांदा अभी एक हॉट टॉपिक है क्योंकि बीजेपी ने उन पर ध्यान केंद्रित कर रही है.’
2022 का दिल्ली नगर निगम चुनाव भारत के पसमांदा मुसलमानों के लिए काफी अहम था और जाहिर तौर पर मंडल लामबंदी के बाद से सबसे बड़ा राजनीतिक विकास था. जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई 2022 में हैदराबाद में नई पारी के संकेत दिए हैं तब से ‘पसमांदा’ शब्द रोज़मर्रा की राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा बन गया है. इसके साथ ही भारतीय राजनीति में नई-नई चिंताएं अब जगह ले रही हैं.
‘पसमांदा’ का अर्थ होता है ‘पीछे छोड़ दिए गए’ या ‘उत्पीड़ित लोग’, और दलित और हाशिए के मुस्लिम समूहों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक आकर्षक लेबल है. वो भारत के मुसलमानों में लगभग 85 प्रतिशत की हिस्सेदारी निभाते हैं. लेकिन यह इलीट वर्ग है, जिसे ‘अशरफ’ या नोबेल कहा जाता है, जो सभी सार्वजनिक राजनीतिक नरैटिव में काफ़ी हावी हैं.
बीजेपी एमसीडी का चुनाव आम आदमी पार्टी से हार गई थी लेकिन अब 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पसमांदाओं को लामबंद करने के लिए एक रोडमैप तैयार कर रही है जिसके तहत 30 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले 60 निर्वाचन क्षेत्रों की पहचान करने, स्कूटर यात्रा निकालने, स्नेह सम्मेलनों और व्यक्तिगत बैठकों के माध्यम से पहुंच बनाने की योजना है.
यह सब ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित और मुख्यधारा के नरैटिव से अलग-थलग किए गए एक समुदाय को प्लेटफॉर्म देने के लिए है.
बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष और पार्टी के पसमांदा चेहरों में से एक जमाल सिद्दीकी ने कहा, ‘हम पर शासन करने वाली सरकारों ने हमें पसमांदा बनाया है. पहले अशराफ हमारे समाज से फायदा उठाते थे. कोई भागीदारी नहीं थी.’
बीजेपी पसमांदा समुदाय के कुछ प्रमुख सदस्यों – दानिश आज़ाद अंसारी को राज्य मंत्री, अल्पसंख्यक कल्याण और वक्फ विभाग के रूप में प्रमुख पद देकर बात को आगे बढ़ा रही है; यूपी अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के रूप में अशफाक सैफी और इफ्तिखार जावेद यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन के चेयरमैन बने. अंसारी वर्तमान में आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल में एकमात्र मुस्लिम हैं.
बीजेपी ने दिल्ली में अपनी यूपी प्लेबुक से निकाल कर एक कार्ड खेला है. इसने एमसीडी चुनाव में चार पसमांदा चेहरों को मैदान में उतारा- चौहान बांगर से सबा गाजी, शमीना रजा (कुरेश नगर), शबनम मलिक (मुस्तफाबाद) और इरफान मलिक (चांदनी महल).
सभी चार उम्मीदवारों को शिकस्त का सामना करना पड़ा लेकिन इस रणनीति से बीजेपी को राष्ट्रीय राजधानी के प्रमुख मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में पैर जमाने में मदद मिली.
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भरोसे की कमी
लेकिन आज, गाज़ी और अन्य पसमांदा मुस्लिम उम्मीदवार खुद को एक अजीब स्थिति में पाते हैं, वो बीजेपी की राजनीति और समुदाय के भीतर पार्टी के प्रति अविश्वास को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. ये सभी अन्य दलों द्वारा मैदान में उतारे गए मुस्लिम उम्मीदवारों से हार गए. मुस्तफाबाद से जीतीं कांग्रेस उम्मीदवार सबिला बेगम भी पसमांदा समुदाय से हैं.
बीजेपी के साथ पिछले आठ से दस साल से जुड़े 60 वर्षीय इरफान मलिक ने कहा, ‘जिन क्षेत्रों में बीजेपी कदम नहीं रख सकती थी, हमने उन्हें वहां से वोट दिलवाए हैं. हम सिर्फ एक एक्सपेरिमेंट हैं, जो पार्टी के लिए सफल होता दिख रहे हैं.’
महामारी और कई लॉकडाउन के दौरान, वह परिवारों को राशन मुहैया कराने का काम कर रहे थे.
33 वर्षीय गाज़ी ने कहा, ‘अशरफ नहीं चाहते कि हम आगे बढ़ें लेकिन बीजेपी ने हमें एक मौका दिया है.’ वह भले ही बुरी तरह चुनाव हार गई हों लेकिन वह अपने राजनीतिक सपनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.
हालांकि, वोटर्स के बीच भरोसे की कमी है, जिनमें से ज्यादातर का कहना है कि वे गाज़ी से कभी नहीं मिले हैं, यह उनके लिए चीजों को थोड़ा और मुश्किल कर देता है.
चौहान बांगर के निवासी मतीन अहमद ने कहा, ‘यह कैसे पसमांदा हैं चुनावों पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं? पसमांदा गरीब और पिछड़े होते हैं. ये लोग हमसे मिलने कभी नहीं आते हैं और न ही हमसे कोई संबंध रखते हैं.’
योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा लोगों के घरों और व्यवसायों को ढाहने के लिए बुलडोजर के इस्तेमाल के मलिक के समर्थन ने निवासियों में नाराजगी पैदा की है.
मलिक ने दिप्रिंट से कहा ‘आज, उत्तर प्रदेश में अपराध ख़त्म हो गया है. महिलाएं रात में सोने के गहने पहनकर बाहर जा सकती हैं क्योंकि लोगों ने सबक सीख लिया है कि अगर आप कुछ गलत करेंगे, तो आपके घर पर बुलडोज़र चला दिया जाएगा और आपको इसकी सज़ा ज़रूर मिलेगी.’
भले ही बीजेपी की पसमांदा राजनीति आज मुसलमानों के बीच बातचीत का हिस्सा बनती जा रही है, लेकिन बात गहराई तक अभी भी नहीं पहुंच पाई है. जब ऐसा होता है तो पहचान और विचारधारा के बीच संतुलन बनाना असहज हो जाता है. वे नए विचार का स्वागत करते हैं और उम्मीज जताते हैं कि उनके गड्ढों, खुले-नाले वाले इलाकों को एक नया रूप मिले, लेकिन वे हिंदुत्व के नाम पर गरीब मुस्लिम विक्रेताओं और दुकानदारों पर हमलों को नजरअंदाज भी नहीं कर सकते हैं.
विधानसभा क्षेत्र मटिया महल की एक महिला ने कहा, ‘जब तक कोई उम्मीदवार बीजेपी में है, उसके लिए वोट हासिल करना मुश्किल है. हम इन उम्मीदवारों के खिलाफ नहीं हैं लेकिन वे जिस विचारधारा का समर्थन करते हैं हमें उससे समस्या है.’
बीजेपी के कुरेश नगर उम्मीदवार शमीना रजा, जिनके पिता और पति भी पार्टी से जुड़े हैं, ने एमसीडी चुनाव को अपने लिए काफी ‘भावनात्मक’ बताया.
वह दावा करती हैं कि पसमांदा मुसलमानों को प्रधानमंत्री आवास योजना और विरासत का संवर्धन योजना जैसी सरकारी योजनाओं से जानबूझकर अनजान रखा जा रहा है, जिससे उन्हें फ़ायदा होगा.
वो कहती हैं, ‘हम हिंदू-मुस्लिम विवादों में फंसे रहते हैं. इसलिए बीजेपी ने हमें जिम्मेदारी दी है कि हम पसमांदा मुसलमानों को अपनी सरकार की नीतियों से अवगत कराएं और उन्हें पार्टी से जोड़ें.’
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मंडल का बीज
पसमांदा मुसलमानों पर नए फोकस ने भारत में राजनीतिक सोच के अपरिवर्तनीय टेम्पलेट को भी झटका दिया है कि मुस्लिम पहचान एक अखंड है और लोग जाति-विहीन हैं.
हालांकि 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट से उत्पन्न चेतना ने भारतीय मुसलमानों के सजातीय (होमोजेनियस) होने की धारणा को तोड़ दिया लेकिन नरैटिव बरकरार रहा. इससे पिछड़े मुसलमानों के बीच ज्यादा प्रतिनिधित्व की मांग करने वाले पसमांदा आंदोलन का उदय हुआ, लेकिन इसे उस तरह का राजनीतिक पंख नहीं मिला, जो हिंदू समुदाय के मंडल आंदोलन से मिला था.
कई दशकों तक, कांग्रेस ने ज़मीनी आवाज़ों पर ध्यान केंद्रित किए बिना, इलीट नेताओं और धार्मिक मौलवियों के जरिए समुदाय से अपील की. विद्वानों और कार्यकर्ताओं ने पसमांदा सदस्यों के बीच काम किया, लेकिन बिना कोई राजनीतिक आकर्षण पैदा किए. पसमांदाओं को अपने रोजमर्रा के जीवन में – मस्जिदों से लेकर कब्रिस्तानों और विश्वविद्यालयों तक – जिस भेदभाव का सामना करना पड़ता है, वह शायद ही सार्वजनिक चर्चा का विषय बने हों.
ऐसे स्थिति में, बीजेपी की पहुंच सामाजिक और राजनीतिक रूप से अहम है और भारतीय राजनीति में एक बाधा डालने वाली भी है.
170 मिलियन अल्पसंख्यक समुदाय को विभाजित करने का कदम खासतौर से ऐसे समय में कांटेदार साबित हो सकता है जब हिंदुत्व राजनीति का विरोध मुसलमानों द्वारा बड़े पैमाने पर सामरिक मतदान पर निर्भर करता है. यह सार्वजनिक बहस में अशराफ नरैटिव को तोड़ने की भी कोशिश करती है.
टीवी पैनलिस्ट आमना बेगम अंसारी कहती हैं, ‘जो लोग इसे वोट पाने की राजनीति कहते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि मुस्लिम बीजेपी के वोटर नहीं है. पार्टी में हिंदू हैं; इसे मुस्लिम वोटों की जरूरत नहीं है. सत्ता पक्ष को काम करना है तो उसे समाज के हर तबके से जुड़ना होगा. अशरफ चाहते हैं कि हर मुसलमान बीजेपी के खिलाफ हो.’
एक विरोधाभास भी है जिसमें कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि गोमांस खाने और अंतर-धार्मिक रोमांस के आरोपों को लेकर मुस्लिम पुरुषों पर हिंदू गुटों के हमलों ने समुदाय के गरीब पसमांदा सदस्यों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है.
काका कालेलकर आयोग, मंडल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और यहां तक कि सच्चर कमिटी ने भी मुसलमानों में जाति और भेदभाव को स्वीकार किया है.
अंसारी के अनुसार, ‘अन्य लोग’ सरकारी योजनाओं का फ़ायदा उठाते हैं जो पसमांदा मुसलमानों को लाभ पहुंचा सकती हैं. हालांकि, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट के कारण शिक्षा में ओबीसी आरक्षण से पसमांदाओं को फ़ायदा हुआ है.’
इस संवाद की खाई को रज़ा पाटना चाहती हैं. वह चाहती है कि वो अपने घर में एक ऐसा केंद्र खोलें जहां मुसलमानों को बीजेपी की नीतियों के बारे में बताया जा सके.
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तेजपत्ता से लेकर बिरयानी तक
पिछले साल अक्टूबर में, आदित्यनाथ सरकार ने लखनऊ में पसमांदा मुसलमानों के साथ एक बैठक की, जहां यूपी के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने समूह की तुलना तेजपत्ता से की जिसे बिरयानी में स्वाद देने के बाद अंत में निकालकर फेंक दिया जाता है.
पाठक ने कहा था, ‘कांग्रेस, समाजवादी और अन्य दलों ने आपको (मुसलमानों) गुमराह किया और आपको वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया. पीएम मोदी ने आपको आपका अधिकार दिया है. आपको मुफ्त घर, रसोई गैस सिलेंडर, पीएम किसान सम्मान निधि और जन धन योजना का लाभ दिया है.’
बीजेपी यह दावा करने में तेज है कि जिन पसमांदाओं को योजनाओं की जानकारी दी गई, वे लाभार्थी बन गए हैं. पिछले साल बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के यूपी अध्यक्ष अशरफ कुंवर बासित अली ने दावा किया था कि पिछले पांच सालों में पीएम आवास योजना के तहत राज्य में करीब 43 लाख घर बनाए गए हैं, जिनमें से 20 लाख घर पसमांदा के खाते में गए.
चुनाव को ध्यान में रखते हुए मुस्लिम समुदाय तक इस पहुंच ने कम से कम उत्तर प्रदेश में एक हद तक काम किया है. सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे के आंकड़ों से पता चलता है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के बीच बीजेपी का वोट शेयर 2017 के चुनाव की तुलना में 8 प्रतिशत बढ़ा है.
लेकिन पसमांदा मुसलमानों ने कैसे मतदान किया, इस पर और जांच करने की जरूरत है.
साउथ एशियन अमेरिकन लीडिंग टुगेदर पॉलिसी कलेक्टिव के विजिटिंग स्कॉलर खालिद अनीस अंसारी ने कहा, ‘बीजेपी कितनी सफल रही है ये तो आने वाले चुनाव में पता चलेगा. पार्टी मुसलमानों में गैर राजनीतिक वर्ग तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश कर रही है. अगर इससे 8 प्रतिशत वोट शेयर से बढ़कर 20 प्रतिशत हो जाता है तो विपक्ष बेहद कमजोर हो जाएगा.’
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद के अनुसार, वोटर्स को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है.
पहली कैटेगरी में वो वोटर्स आते हैं जो राजनीतिक दल के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं. दूसरी श्रेणी ‘सहानुभूति’ रखने वालों की होती है जो इसके बड़े एजेंडे को स्वीकार करते हैं, लेकिन कुछ नीतियों से नाखुश होते हैं. तीसरी कैटेगरी होती है ‘फ्लोटिंग वोटर्स’ की जो उस पार्टी को चुनते हैं जिसके जीतने की संभावना अधिक होती है.
अहमद ने कहा, ‘बीजेपी जानती है कि मुसलमान उसके काम नहीं आने वाले हैं. बीजेपी के कुछ वोटर्स उसकी आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति से नाखुश हैं. सहानुभूति और फ्लोटिंग वोटर्स को खुश करने के लिए पार्टी के किसी तरह के समावेशी चरित्र दिखाना बहुत जरूरी है.’
अहमद के अनुसार, पसमांदा ‘पहचान’ बीजेपी लिए संघर्ष या विवाद का मुद्दा नहीं है. ‘यह बीजेपी के लिए एक चुनौती नहीं है क्योंकि पार्टी हमेशा यह तर्क देती रही है कि भारत में मुसलमान को एक समय में जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया था.’
उन्होंने कहा, ‘इसलिए, उनके लिए यह कहना स्वाभाविक है कि आप भी हिंदू हैं, लेकिन हम नया घर वापसी प्रोग्राम शुरू नहीं करने जा रहे हैं.’
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बांटने की राजनीति या समाज का कल्याण?
बुलडोज़र, दंगे, घर वापसी, लिंचिंग और तथाकथित ‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दे सीधे तौर पर पसमांदा को प्रभावित करते हैं, जो गरीब हैं, छोटे कारोबारी हैं और आक्रामक हिंदू समूहों के सामने संवेदनशील हैं. बीजेपी का दावा है कि स्नेह यात्रा उन्हें अपने पाले में लाएगी.
हालांकि, ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अली अनवर का कहना है कि पसमांदा को ‘स्नेह’ नहीं बल्कि ‘सम्मान’ चाहिए.
अनवर ने कहा, ‘आप एक तरफ स्नेह यात्रा निकालेंगे और दूसरी ओर बुलडोजर भी चलाएंगे? मुसलमानों के भीतर भरोसे की कमी है. हम पसमांदा हैं, लेकिन हम मुसलमान भी हैं. उन्होंने बीजेपी के रवैये को विनाशकारी बताते हुए कहा, ‘उनका सामाजिक न्याय मकैनिकल है. यहां से तोड़ो और वहां जोड़ दो.’
विपक्ष बीजेपी पर विभाजनकारी राजनीति के रूप में पसमांदा नरैटिव का जाल बुनने का आरोप लगाते है.
कांग्रेस नेता सदफ जफर ने दिप्रिंट से कहा, ‘पहलू खान और जुनैद (हिंदुत्व मॉब लिंचिंग के शिकार) कौन थे? जेएनयू से लापता छात्र नजीब कौन था? बिलकिस बानो कौन है, जिसके बलात्कारियों को माला पहना कर रिहा किया गया? वे सभी पसमांदा थे.’
बीजेपी नेता इस तरह की आलोचनाओं को अशरफ नरैटिव बता कर उसे खारिज करते हैं जो कल्याणकारी योजनाओं से बेहद फायदा उटाते हैं और सत्ता खोने से डरते हैं.
पसमांदा लोकतंत्र पत्रिका चलाने वाले फैयाज अहमद फ़ैजी ने कहा, ‘अगर कोई हमें राजनीतिक भागीदारी दे रहा है और हमारे मुद्दों को उठा रहा है तो उसके साथ जाने में क्या गलत है? हमें विचारधारा से ऊपर उठना होगा.’
उन्होंने कहा, ‘अगर हमारे बीच कोई बंटवारा नहीं है तो आप हमें जमीयत-उलमा-ए-हिंद और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संस्थानों में पद क्यों नहीं देते हैं.’
वह ‘क़ुफ़ू‘ की मिसाल देते हैं, जिसका अर्थ है ‘बराबर’ या ‘मिलान’. इस्लामी कानून में जब शादी की बात आती है तो क़ुफ़ू की व्याख्या अक्सर एक दूल्हा और दुल्हन के मिलन के तौर पर की जाती है, जो एक ही वंश, धर्म, धन और पेशे के होते हैं. फ़ैजी का तर्क है कि यह साबित करता है कि भारत में इस्लामी समाज के एक वर्ग में नस्लीय, जाति-आधारित भेदभाव को मान्यता मिली हुई है.
उन्होंने कहा,’हमारे लिए, यह न्याय का मुद्दा है. पीएम मोदी ने हमें पहला नागरिक माना है.’
जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने ‘जाति-आधारित’ नियुक्तियों के आरोपों को ख़ारिज करते हुए फरवरी में दिल्ली में आयोजित अपने 34वें आम सत्र के दौरान पसमांदा तक केंद्र सरकार की पहुंच का स्वागत किया.
संगठन के प्रवक्ता नियाज़ अहमद फ़ारूक़ी ने कहा, ‘पसमांदा को पद मिलने चाहिए. इससे किसी को कोई समस्या नहीं है. बीजेपी अपने दरवाजे खोल रही है तो अच्छी बात है. हमारे संगठन में जाति के आधार पर पद नहीं दिए जाते हैं क्योंकि हम सभी को मुसलमान मानते हैं.’
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भेदभाव
दिसंबर की एक सर्द दोपहर में शादी समारोह में शामिल होने के लिए अली अनवर चांदनी चौक स्थित फतेहपुरी मस्जिद में फव्वारे के पास बैठकर धूप सेंक रहे थे. उनकी पत्नी और बहू उनके साथ दूल्हा-दुल्हन का इंतजार करती हैं. वो बिहार से अंतरजातीय विवाह में शामिल होने के लिए दिल्ली आए थे. दूल्हा सैय्यद था और लड़की पसमांदा.
अनवर ने 2022 में एक खुले पत्र में मोदी को लिखा था, ‘हम पसमांदा मुसलमान, हमारे देश भारत के मूल निवासी हैं. मुश्किल से एक या दो फीसदी मुसलमान अरब, ईरान और इराक से भारत आए हैं. हम ‘अक़लियात’ (अल्पसंख्यक) नहीं हैं, हम ‘अक्सरियत’ (बहुजन) हैं.’
राजनीतिक बयानबाजी के परे पसमांदा का भेदभाव एक जमीनी हकीकत है.
लखनऊ से 20 किमी दूर मलिहाबाद के कार्यकर्ता मारूफ अंसारी भेदभाव से अछूते नहीं हैं. उनके क्षेत्र में उच्च जाति के मुसलमान और पसमांदा अलग-अलग मोहल्लों में रहते हैं.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘हमारे यहां सैय्यद, शेख, मिर्जा, पठान और पसमांदा मुसलमानों के लिए अलग-अलग क़ब्रिस्तान हैं. पसमांदा को कभी किसी ऊंची जाति के क़ब्रिस्तान में नहीं दफनाया जाता है.’ समय-समय पर जाति आधारित हिंसा या भेदभाव की खबरें आती रहती हैं लेकिन जमीन पर हकीकत बहुत कम बदलती है.
मारूफ़ को जैसे अपशब्दों और भेदभाव की आदत सी हो गई है. यह अब उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है. कुछ शादियों में पसमांदाओं के लिए अलग से फूड टेंट लगाए जाते हैं.
मारूफ ने कहा, ‘हमने खुद को मुसलमान मानते हैं. फिर धीरे-धीरे हमें यह समझ आने लगा कि हम भी पसमांदा भी हैं. उच्च-जाति के लोग अक्सर हमें जुलाहा (बुनकर) कहते हैं और गाली के तौर पर इस्तेमाल करते हैं.’ वो अपनी आपबीती सुनाते हुए दावा करते हैं कि अशराफ ने स्थानीय राजनीति से बाहर रखने लिए उन पर चाकुओं और पिस्तौल से हमला किया था.
आरक्षण का सवाल
भारत की सत्ताधारी पार्टी द्वारा पसमांदा मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने से समुदाय में नई उम्मीदों का जन्म हुआ है. कई लोग कहते हैं कि अगला कदम आरक्षण हो सकता है. पसमांदाओं के उत्थान की तमाम बातों के साथ ही बीजेपी सरकार सुप्रीम कोर्ट में दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण की मांग वाली याचिकाओं का विरोध कर रही है.
नवंबर 2022 में, ईसाई धर्म और इस्लाम में छूआछूत न होने हवाला देते हुए केंद्र ने दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा मांगने वाली याचिकाओं का विरोध किया था.
केंद्र ने अदालत में अपना हलफ़नामा दायर करते हुए दलील दी, ‘संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950, ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित था, जिसने स्थापित किया कि ईसाई या इस्लाम समाज में कभी भी इस तरह के पिछड़ेपन या उत्पीड़न का सामना नहीं किया गया.’
हालांकि, अक्टूबर 2022 के एक हलफनामे में, सरकार ने कहा कि उसने दलित ईसाइयों और मुसलमानों की मांगों पर ग़ौर किया है और इस पर ध्यान देने के लिए भारत के पूर्व चाफ़ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया था. सरकार ने कहा कि ‘मुद्दा एक मौलिक और ऐतिहासिक रूप से जटिल समाजशास्त्रीय और संवैधानिक प्रश्न है.’
इसी हलफनामे में, उसने कहा कि इनकी स्थिति नहीं बदली है और आरक्षण की मांग करने वाली याचिकाएं ‘योग्यता से रहित’ थीं.
शुरू से ही केंद्र ने ज़ोर दिया है कि वह रंगनाथ मिश्रा आयोग (धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग) के निष्कर्षों को स्वीकार नहीं करेगा, जिसने दलित ईसाइयों और मुसलमानों को अनुसूचित जाति लिस्ट में शामिल करने की सिफारिश की थी.
लेकिन पसमांदा कार्यकर्ता सरकार पर आरक्षण के मुद्दे को देरी करने का आरोप लगा रहे हैं.
फ़ैजी ने कहा, ‘हम सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के रुख़ से बहुत निराश हैं. इसने हमारी लड़ाई को पीछे धकेल दिया है. हम नहीं चाहते कि आरक्षण का मुद्दा दूसरा बाबरी बन जाए.’
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