झुंझुनू/सीकर: राजस्थान में इन दिनों एक अनोखी लहर चल रही है- राष्ट्रवाद की लहर. लेकिन ये किसी राजनेता के भाषणों, देशभक्ति गानों से नहीं बनी है बल्कि आजादी से पहले और उसके बाद मारे गए सैनिकों के बन रहे भव्य स्मारकों के चलन से पैदा हो रही है. वहीं ये स्मारक स्थानीय स्तर पर होने वाले धरना-प्रदर्शनों, मेलों, पर्यटन और राजनीति का भी केंद्र बन गए हैं और सैनिकों के परिवारों के लिए स्टेटस सिंबल भी.
सड़क मार्ग से हरियाणा के भिवानी होते हुए जैसे ही राजस्थान के पिलानी में प्रवेश करते हैं वैसे ही हाईवे के दोनों तरफ कुछ-कुछ किलोमीटर की दूरी पर दर्जनों भव्य मूर्तियां नज़र आ जाती हैं.
65 वर्षीय नन्ददेव सूबेदार झुंझुनू के उदयपुरवाटी तहसील के पोसाना गांव के हैं जिन्होंने चार साल तक राजस्थान के सरकारी दफ्तरों से लेकर दिल्ली स्थित राजपूताना राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर तक के चक्कर काटकर अपने गांव में एक ही छत के नीचे सैनिकों की पांच मूर्तियां बनवाने में प्रमुख भूमिका निभाई.
उन्होंने कहा, “मुझे ये काम करने का शौक था. इसमें चार साल की मेहनत लगी है. पेंशन से मेरा गुजारा हो रहा है लेकिन स्मारक बनवाने का सपना था ताकि गांव के शहीदों को सम्मान मिल जाए.”
15 अगस्त 2021 को जब स्मारक का अनावरण किया गया तब यहां दूर-दूर के गांवों से करीब 10 हजार लोग आए. माइक के जरिए कार्यक्रम का दूसरे गांवों में प्रचार किया गया. सूबेदार ने बताया, “यहां के नौजवान सीना तान के मैदान में आने वाले लोग हैं, छुपने वाले नहीं हैं. जो आया है उसका मरना तय है लेकिन देश के लिए मरना सब के भाग्य में नहीं होता.”
राजस्थान के झूंझुनू और सीकर दो ऐसे जिले हैं जहां से भारतीय सेना में सबसे ज्यादा सैनिक जाते हैं. और इन्हीं दो जिलों में सबसे ज्यादा सैनिक मरे भी हैं. शेखावटी में सीकर, चुरू, झुंझुनू जिले आते हैं. इन जिलों के हर गांव में सैनिक मिल जाएंगे और साथ ही दीवारें पर डिफेंस एकेडमी की कोचिंग के पोस्टर भी क्योंकि यहां के युवाओं में सेना में जाने का अलग ही जुनून है.
झुंझुनू के आर्मी अस्पताल के संचालन का काम देखने वाले शौर्य चक्र से सम्मानित कर्नल रणवीर सिंह ने बताया कि शेखावटी क्षेत्र पानी से वंचित रहा है, जिस कारण यहां फसल ज्यादा नहीं होती वहीं फिजिकल तौर पर यहां के लोग हर मौसम को झेल सकते हैं.
उन्होंने कहा, “कम पढ़े-लिखे होने के कारण इस क्षेत्र के लोगों ने सेना का रुख किया और आज यहां के हर घर में सैनिक जरूर मिल जाएगा.”
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कैसे शुरू हुआ मूर्तियों का चलन
लेकिन बीते 3-4 सालों में राजस्थान के शेखावटी में मारे गए सैनिकों के भव्य स्मारक बनाने का ट्रेंड काफी बढ़ गया है. यह जितनी दिलचस्प घटना है उतनी ही मजेदार इस पहल की शुरुआत भी है.
सैनिक कल्याण बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष और नीम का थाना से भाजपा के विधायक रह चुके प्रेम सिंह बाजौर ने 2017 में एक लाख किलोमीटर से ज्यादा की “शहीद सैनिक सम्मान यात्रा” निकाली जो झुंझनूं के धनूरी गांव से शुरू होकर जैसलमेर में खत्म हुई. इस यात्रा के दौरान वे राज्य में हर उस परिवार से मिले जिनके घर के किसी व्यक्ति की मौत सेना में रहते हुए हुई और एक लिस्ट तैयार की.
बाजौर के अनुसार इसी यात्रा के दौरान एक बूढ़ी औरत ने उनसे कहा था, “मैंने सुना है कि तू तो बहुत पैसे वाला आदमी है, मेरे बेटे की मूर्ति लगा दे.” बाजौर ने बताया कि उसी दिन मैंने घोषणा कर दी कि पूरे राजस्थान में शहीद की मूर्ति मैं अपने खर्च से लगवाऊंगा.”
लेकिन ये इतना आसान काम नहीं था.
बाजौर ने बताया कि शहीदों के लिए कुछ करने के लिए मैं तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से मिला लेकिन उन्होंने सरकारी पैसे से मूर्तियां लगवाने से मना कर दिया. उन्होंने कहा, “वसुंधरा जी ने कहा कि अगर मैं मूर्तियां लगवा देती हूं तो कल कोई दूसरा आकर अपने लोगों की मूर्तियां लगवाने की मांग करेगा.”
बाजौर की टीम ने जब काम करना शुरू किया तो पता चला कि 1999 में करगिल युद्ध में मारे गए सैनिकों को तो वाजपेयी सरकार द्वारा दिए गए विशेष पैकेज से मदद मिल गई लेकिन उससे पहले के युद्धों में मारे गए सैनिकों को आज कोई जानता तक नहीं है.
2018 में शुरू हुआ चलन जोर-शोर से चल रहा है और राज्य में अभी तक 450 से ज्यादा मूर्तियां लग चुकी हैं और सभी का अनावरण प्रेम सिंह बाजौर ने ही किया है. वह इस साल अब तक राजस्थान के अलग-अलग जिलों में 15 से ज्यादा मूर्तियों का अनावरण कर चुके हैं.
मूर्तियां ग्रिल से घिरी होती हैं, जिसके ऊपर पक्की छत होती है और अंदर एलईडी लाइट्स से लेकर बिजली तक के कनेक्शन की सुविधाएं होती हैं. आते-जाते लोग न केवल इन मूर्तियों को देखने के लिए रुकते हैं बल्कि पैर छूते हुए तस्वीरें भी लेते हैं और राजस्थान की भीषण गर्मी में कुछ देर आराम भी फरमा लेते हैं.
इन मूर्तियों से न केवल लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं बल्कि ये स्मारक ग्रामीण स्तर पर प्रतिष्ठा से भी जुड़ा मसला बन गए हैं.
पिलानी से झुंझुनू की तरफ बढ़ते हुए कुल्हरियों का बास गांव आता है जहां एक परिवार ने सड़क किनारे स्थित अपने घर में ही 1971 में मारे गए सैनिक बजरंग लाल का स्मारक बनाया है. स्मारक की दीवारें तिरंगे रंग की है. लाल के भतीजे संजय कुमार अपने परिवार के साथ यहां रहते हैं और इस स्मारक की देखरेख करते हैं. उनके परिवार के चार लोग अभी सेना में काम कर रहे हैं.
उन्होंने बताया, “2019 में जब ये स्मारक बना तब से गांव में पहले की तुलना में हमारा सम्मान बढ़ा है और अब लोग अलग नजरिए से हमें देखने लगे हैं. आसपास के लोग जब नई गाड़ियां लेकर आते हैं या शादियां करते हैं तो वे शहीद से आशीर्वाद लेने जरूर आते हैं.”
इन स्मारकों पर मारे गए सैनिकों के परिवार लाखों रुपए तक खर्च कर देते हैं. जाट रेजिमेंट के नायक सुबेदार धर्मपाल सिंह जम्मू-कश्मीर में 2009 में मारे गए थे. पोसाना स्थित स्मारक से करीब 3 किलोमीटर दूर खेतों के बीच स्थित उनके घर पर उनकी पत्नी बिनो देवी अपने पति के स्मारक बन जाने से काफी खुश हैं. उन्होंने कहा, “इसे बनवाने में हमारे 5 लाख रुपए से ज्यादा लग गए लेकिन हम एक स्मारक चाहते थे.”
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मूर्तिकार का गांव कैसे बन गया पर्यटन स्थल
राजस्थान में लग रही ये मूर्तियां बनाने वाले एक ही शख्स हैं- वीरेंद्र सिंह शेखवात. बाजौर ने उन्हें 1170 मूर्तियां बनाने का जिम्मा सौंपा हैं, जिसकी लागत लगभग 25 करोड़ रुपए है.
हर कुछ मिनट पर उनके फोन की घंटी बज जाती है और दूसरी तरफ से यही आवाज आती है कि मूर्तियां कब तक बनकर तैयारी होंगी. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “पहले मुझे थोड़ा आराम भी मिल जाता था लेकिन जब से शहीदों की मूर्तियां बनाने लगा हूं तब से जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है. काम बहुत ज्यादा बढ़ गया है, हालांकि मुझे काम करना अच्छा लगता है. ये अपने आप में जुनून सा ही है.”
“जैसे मंदिर में पूजा करके सुकूं मिलता है वैसे ही मूर्तियां बनाकर मिलता है और जब मूर्तियां बनकर शहीदों के घर जाती हैं तब काफी अच्छा लगता है.”
अलग-अलग रंग की वर्दियों में तनकर खड़े शहीद सैनिकों के सीने से टकराती हुई दोपहर में चलने वाली रेगिस्तानी हवा आगे बढ़ जाती है. हालांकि शेखावत के सामने चुनौती होती है कि शहीदों की मूर्तियां जीवंत दिखे. इसके लिए वह हर शहीद पर कुछ रिसर्च करते हैं. उन्होंने कहा, “मूर्तियां बनाते वक्त रैंक, रेजीमेंट, बैज और लंबाई का ध्यान रखना पड़ता है. मूर्तियों की ऊंचाई थोड़ी ज्यादा रखी जाती है ताकि रौब दिखे.”
मूर्ति बनाने में लोहे, कंकरीट, बजरी, सीमेंट और अलग-अलग रंग की जरूरत पड़ती है.
तीसरी कक्षा से ही चित्रकारी करने वाले शेखावत के इस जुनून ने उन्हें अपने गांव का सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति बना दिया है. उन्होंने कहा, “आज खुड़ानिया गांव की पहचान मेरे नाम से होने लगी है. यह एक टूरिस्ट प्वाइंट बन गया है. दूर-दूर से स्कूल के बच्चे अपने शिक्षकों के साथ इन मूर्तियों को देखने आते हैं.”
शेखावत ने कहा, “100 किलोमीटर तक के स्कूल के बच्चे यहां इन मूर्तियों को देखने आते हैं. इतनी मूर्तियां लगना अपने आप में एक रिकॉर्ड हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.”
इसी साल 26 जनवरी के मौके पर एक देशभक्ति गाने की शूटिंग शेखावत की दुकान में ही की गई. झुंझुनू के इस्लामपुर के रहने वाले मनोज भूरिया अपने बेटी के साथ मिलकर एक देशभक्ति गाना बनाने वाले थे जिसके लिए उन्हें दिल्ली के इंडिया गेट के पास ड्रोन उड़ाने और शूटिंग की इजाजत नहीं मिली.
भूरिया ने बताया, “राजस्थान पत्रिका में मैंने शेखावत और इन मूर्तियों के बारे में पढ़ा था. 26 जनवरी के वक्त स्कूल के बच्चे नए-नए देशभक्ति गीत सर्च करते हैं, इसलिए हम एक गीत लिख रहे थे. तभी यहां के बारे में पता चला जहां एक साथ ही इतनी सारी मूर्तियां मौजूद थी, जो कि शूटिंग के लिए एक अच्छी जगह साबित हुई.”
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स्मारक के लिए जमीन आवंटन बड़ी चुनौती
प्रेम सिंह बाजौर सिर्फ मूर्तियां बनवाने का पैसा देते हैं लेकिन जिस जमीन पर मूर्तियां लगाई जाती है, उसका इंतजाम सैनिकों के परिवार खुद करते हैं.
झुंझुनू कलेक्ट्रेट के राजस्व विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि गोचर, चारागाह या जोहड़ वाली जमीन का आवंटन नहीं किया जा सकता क्योंकि राजस्थान हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा रखी है. हालांकि हाई कोर्ट के स्टे से पहले ये जमीन भी आवंटित की जाती थी.
अधिकारी ने बताया, “जिला प्रशासन द्वारा सिर्फ सिवायचक भूमि (बंजर, बाराणी भूमि) का ही आवंटन किया जा सकता है. बीते कुछ समय में हमने शहीद स्मारक के लिए ऐसी जमीन का आवंटन किया भी है.”
भूमि आवंटन की प्रक्रिया समझाते हुए अधिकारी ने बताया, “ग्राम सभा से प्रस्ताव पारित होने के बाद संबंधित तहसील में मुखिया प्रस्ताव बनवाता है जिसके बाद एसडीओ से होते हुए कलेक्टर के पास अनुमति के लिए फाइल जाती है.”
झुंझुनू के जिलाधिकारी लक्ष्मण सिंह कुड़ी ने दिप्रिंट से कहा कि जिला सैनिक कल्याण बोर्ड से हमारे पास भूमि आवंटन और राजकीय भवन का नामकरण का प्रस्ताव आता है. उन्होंने कहा, “सिर्फ सरकारी जमीन का ही हम आवंटन करते हैं.”
झुंझुनू के ढिगाल में जयपुर-दिल्ली स्टेट हाइवे के किनारे नायब सूबेदार नत्थू सिंह का भव्य स्मारक बना हुआ है. नत्थू सिंह के भाई हेतराम सिंह ने बताया कि जमीन के आवंटन के लिए हमने काफी कोशिश की लेकिन किसी ने भी लिखित में ये जमीन स्मारक के लिए नहीं दी. उन्होंने कहा, “बाजौर साहब के कहने पर प्रशासन ने मौखिक तौर पर हमें इस जमीन पर ये स्मारक बनाने के लिए अनुमति दी लेकिन वास्तव में इसे अतिक्रमण ही कहा जाएगा.”
नत्थू सिंह का स्मारक उन कुछ स्मारकों में से है जिसे बाजौर के ऐलान के कुछ समय बाद ही बनाया गया. हेतराम के परिवार ने इस स्मारक के निर्माण में 15 लाख रुपए खर्च किए हैं.
हेतराम ने कहा, “यह जमीन 15 फिट नीची थी जिसे सड़क के लेवल में लाने के लिए काफी मिट्टी लगी है. बाजौर साहब ने तो बस शुरुआत की, बाकी सारा पैसा हमारे परिवार से लगा है. हमारा परिवार शहीद की कमाई ही खा रहे हैं, कुछ पैसा इन पर लगा दिया ताकि हमेशा के लिए यादगार बन जाए.”
ढिगाल के सीआरडीएम कॉलेज के ठीक सामने बना ये स्मारक आने-जाने वाले लोगों को अपनी भव्यता से ध्यान खींचता है. हेतराम कहते हैं, “वर्तमान पीढ़ी मानती है कि हम सिर्फ दो भाई हैं लेकिन वास्तव में हम तीन भाई हैं. इस स्मारक के बनने से लोगों के मन में राष्ट्र के प्रति बलिदान की भावना जागी है.”
हालांकि राजस्थान सैनिक कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष मानवेंद्र सिंह जसोल राज्य में शहीद सैनिकों की मूर्तियां लगने के पक्ष में नहीं हैं. उन्होंने कहा, “पहले छोटे-मोटे स्तर पर मूर्तियां लगती थीं लेकिन प्रेम सिंह बाजौर के कारण अब यह चलन काफी बढ़ा है, जो निजी खर्च से मूर्तियां लगवा रहे हैं.”
मानवेंद्र सिंह ने कहा, “मैं मूर्तियों के पक्ष में नहीं हूं. इनकी देखभाल और सफाई ठीक ढंग से नहीं हो पाती है. इन पर चिड़िया बैठती हैं, जो कि शहीदों का अपमान ही है.” उन्होंने कहा कि इससे अच्छा है कि स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों का नाम शहीदों के नाम पर रखे जाएं.
कर्नल रणवीर सिंह ने कहा कि पहले सिर्फ शहीदों की मूर्तियां लगती थीं लेकिन अब तो सैनिकों की सामान्य मृत्यु पर भी मूर्तियां लगनी शुरू हो गई हैं.
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मूर्तियों से उभरता राष्ट्रवाद
मारे गए सैनिकों की मूर्ति का अनावरण कार्यक्रम काफी धूमधाम से मनाया जाता है. ये कार्यक्रम खास तौर पर मारे गए सैनिकों के शहादत दिवस के दिन ही किया जाता है. बाजौर का कहना है कि इन कार्यक्रमों में राजनीति की बिल्कुल भी बात नहीं होती है.
उन्होंने कहा, “हम जिस क्षेत्र में अनावरण करते हैं, उस क्षेत्र के सभी पार्टियों के नेताओं को बुलाते हैं. शहीद किसी पार्टी का नहीं होता है. शहीद देवताओं के देवता हैं. 135 करोड़ के इस देश में पूजे जा रहे देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं है जो देश के लिए शहीद हुआ हो. सैनिकों ने तो देश के लिए जान दी है.”
बाजौर अपने भाषणों में भी लोगों से आग्रह करते हैं कि शहीदों को भगवान की तरह पूजा जाए. वहीं उनके भाषण राष्ट्रवाद से ओतप्रोत होते हैं. उन्होंने कहा, “मेरे भाषणों का 40% हिस्सा राष्ट्रवाद पर होता है.”
हालांकि बाजौर मानते हैं कि राज्य में बने “शहीद स्मारक” अब धरनों, प्रदर्शनों का केंद्र बन गए हैं. उन्होंने कहा, “शहीद के नाम पर हर कोई एक जगह पर इकट्ठा हो जाता है. इन जगहों को शुभ माना जाता है इसलिए इन स्थानों से धरने, प्रदर्शन शुरू होते हैं.”
शहीद स्मारकों के बनने से राजनीतिक फायदे पर उन्होंने कहा, “मैं तो पूरे राजस्थान में मूर्तियां लगवा रहा हूं. हर जगह से तो मैं चुनाव नहीं लड़ सकता. लेकिन इनके लगने से अगर भाजपा को फायदा मिलता है तो इसमें मेरी गलती नहीं है.”
लेकिन राज्य में चुनाव से पहले ये राजनीति का मुद्दा भी बन गया है. मार्च की शुरुआत में 2019 में पुलवामा हमले में मारे गए तीन सीआरपीएफ जवान की पत्नियों ने मूर्तियों और नौकरी की मांग करते हुए जयपुर में धरना दिया था.
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मुस्लिम समुदाय भी बनवा रहा भव्य स्मारक
झुंझुनू और सीकर से सेना में जाने वाले ज्यादातर जाट और राजपूत समुदाय से हैं. लेकिन यहां की कायमखानी कौम जो कि मुस्लिम है, भी सेना में जाती है.
राजस्थान में झुंझुनू का धनूरी ऐसा गांव है जहां से सबसे ज्यादा सैनिकों (15) की मौत हुई है. यहां ज्यादातर कायमखानी कौम के लोग रहते हैं. आजादी के बाद इस कौम से सबसे पहले शहादत देने वाले मेजर एमएच खान के भाई मोहम्मद हाफिज जो 25 साल तक इस गांव के सरपंच भी रह चुके हैं, उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वज राजपूत थे जो फिरोज शाह तुगलक के समय मुसलमान हो गए और उनकी सेना में काम करने लगे. तभी से हमारी कौम सेना से जुड़ी रही है.
धनूरी में इस कौम से मारे गए सैनिकों की याद में दिल्ली स्थित नेशनल वॉर मेमोरियल की तर्ज पर केके मेमोरियल शहीद स्मारक बनाया जा रहा है. स्मारक के मुख्य सलाहकार भंवर खान ने बताया, “कायमखानी कौम के जिन लोगों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए शहादत दी, उनकी स्मृति में यह मेमोरियल बनाया जा रहा है. इस कौम के सभी 331 शहीदों के शिलालेख लगाने की योजना है.”
मेजर एमएच खान के भाई मोहम्मद हाफिज ने कहा, “इस्लाम मूर्ति पूजा के खिलाफ है. इसलिए हम अपने कौम के शहीदों की मूर्तियां नहीं बना रहे.”
कायमखानी कौम के लोग सीकर, झुंझुनू, चुरू में ज्यादा रहते हैं लेकिन झुंझुनू के धनूरी गांव को स्मारक के लिए चुनने के पीछे कारण जिला मुख्यालय से इसकी नजदीकी और गांव से गुजरने वाला हाई-वे है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देख पाएं.
राजस्थान में जहां कहीं भी “शहीद स्मारक” बनता है उसका अनावरण प्रेम सिंह बाजौर ही करते हैं. उन्होंने कहा, “राज्य में मुझे शहीदों का पेटेंट है. दूसरी पार्टियों के लोग भी जाने को तैयार हैं लेकिन उन्हें कोई बुलाता तक नहीं है.”
उन्होंनें कहा, “ऐसा मौका किसको मिलता है. इन शहीदों के साथ हम भी तो अमर हो गए.”
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