ब्रिटेन की संसद में पेश की गई नई आप्रवासी नीति विधेयक को लेकर इस समय भारी विवाद छिड़ा हुआ है. इस विधेयक को नौका रोको विधेयक या स्टॉप द बोट विधेयक भी कहा जा रहा है क्योंकि इसके जरिए शरणार्थियों या “अवैध” तरीके से समुद्र के जरिए आने वालों को रोकने की बात की जा रही है. ऐसे लोगों को या तो आने नहीं दिया जाएगा और जो किसी तरह से पहुंच भी गए उन्हें हिरासत में लेकर वापस रवांडा जैसे देशों में भेज दिया जाएगा, जिनके साथ ब्रिटिश सरकार ने व्यवस्था की है कि वे ऐसे लोगों को अपने यहां बसा लेंगे. ब्रिटिश सरकार शरणार्थियों को अपना पक्ष रखने भी नहीं देगी कि वे किस मुसीबत जैसे गृह युद्ध या उत्पीड़न से बचकर आए हैं.
इस नीति के आलोचक इसे बेहद सख्त और क्रूर मान रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी संस्था ने इस नीति की आलोचना की है, वहीं इस नीति के ब्रिटेन में समर्थक और विरोधी दोनों हैं.
इस लेख में मैं इस नीति के पक्ष या विपक्ष के तर्कों की मीमांसा नहीं करूंगा, बल्कि मैं ये समझने की कोशिश करूंगा कि इस नीति के तीन सबसे बड़े समर्थकों और प्रवर्तकों – प्रधानमंत्री ऋषि सुनक, गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन और पूर्व गृह मंत्री प्रीति पटेल शरणार्थी या अवैध आप्रवासियों को लेकर इतने सख्त और निष्ठुर क्यों हैं? खासकर मैं ऋषि सुनक की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को समझना चाहता हूं, जिसकी वजह से वे ये कर रहे हैं और इसके लिए आलोचना भी झेलने को तैयार हैं.
इस नीति की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री सुनक ने लिखा – “अगर आप ब्रिटेन में अवैध तरीके से आए हैं, तो आपको यहां से निकालने के लिए होने वाली कार्रवाई को रोकने के लिए आप कोई दावा नहीं कर पाएंगे. आपको कुछ ही हफ्तों में या तो आपके देश या फिर रवांडा जैसे किसी अन्य सुरक्षित देश में भेज दिया जाएगा.”
वहीं ब्रिटिश गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन लिखती हैं- “ब्रिटिश जनता ने हमसे सही उम्मीद की थी कि हम इस संकट का समाधान करेंगे और मैं तथा प्रधानमंत्री ठीक यही करने वाले हैं. हम (शरणार्थियों की) नावों को जरूर रोकेंगे. आपको यहां रहने नहीं दिया जाएगा.”
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ये दिलचस्प है कि ऋषि सुनक, सुएला ब्रेवरमैन और प्रीति पटेल की पृष्ठभूमि में अद्भुत समानता है. इन तीनों के पुरखे अलग अलग समय में भारत/अविभाजित भारत से अफ्रीका गए और वहां जब उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष छिड़ा, या वहां आजादी की लहर चली तो वे ब्रिटेन चले आए. इस मायने में देखे तो वे दोहरे आप्रवासी या डबल माइग्रेंट हैं. इन नेताओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने के लिए आप मेरा पुराना लेख पढ़ सकते हैं.
सवाल उठता है कि जिन लोगों के पुरखों ने दो-दो बार देश छोड़ा है, वे उन लोगों के प्रति इतने अनुदार क्यों हैं जो किसी कारण से अपना देश छोड़कर ब्रिटेन आकर रहना चाहते हैं. जबकि साधारणतया ये उम्मीद करनी चाहिए कि वे शरणार्थियों के दर्द को बेहतर समझ पाएंगे. लेकिन यहां तो वे अपने पीछे के दरवाजे नए आने वालों के लिए पूरी तरह बंद करने में लगे हैं. इसकी मैं पांच वजहें देखता हूं.
एक, हम आप्रवासी जरूर हैं, पर आप लोगों की तरह नहीं हैं: नए आप्रवासियों को लेकर सुनक की नीति और उनकी निजी भावना का एक आधार ये हो सकता है कि सुनक और दूसरे दोहरे आप्रवासियों में इलीट और दूसरों से अलग और खास होने की बहुत गहरी सोच है. भारत से अफ्रीका के रास्ते ब्रिटेन पहुंचे ये लोग काफी पहले आने के कारण ब्रिटिश समाज में अच्छे से घुल मिल गए हैं. उस समय ब्रिटेन आप्रवासी समस्या से इस तरह जूझ नहीं रहा था और ये समस्या उतनी गंभीर नहीं था. इस वजह से उस दौर में जो आए, उनको ब्रिटिश समाज ने स्वीकार भी कर लिया. साथ ही ब्रिटिश लोगों में ये भाव भी रहा होगा कि ये भारतीय लोग हमारे भरोसे अफ्रीका पहुंचे थे, वहां उन्होंने साम्राज्य के लिए काम किया और जब अफ्रीकी स्वतंत्रता संग्राम के वे निशाना बन रहे हैं, तो उनको ब्रिटेन में स्वीकार कर लिया जाना चाहिए. इसलिए इस समूह को ब्रिटेन ने अपनी जिम्मेदारी माना. लगभग 60 साल पहले ब्रिटेन पहुंचे इन दोहरे प्रवासियों को शायद ऐसा लगता है कि अब जो आ रहे हैं, वे अलग किस्म के लोग हैं और उन्हें क्यों आने दिया जाए. सुनक को ये भी लग सकता है कि इन नए संभावित प्रवासियों से उन्हें दूर और अलग नजर आना चाहिए और उन पर सख्ती करते हुए नजर आना चाहिए. ये कई और देशों में भी देखा गया है कि पहले से बसे आप्रवासी, बाद में आने वाले आप्रवासियों के प्रति कटुता या नकारात्मक भाव रखते हैं.
दो, अश्वेतों खासकर, अफ्रीकी लोगों के प्रति द्वेष. अफ्रीका के रास्ते ब्रिटेन आए होने के कारण ये मुमकिन है कि सुनक, ब्रेवरमैन या प्रीति पटेल ने अपने परिवारों में ये कहानियां सुनी होंगी कि अफ्रीका में चले उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में किस तरह से वहां के भारतीय भी अफ्रीकी लोगों का निशाना बने. केन्या और उगांडा जैसे अफ्रीकी देशों के औपनिवेशिक शासन में भारत से गए लोगों की एक विशिष्ट स्थिति थी. वे वहां दूसरे स्तर के प्रशासनिक अधिकारी, बिजनेसमैन और ठेकेदार थे. शासित अफ्रीकी लोगों की तुलना में उनकी आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति अच्छी थी. इसलिए जब वहां आजादी की लड़ाई छिड़ी तो उनको विदेशी शासकों का समर्थक और साझीदार माना गया और वे आंदोलनकारियों के निशाने पर भी आए. इन देशों के स्वतंत्रता संग्राम और आजादी मिलने के बाद बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग ब्रिटेन जाकर बस गए. इनके पास पहले से ब्रिटिश पासपोर्ट थे. ये एक वजह हो सकती है कि सुनक और ब्रेवरमैन बिना किसी नैतिक दबाव के, खासकर अफ्रीकी लोगों को ब्रिटेन आने से रोकने का कानून बना पा रहे हैं.
तीन, ब्रिटेन की राजनीति. एक कारण ये हो सकता है कि ब्रिटेन में आप्रवासी और शरणार्थी विरोधी भावना इस समय अत्यंत प्रबल है और नेता के तौर पर सुनक और ब्रेवरमैन इस भावना को भांप चुके हैं. उनकी पार्टी भी इसी सोच की है. इसलिए सुनक इस भावना के मुताबिक कदम उठा रहे हैं. ब्रिटेन में ऐसा सोचने वाले लोग काफी हैं कि आप्रवासियों और शरणार्थियों के आने से ब्रिटेन की आबादी की संरचना बिगड़ रही है, देश के संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है और कानून और व्यवस्था बिगड़ रही है. सुनक और ब्रेवरमैन सख्त कानून बना रहे हैं और इन वोटर को संतुष्ट कर रहे हैं. ब्रिटेन के समाज और वहां की राजनीति में रच-बस जाने के लिए सुनक ब्रिटेन के ऐसे लोगों से भी ज्यादा ब्रिटिश बनने की कोशिश करते दिख रहे हैं और ये जता रहे हैं कि आपके हितों को मैं जितनी सख्ती से और निर्मम तरीके से पूरा कर सकता हूं, वह कोई और नहीं कर सकता. इस तरह सुनक का प्रशासन ब्रिटेन में पहले से व्याप्त आप्रवासी विरोधी भावनाओं को ही स्वर दे रहा है.
चार, आर्थिक कारण और ब्रिटिश राष्ट्रवाद. प्रधानमंत्री होने का साथ सुनक ब्रिटेन के राजकोष के भी संचालक हैं. जब ब्रिटेन के आर्थिक हितों का सवाल सामने हो तो ये मुमकिन है कि उनके लिए सामाजिक-सांस्कृतिक या मानवीय सवाल उतने महत्वपूर्ण न होते हों. उनसे उम्मीद है कि वे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को सुधारेंगे और ब्रिटिश लोगों के लिए रोजगार और नौकरियां पैदा करेंगे. ये संभव है कि विदेश से आकर बसने वाले, खासकर सस्ते श्रमिकों के आने से ब्रिटेन के बुनियादी ढांचे और नागरिक सुविधाओं पर दबाव पड़ रहा हो. साथ ही अफ्रीका या अलबानिया जैसे देशों से आने वाले शरणार्थी ऐसी योग्यता और शिक्षा लेकर न आ रहे हों, जिनकी ब्रिटेन को इस समय जरूरत है. इसलिए सुनक उच्च शिक्षित आप्रवासियों पर रोक नहीं लगा रहे हैं, पर नाव से आ रहे शरणार्थियों को वापस खदेड़ना चाहते हैं.
पांच, यूरोपियन यूनियन से बाहर आने से बाद की स्थिति. ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन अपनी सीमाओं को लेकर नीतियां बनाने के लिए पहले से ज्यादा सक्षम है. इस वजह से यूरोपीय देशों के रास्ते से आ रहे शरणार्थियों को रोकने का कानून बनाना उसके लिए संभव हो पा रहा है. यूरोपीय संघ का सदस्य होने तक यूरोपीय देशों के बीच आवाजाही आसान थी. ब्रेक्जिट के बाद, ब्रिटेन के नागरिकों के एक हिस्से का सरकार पर दबाव था कि नाव से आने वाले लोगों को रोका जाए. सुनक यही करने की कोशिश कर रहे हैं.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. दोनों के विचार व्यक्तिगत हैं.)
(संपादन/ आशा शाह )
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