scorecardresearch
Wednesday, 13 November, 2024
होमराजनीतिसरकार जब शर्मसार होती है तो पैरों पर गिर जाती है

सरकार जब शर्मसार होती है तो पैरों पर गिर जाती है

शासन के आखिरी दिनों में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के मंत्री लोगों के चरण छूने और धोने लगे हैं. इस प्रतीकवाद से क्या बीजेपी को चुनावी फायदा होगा?

Text Size:

भारतीय राजनीति में पैरों की बड़ी महिमा है. पदयात्राओं की भी बड़ी अहमियत रही है. अक्सर ये पदयात्राएं विपक्ष में रहते हुए की जाती हैं. लेकिन सत्ता में रहते हुए पैरों, खास कर वो भी गरीबों और दलितों के पैरों को इतना महत्व किसी राजनेता नहीं दिया होगा, जितना नरेंद्र मोदी ने दिया. आजाद भारत में किसी प्रधानमंत्री का सफाईकर्मियों के पैरों को धोना अभूतपूर्व घटना है.

माना गया कि पीएम ने ऐसा करके इन सफाईकर्मियों को सम्मान दिया. लेकिन दूसरी ओर यह कहा जा रहा है कि बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद अपनी क्रेडिटिबिलिटी इतनी गिरा ली है कि अब उसे लोगों के पैरों पर गिरना पड़ रहा है. कहीं प्रधानमंत्री सफाईकर्मियों के पैर छू रहे हैं तो कहीं रक्षा मंत्री शहीदों की मांओं के पैरों में झुकी नजर आ रही हैं.


यह भी पढ़ें: राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनावी रैलियों से बाहर रखना है तो आचार संहिता में बदलाव लाना होगा


सचमुच अगर यह सम्मान दिल से है तो मुझे उन मांओं के लिए उम्मीद जगती है, जिन्होंने अपने लाल को खोया है. पांव छूना अगर सिर्फ प्रतीकात्मक है तो फिर ऐसे सम्मान का कोई अर्थ नहीं है. प्रतीकात्मकता जब तक सर्वग्राह्यता में तब्दील नहीं होती, तब तक उसका कोई मतलब नहीं.

दरअसल जब भी कोई हमारा सम्मान करता है तो कुछ क्षण के लिए हम अभिभूत हो जाते हैं. पैर छू कर सम्मान करना किसी शख्स को हथियार डालने को मजबूर कर देता है. सारा आक्रोश जैसे धुल जाता है. राजनीतिज्ञ खास कर चुनावी जुलूसों, सभाओं और संपर्क अभियानों के दौरान कई बार विरोधी दल के नेता पैर छू कर एक दूसरे को अस्त्रविहीन करने की कोशिश करते हैं.

भारत में सफाईकर्मी जिस व्यवस्था में काम करते हैं और मोर्चे पर साधारण सैनिक जिस मुश्किल हालात में डटे रहते हैं या फिर आतंकियों या दुश्मनों का सामना करते हुए शहीद हो जाते हैं, ये किसी से छिपा नहीं है. उनकी शहादत का जब उचित सम्मान नहीं होता और परिजनों को उचित मुआवजा नहीं मिलता तो उनके परिजनों में आक्रोश स्वाभाविक है. पैर पर गिर कर शायद इसी आक्रोश को थामने की कोशिश हो रही है.


यह भी पढ़ें: कांग्रेस को पूरी तरह से बदल देंगी प्रियंका, क्या है उनकी योजना


बड़े जुमले उछाल कर सत्ता में आने वाली पार्टी जब उनके लिए कुछ नहीं करती तो ऐसे आक्रोश कम करने के लिए पैर पखार कर अपनी सफलता के उपाय ढूंढती है. ये सरकारों के राज-काज के फेल होने का सबसे बड़ा प्रतीक है. यह उस सिस्टम और शासन के फेल होने का उदाहरण है, जो जनता की बेहतरी के नाम पर स्थापित किया जाता है.

मेरे इस विश्लेषण की परख आप उस प्यारे लाल के इस वक्तव्य से कर सकते हैं, जिनके पैर पीएम ने वाराणसी में धोए थे. प्यारे लाल का कहना है कि मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिया गमछा अभी तक नहीं उतारा. हर बार जब अपनी आंखें बंद करता हूं तो उस पल का सपना देखता हूं जब मोदी जी ने मेरे पांव धोए थे. लेकिन उसके बाद सोचता हूं इस सम्मान से अच्छा होता कि प्रधानमंत्री वेतन बढ़ाते. वहीं ज्योति कहती हैं कि सम्मान से रोजी रोटी नहीं चलती. मैनुअल स्कैवेंजिंग खत्म होनी चाहिए.

पांव धोने के बजाय ऐसी टक्नोलॉजी का इंतजाम क्यों नहीं किया जाता, जो सफाईकर्मियों को मेन होल में उतर कर गंदगी साफ करने से छुटकारा दिला सके? मनुष्य ऐसा अस्वास्थ्यकर काम क्यों करे, जो मशीन कर सकती है?

पांव छू कर सम्मान दिया जाता है. लेकिन सरकार के मुखिया और मंत्री पांव छू कर अपनी नीतियों की निर्थकता की नुमाइश कर रहे हैं. कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि सरकार के कार्यकाल के आखिरी चरण में उसके प्रतिनिधियों को आखिर पैर छूने की क्या जरूरत पड़ गई.


यह भी पढ़ें: कोई बूथ कैप्चर नहीं, ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं- पुलवामा के बाद कैसे चुनाव कब्जे़ की है तैयारी


याद कीजिये, पीएम मोदी ने जब शुरुआत की थी तो मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्वच्छ भारत मिशन, डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी योजना और हर किसी के लिए घर का इंतजाम करने जैसे लुभावने नारे उछाले थे. लेकिन पांच साल खत्म होते-होते ये योजनाएं हांफने लगी. इन योजनाओं पर अब बातें भी नहीं होतीं. न तो स्मार्ट शहर में शामिल करने के लिए सर्वेक्षण हो रहे हैं और न ही स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया का शोर है.

अगर सरकार ने मंदिर-मस्जिद न किया होता, गायों की कीमत पर आदमी की जान की कीमत समझी होती और विकास पर ध्यान केंद्रित किया होता तो उसके मंत्रियों को सार्वजनिक तौर पर पाखंड नहीं करना पड़ता. ऐसे पाखंड से सरकार के पांच साल की असफलताएं मिट नहीं जाएंगी.


यह भी पढ़ें: क्या होगा अगर सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस आ गई?


अगले साठ दिनों में मोदी, उनकी सरकार और उनकी पार्टी अपना वजूद बचाने की जंग में उतरेगी और यह आसान नहीं होगा. पांव धोने या शहीदों की मांओं के पैरों पर गिरने से वोटिंग मशीनों पर बीजेपी के निशान पर उंगुलियां नहीं दबेंगी. राजनीति में ऐसी भावुक भंगिमाओं के लिए अब जगह नहीं है. वोटर बेहद संजीदा होता है और इन प्रहसनों के परे जाकर भी वोट करता है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य में पीएचडी की है)

share & View comments