यदि दुनिया के 19वीं शताब्दी के अरबपतियों पर नजर डालें तो पता चलता है- वे बड़े पैमाने पर खाद्य पदार्थों में कारोबार करते थे क्योंकि उस युग की एकमात्र आवश्यक वस्तु यही थी. मोदियों के साथ भी ऐसा ही है. दो शताब्दियों के दौरान, मोदियों का परिवार व्यवसाय करता आया है- राशन व किराना वस्तुओं के व्यापारियों के रूप में, खुदरा विक्रेताओं के रूप में, फिर मिल मालिकों के रूप में और फिर चीनी, कपड़ा, साबुन, रबर का उत्पादन करने वाले अन्य उद्योगों की पूरी एक श्रृंखला विकसित करने के लिए.
मोदियों का दर्ज इतिहास 1800 में रामबख्श मोदी के साथ शुरू होता है जिन्होंने झज्जर नवाब की सेना को राशन मुहैया कराया था. 1857 के विद्रोह के बाद, झज्जर क्षेत्र पटियाला के महाराजा महेंद्र सिंह को सौंप दिया गया था. इसने इस क्षेत्र के प्रमुख राशन विक्रेता रामबख्श मोदी को पटियाला में एक कार्यालय खोलने की अनुमति प्राप्त करने में मदद की. यहां व्यापार में तेजी से वृद्धि हुई. महाराजा के साथ-साथ ब्रिटिश सेना की सेवा करते हुए, रामबख्श के बेटे चिरंजीलाल ने पश्चिम में मुल्तान से पूर्व में कानपुर तक व्यापार का विस्तार किया. दरअसल, चिरंजीलाल के पहले बेटे का जन्म मुल्तान में हुआ था और इसलिए उनका नाम मुल्तानीमल रखा गया.
मुल्तानीमल के पास बिजनेस का जन्मजात गुण था और उसने जल्द ही सिख व्यवसायियों द्वारा चलाए जा रहे स्थानीय आटा मिलों को अनाज बेचने के एक नया रिटेल बिजनेस शुरू कर दिया. जब मिल घाटे में चली गई तो मुल्तानीमल ने मौका देखकर घाटे में चल रही यूनिट्स को अधिगृहीत कर लिया और उसे लाभ कमाने वाली इकाई में बदल दिया.
इसी बीच मुल्तानीमल ने अपनी पत्नी को खो दिया. उन्होंने दोबारा किया लेकिन उनकी दूसरी पत्नी की भी मृत्यु बेटे को जन्म देने के एक हफ्ते के भीतर हो गई. चूंकि नवजात शिशु का पालन-पोषण गुजरी नाम की नर्स ने किया था, इसलिए बच्चे को उसके नाम से जाना जाने लगा: गुजरमल.
शुरुआती झटके
सोनू भसीन ने अपनी किताब, एंटरप्रेन्योर्स हू बिल्ट इंडिया में लिखा है: “17 साल की छोटी उम्र में पारिवारिक व्यवसाय में प्रवेश करते हुए, गुजरमल को पहले कई उलटफेरों का सामना करना पड़ा. अनाज की बिक्री का कारोबार करते हुए,वह स्थानीय नागरिकों से उनकी क्रय शक्ति के अनुसार अनाज खरीदते थे और ब्रिटिश सेना से ज्यादा लाभ लेकर थोक स्टॉक बेचते थे. इसके कारण पटियाला में एक ब्रिटिश कर्नल के साथ विवाद हुआ जिसने गुजरमल पर अंग्रेजों से अधिक शुल्क लेने का आरोप लगाया. लड़ाई अंततः बढ़ गई लेकिन इसकी वजह से गुजरमल ने पटियाला से बाहर जाने और एक वैकल्पिक कर्मभूमि की तलाश करने के बारे में सोचा.
लेकिन संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ था. पटियाला के महाराजा और उनके अधिकारियों ने गुजरमल को वनस्पति घी का कारखाना खोलने के लिए प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया और उसके तुरंत बाद, उन्हें कपड़ा मिल स्थापित करने की अनुमति देने से भी इनकार कर दिया. इसमें भी बात तब और बिगड़ गई गई जब गुजरमल को पटियाला के महाराजा के निवास पर एक सभा में शराब पीने से मना करने पर अपमानित किया गया था. वास्तव में, यह गलतफहमी इस हद तक बढ़ गई कि गुजरमल को पटियाला रियासत से निर्वासित कर दिया गया.
गुजरमल महाराजा से लड़ने की स्थिति में नहीं थे, लेकिन इस घटना ने उन्हें एक दुस्साहसिक योजना के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया – वह अपनी स्वतंत्र रियासत या एक बस्ती बनाने की थी जहां वह महाराजाओं और ब्रिटिश अधिकारियों की सनक से मुक्त होंगे. गुजरमल बमुश्किल 30 साल के थे, फिर भी उनकी महत्त्वाकांक्षाओं का पैमाना बहुत बड़ा था.
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मोदीनगर की खोज और स्थापना
उन्होंने एक अच्छी तरह से निर्धारित औद्योगिक क्षेत्र, सभी श्रमिकों के लिए आवास, स्कूलों, अस्पतालों, पार्कों और मंदिरों जैसी नागरिक सुविधाओं के साथ एक निजी टाउनशिप के बारे में बात करना शुरू किया. कलकत्ता और फिर हापुड़ की यात्रा, जहां उनके चचेरे भाई पहले से ही स्थापित व्यवसाय चला रहे थे, गुजरमल को एहसास हुआ कि अगर किसी के पास अच्छी योजना है, तो निवेशकों से धन जुटाना संभव है. 1932 में, स्थानीय उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने चीनी पर आयात शुल्क बढ़ा दिया. इससे गुजरमल को पहले चीनी संयंत्र स्थापित करना सही लगा.
गुजरमल अपने बुद्धि और बेहतर प्रस्ताव की वजह से बाजार से पर्याप्त धन जुटाने में कामयाब रहे और इसके बाद उन्होंने जमीन तलाश करनी शुरू कर दी. उन्होंने उपजाऊ भूमि के एक बड़े टुकड़े की खोज के लिए पूरे क्षेत्र में यात्रा की, जिसमें पर्याप्त जल आपूर्ति और रेल और सड़क परिवहन की सुविधा थी. दिल्ली से लगभग 50 किलोमीटर दूर, बेगमाबाद उसकी सभी जरूरतें पूरी करता हुआ दिखा. कई मालिकों को कृषि भूमि के अपने अलग-अलग टुकड़ों को बेचने पर राजी करने के लिए उन्हें काफी जोरदार प्रयास करना पड़ा. लेकिन आखिरकार, वह 40 एकड़ का एक जमीन का टुकड़ा जुटाने में सफल रहे और यहां एक चीनी मिल बनाने का काम शुरू किया. शुरू से ही गुजरमल के व्यापार करने के तरीके में काफी अंतर था. उदाहरण के लिए, चीनी मिल में, गुजरमल ने देखा कि गन्ने की फसल मवेशियों से चलने वाली गाड़ियों पर आती है और जानवरों को रात भर उनकी पीठ पर भारी बोझ लाद कर खड़ा किया जाता है. उन्होंने विशेष स्टैंडों के निर्माण का आदेश दिया ताकि जानवरों को रात भर भार लाद के न खड़ा रहना पड़े.
सोनू भसीन लिखते हैं: “1934 में एक चीनी मिल और कुछ सौ निवासियों के साथ शुरू होकर, 1970 के दशक तक, केवल चार दशकों में, मोदी ग्रुप 900 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति और 1600 करोड़ रुपये की वार्षिक सेल्स रेवेन्यू के साथ भारत में 7वां सबसे बड़ा व्यावसायिक समूह बन गया. बेगमाबाद शहर का नाम और इसके महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान जैसे रेलवे स्टेशन, डाकघर आदि को इसके सबसे महत्वपूर्ण निवासी के नाम पर बदलकर ‘मोदीनगर’ कर दिया गया. 35 से अधिक कारखानों, कई पार्कों, शैक्षणिक संस्थानों, स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ मोदीनगर भारत के औद्योगिक मानचित्र पर एक मील का पत्थर बन गया, जिसने न केवल शहर के मध्यम वर्ग बल्कि श्रमिकों और उनके परिवारों की भी सेवा की.
फैमिली ट्री
न केवल व्यवसाय – बल्कि अपने निजी जीवन में भी – गुजरमल मोदी का भाग्य भी काफी नाटकीय था. जैसा कि उन दिनों प्रथा थी, उनका विवाह 13 वर्ष की अल्पायु में उतनी ही छोटी रजबन देवी से कर दिया गया था. अगले दशक में, दंपति के 10 बच्चे हुए लेकिन कोई भी जीवित नहीं रहा. लेकिन 1932 में दयावती से अपनी दूसरी शादी से, गुजरमल की पांच बेटियां और चार बेटे थे – ये सभी मोदीनगर में पैदा हुए और पले-बढ़े और मोदीनगर की कहानी के विकास के गवाह थे.
ब्रिटिश राज के अंतिम वर्षों के दौरान एक साहसी मिशन को साकार करने वाले व्यक्ति के दिमाग को अच्छी तरह से समझने के लिए – जब नीतियां हमेशा औसत भारतीय उद्यमियों के हितों के खिलाफ बनाई जाती थीं – गुजरमल के बच्चों और परिवार के अन्य लोगों द्वारा सुनाई गई यादों और कहानियों के खजाने में डुबकी लगानी चाहिए. कहानियों के जरिए किसी को भी अच्छी तरह से जाना जा सकता है.
मामूली रहन-सहन
उनकी सबसे बड़ी बेटी, राजकुमारी अग्रवाल, गुजरमल को एक बेहद स्नेही पिता के रूप में याद करती हैं, जो उन्हें एक बेटे की तरह मानते थे और उन्हें ‘राज बाबू’ कहते थे. वह याद करती है कि वह और उसके सभी भाई-बहन श्रमिकों के बच्चों के साथ खेलते और पढ़ते थे और एक परिवार की तरह एक साथ रहते थे. व्यापार में शुरुआती सफलता के बावजूद, मोदी परिवार बिना किसी तड़क-भड़क या फिजूलखर्ची के संयमित तरीके से रहता था.
राज कुमारी बताती हैं कि मोदी आवास पर हमेशा दाल-सब्जी आदि का सादा खाना ही होता था. मेहमानों के आने पर ही एक्स्ट्रा डिश बनती थी. विस्तृत मोदी परिवार मजदूरों के जीवन में पूरी तरह से शामिल था.
पूरे शहर में रोज सुबह 5 बजे बिगुल बजाने की प्रथा थी. गुजरमल अपने सहायक के साथ हाथ में नोटपैड लिए उनके पीछे-पीछे कस्बे में मॉर्निंग वॉक करते थे. कोई भी निवासी अपनी समस्या लेकर उनसे संपर्क कर सकता था और वह समस्या को हल करने का प्रयास करेंगे.
गुजरमल की चौथी बेटी प्रोमिला भी परिवार की लड़कियों के प्रति अपने पिता की समानता और स्वतंत्रता की जबरदस्त भावना को बड़े प्यार से याद करती हैं. जब परिवार के सभी लड़कों को ग्वालियर के सिंधिया स्कूल भेजा जा रहा था – प्रोमिला ने जोर देकर कहा कि वह भी अपने भाई-बहनों के साथ जाना चाहती थीं. उस दौर में घोर रूढ़िवादी माहौल होने के बावजूद गुजरमल ने प्रोमिला को सिंधिया गर्ल्स हॉस्टल में रहने के लिए भेज दिया. वर्षों बाद, जब प्रोमिला की शादी एक प्रमुख उद्योगपति से हुई, जो विशाखापत्तनम के एक लोहा और इस्पात निर्माण संयंत्र चलाते थे, तो गूजरमल ने प्रोमिला को इस बात के टिप्स दिए कि कंपनी के निर्णय लेने वाले बोर्ड का एक सक्रिय हिस्सा कैसे बनें.
गुजरमल मोदी के सबसे छोटे बेटे उमेश मोदी कहते हैं: “मेरे पिता शायद भारत के एकमात्र उद्योगपति हैं जिनके नाम पर अपने जीवनकाल में एक पूरे शहर का नाम पड़ा है. यह एक ऐसा शहर था जिसे उन्होंने शून्य से बनाया था और उन्होंने अपना पूरा जीवन वहीं बिताया. मेरा इरादा मोदीनगर में फिर से जान फूंकने और उनकी विरासत को आगे बढ़ाने का है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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