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Thursday, 19 December, 2024
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भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी को दिया दूसरा मौका, ‘अपरिपक्व’ होने की इमेज खत्म हुई

नरेंद्र मोदी जैसे नेता के खिलाफ एक वंशवादी परिवार किसी भी तरह से हमला नहीं कर सकता था. लेकिन अब, जिस तरह से उन्हें समझा जाता है, उसमें बदलाव के साथ, राहुल गांधी के पास आखिरकार एक मौका है.

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उन्होंने संभावित उत्तराधिकारी होने का त्याग किया. लेकिन, भारत जोड़ो यात्रा पूरी होने के साथ ही वह संभावित उत्तराधिकारी बन चुके हैं. कन्याकुमारी में यात्रा शुरू करने वाला क्लीन-शेव, युवा व्यक्ति कश्मीर से एक घनी दाढ़ी वाले साथी के रूप में लौटा.

दाढ़ी एक तरह से राहुल की यात्रा का प्रतीक थी. जब उन्होंने अपनी यात्रा के लिए प्रस्थान किया तो उनको मिलने वाले ताने तेज हो गए थे. इस दौरान सबसे प्रमुख प्रतिक्रिया जो थी वह यह थी कि “वह क्या सोचते है कि वह लंबी यात्रा के जरिए क्या हासिल करेंगे?” सामान्य प्रतिक्रिया थी. लेकिन जब तक यात्रा समाप्त हुई, किसी को यह सवाल पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. और थके हुए बूढ़े ‘पप्पू’ वाले ताने भी अनुपयुक्त और क्षुद्र लग रहे थे.

राजनीति में आने के बाद के दो दशकों में राहुल गांधी ने जितने भी काम किए हैं, उनमें से कोई भी भारत जोड़ो यात्रा जितना सफल नहीं रहा है.

मीडिया में अपनी तमाम तरह की विरोधी बातों के बावजूद, ऐसा नहीं है कि राहुल के पास बात करने के लिए अन्य उपलब्धियां नहीं हैं. 2009 में, कांग्रेस ने यूपी में 21 लोकसभा सीटें जीतीं, एक ऐसा आंकड़ा जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी क्योंकि पार्टी ने पिछले चुनावों में इतना बुरा प्रदर्शन किया था. इसका काफी श्रेय राहुल को जाता है.

इससे पहले भी उन्होंने कांग्रेस की युवा शाखा (एनएसयूआई और युवा कांग्रेस) की कमान संभाली थी और उन पर आंतरिक चुनावी लोकतंत्र थोपने की कोशिश की थी. पर्दे के पीछे, उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उदारीकरण अभियान का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यहां तक कि प्रमुख आर्थिक मुद्दों पर अपनी मां के विचारों को भी बदल दिया. (चूंकि वह उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थीं और झोलावालों से घिरी हुई थीं, यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी.)

और फिर भी, जब हम कांग्रेस के दस साल के शासन के बारे में सोचते हैं, तो हममें से बहुत कम लोगों को राहुल की कोई भी उपलब्धि याद आती है. उनकी भूमिका थोड़ी धुंधली सी लगती है. और केवल उनकी नासमझियां या गलतियां याद की जाती हैं: वह कुख्यात प्रेस कॉन्फ्रेंस जहां उन्होंने एक अध्यादेश को फाड़ने की बात कही थी, टाइम्स नाउ का साक्षात्कार या ज्यूपिटर के वेलोसिटी के बारे में न समझ न आने वाला भाषण.


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उनका खुद का अपना काम

इसमें से कुछ राहुल की अपनी गलती है. उनके आलोचकों ने हमेशा जो कहा है, उसे स्वीकार करने में उन्हें बहुत समय लगा: वह एक संगठन के व्यक्ति नहीं हैं और उन्हें व्यक्तियों और उनके राजनीतिक क्षमता के बारे में पहचान नहीं है. न ही उनके पास राजनेताओं जैसी अपनी सच्ची भावनाओं को छुपा सकने का गुण है और न ही वह गुण है कि जिससे भी वह मिलें उसे महत्वपूर्ण महसूस करा सके. उनसे मिलने के लिए कांग्रेसियों को महीनों इंतजार करना पड़ा. जब मिलने का समय दिया गया तो उसका पालन नहीं किया गया और वरिष्ठ लोगों को चक्कर लगावाया गया. और यहां तक कि जब राहुल उनसे मिले भी, तो अक्सर ऐसा लगता था कि उन्हें उनकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है. मेरे पास फिलहाल शिकायत करने वाले कांग्रेस नेताओं की गिनती नहीं है, “उन्हें लगता है कि वह सब कुछ जानते हैं.” और जब उन्होंने उन पर ध्यान भी दिया तो सिर्फ लेक्चर देने के लिए.

अब इस बात पर विचार करें कि अगर राहुल ने संगठन से न जुड़ने का फैसला किया होता या तुगलक लेन में निर्णय लेने के लिए एक वैकल्पिक कोर्ट बनाने का फैसला किया होता और केवल एक मंत्री पद स्वीकार कर लिया होता तो चीजें कितनी अलग होतीं. यदि उन्होंने राज्य मंत्री के रूप में शुरुआत की होती, तो वे लोगों को प्रभावित करते, केवल धीरे-धीरे पूर्ण कैबिनेट मंत्री के दर्जे तक काम करते हुए पहुंचते. उनकी विनम्रता और सीखने की इच्छा के लिए उनकी सराहना की जाती.

इस तरह का कोई सुझाव भी नहीं होता कि वह कांग्रेस के भीतर एक वैकल्पिक शक्ति केंद्र हैं. न ही उन्हें उन सभी कांग्रेसजनों को समय देना पड़ता जो केवल सम्मान देने आते थे लेकिन उन्हें निराश होकर लौटना पड़ता था.

इसके अलावा, वह शायद एक अच्छे मंत्री बने होते. जो लोग उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं, उनका कहना है कि वह काफी समझदार और मेहनती है, और जो चीजें लोगों को बोरिंग लगती हैं उसे भी वे काफी बारीकी और गहराई से पढ़ते हैं. वह कुछ पसंदीदा परियोजनाओं पर काम कर सकते थे और भारत को दिखा सकते थे कि वह क्या करने में सक्षम हैं.

चूंकि उन्होंने संभावित उत्तराधिकारी होना, पार्टी का बॉस-इन-वेटिंग होना चुना, इसलिए किसी को भी यह अंदाजा भी नहीं लगा कि उनकी खूबी या मजबूत पक्ष क्या है. इसके बजाय, चूंकि लोगों ने नेताओं को उसके सामने गिड़गिड़ाते हुए देखा था, इसलिए उन्हें पावरफुल और बिगड़े हुए के रूप में देखने लगे.

अगर वह मंत्रालय चलाते और खुद को सरकार के कामकाज में व्यस्त रखते, तो वह प्रधानमंत्री पद के एक मजबूत दावेदार के रूप में दिखते. अब, लोग सोचते हैं कि उनको शासन की समझ नहीं है और भारत को चलाने जैसे गंभीर कार्य के लिए वह तैयार नहीं हैं.

राहुल गांधी के मित्रों का कहना है कि वह कभी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे; कि उसे सत्ता में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसमें दो स्पष्ट समस्याएं हैं. यदि आप भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों में से एक का नेतृत्व करते हैं और कहते हैं कि आप वर्तमान प्रधानमंत्री के विकल्प नहीं हैं, तो लोग पूछेंगे: यदि हम कांग्रेस को वोट देते हैं तो भारत का नेतृत्व कौन करेगा? यही कारण है कि सोनिया गांधी ने कभी खुले तौर पर यह घोषणा नहीं की कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं, हालांकि उन्होंने यह फैसला जल्दी ही कर लिया था.

और दूसरी समस्या यह है कि अगर आपको पीएम नहीं बनना है तो क्या आपको ऐसे लोगों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए जो यह कर सकते हैं? फिर भी, कांग्रेस ने राहुल पर भारी पड़ने वाले किसी भी युवा नेता को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं किया.

ये गलतियां और ग़लतफ़हमियां आंशिक रूप से आज कांग्रेस की बदहाली का कारण हैं. इंडिया टुडे का एक पोल ‘देश का मिजाज’ बताता है कि अगर आज चुनाव कराया जाता है, तो पार्टी के लिए 70 सीटें पाना भी मुश्किल होगा..

दूसरा मौका

पहली बार राजनीति में प्रवेश करने के 19 साल बाद, भारत जोड़ो यात्रा की सफलता ने राहुल गांधी को दूसरा मौका दिया है. लगता है कि अब उनके पास कोई सांगठनिक जिम्मेदारी नहीं है और यात्रा ने उस छवि को खत्म कर दिया है जो भाजपा ने उनके लिए प्रचारित की थी: एक अधिकार वाले लेकिन अपरिपक्व व्यक्ति.

लेकिन वह यहां से कहां पहुंचते हैं? वह अपने लिए एक नई भूमिका गढ़ने के लिए भारत जोड़ो यात्रा की सफलता को कैसे आगे बढ़ाते हैं? उन्हें पता होना चाहिए कि यात्रा के दौरान लोगों ने उनसे गर्मजोशी से बात की क्योंकि उन्होंने जो संदेश दिया – भारत को प्यार और एकता की जरूरत है – नकारात्मक के बजाय सकारात्मक था. (उन्होंने इस बार किसी को ‘चोर’ नहीं कहा.) और खुद को बाहर रखकर और अजनबियों को अपने साथ चलने देकर, ओपन और खुद तक लोगों की आसान पहुंच बनाने की वजह से, वे अधिकृत या अधिकारों वाले व्यक्ति की छवि से ऊपर उठ गए हैं.

ये भविष्य के लिए अच्छे नींव का पत्थर साबित हो सकते हैं. इंदिरा गांधी के बाद से राहुल गांधी के सबसे लोकप्रिय (और शक्तिशाली) प्रधानमंत्री का सामना कर रहे हैं. इंदिरा गांधी के विपरीत, जो 1971 की अपनी भारी जीत के केवल चार साल बाद संकट में थीं, मोदी टेफ्लॉन कोटेड हैं: मतदाता उन्हें किसी भी चीज के लिए माफ करने को तैयार दिखते हैं क्योंकि उन्हें ईमानदार और नेकनीयत वाले नेता के रूप में देखा जाता है.

ऐसा कोई तरीका नहीं था कि कोई ऐसे नेता से लोहा ले सके. लेकिन अब, जिस तरह से उन्हें समझा जाता है, उसमें बदलाव के साथ, राहुल गांधी के पास आखिरकार एक मौका है. लेकिन फिर भी राजनीति असंभव को संभव कर लेने की कला है.

(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन जर्नलिस्ट और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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