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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतपूर्वोत्तर में युद्ध जैसे हालात के बीच भारत को म्यांमार के जुंटा शासन के बजाए मिजो लोगों का साथ देना चाहिए

पूर्वोत्तर में युद्ध जैसे हालात के बीच भारत को म्यांमार के जुंटा शासन के बजाए मिजो लोगों का साथ देना चाहिए

श्रीलंका में जातीय तमिलों या बांग्लादेश में बंगाली हिंदुओं की तरह, म्यांमार में चिन के खिलाफ हिंसा ने मिजोरम में गुस्सा भड़काया है. नई दिल्ली के लिए सोचने-विचारने के वक्त तेजी से बीतता जा रहा है.

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बसंत में डोलती हवाओं के बीच इंग्लिश मिडिल स्कूल और सैटरडे मार्केट में लगी आग हमीचे वेंग और छिंगा वेंग के करीब तक जा पहुंची थी. ये आग दक्षिण तक इसलिए फैली क्योंकि दो दशक के जारी लड़ाई, जिसे मिजो ने बुई लाई यानी डिस्टर्बेंस की संज्ञा देते हैं, ने जोर पकड़ लिया था. किसी संघर्ष की दहशत केवल उसे झेलने वालों के दिलो-दिमाग में बसी रह जाती है, भारत में शायद बहुत कम ही लोगों ने पुकपुई को आग में झोंक देने, लुंगलेई पर तोपों से बमबारी के खतरे, और कोलासिब, मिजोरम में सामूहिक बलात्कार की घटनाओं के बारे में सुना होगा.

दशकों तक, सरकार उन चश्मदीद गवाहों के बयानों को खारिज करती रही, जिन्होंने 5 मार्च 1966 को भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमानों को आइजोल में बम गिराते देखा था.

आइजोल के एक निवासी ने मेघालय के सांसद जी.जी. स्वेल की अध्यक्षता वाली कमेटी को बताया था, ‘अच्छे विमान वो थे जो थोड़ी धीमी गति से उड़ान भर रहे थे और जिन्होंने बम आदि नहीं गिराए. जबकि दुष्ट विमान उनके आने की आवाज सुनाई देने से पहले हवा में गायब हो जाते थे.’

आइजोल हमले—जो भारत की तरफ से अपने ही नागरिकों पर किया गया पहला और आखिरी हमला था—के सत्तावन साल बाद लड़ाकू जेट विमानों ने फिर मिजोरम को निशाना बनाया है. इस बार जेट विमान म्यांमार वायु सेना के हैं जो भारत की सीमा के साथ बहती तौई नदी के किनारे पर जातीय चिन विद्रोही शिविरों पर धावा बोल रहे हैं.

दिप्रिंट की करिश्मा हसनत ने इस हफ्ते खुलासा किया कि म्यांमार जुंटा के खिलाफ लड़ रहे जातीय चिन विद्रोही मिजोरम को लॉजिस्टिक बेस की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. पिछले साल, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने विद्रोहियों के लिए विस्फोटकों की तस्करी करने वाले नेटवर्क का पता लगाया था. मिजोरम के कुछ निवासी उन विद्रोहियों के साथ मिलकर लड़ रहे हैं जिन्हें वे अपने रिश्तेदार मानते हैं.

एक शांति समझौते ने 1986 में मिजोरम विद्रोह को समाप्त कर दिया था, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में हिंसक संघर्ष दर्शाता है कि जटिल ऐतिहासिक आघात को कैसे दबा दिया गया था. इस क्षेत्र में फिर से हथियारों का प्रवाह, और म्यांमार में अत्याचारों के कारण जो जातीय में बढ़ता राष्ट्रवाद का ज्वार, भारत में युद्ध जैसे हालात उत्पन्न करने लगा है.


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अच्छा सबक नहीं लिया

1965 में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) की तरफ से तैयार किए गए संविधान में घोषित किया गया है, ‘प्रभु यीशु मसीह मिजोरम के शीर्ष प्रमुख हैं, और पवित्र शास्त्र को कानून का आधार स्तंभ माना जाएगा.’ 1958-1959 में एक अकाल के बाद यूटोपियन जातीय-राष्ट्रवादी भावना ने मिजो समाज को बहका दिया. जातीय-राष्ट्रवादियों ने तर्क दिया कि भारतीय शासन मिजो हितों के संरक्षण के मामले में अविश्वसनीय ही नजर आ रहा था. असम के मैदानी इलाकों में अपनी भूमि और पहचान के नुकसान के खिलाफ मिजो की रक्षा के लिए एक नए राष्ट्र राज्य की जरूरत थी.

पूर्वी पाकिस्तान—जो अब बांग्लादेश है—में संरक्षित और प्रशिक्षित एमएनएफ विद्रोहियों ने एक राष्ट्र राज्य स्थापित करने के लिए आइजोल पर कब्जा कर लिया, जिसमें जो हनथलक या इसी परिवार के तमाम वंशजों को जगह मिल सके. इसका मतलब था कि कुकी, मिजो और चिन लोग मिजोरम के अलावा मणिपुर, त्रिपुरा, पूर्वी पाकिस्तान और म्यांमार तक फैले हैं.
भारतीय शासन दूसरा गाल आगे न करने के सिद्धांत पर कायम था.

पूर्व सेना अधिकारी और इतिहासकार विवेक चड्ढा के मुताबिक, आइज़ोल पर कब्जा किए विद्रोहियों को पीछे धकेलने में नाकाम रहने के बाद भारतीय सैनिकों ने वायुसेना की मदद ली. ऑपरेशन में शामिल एक भारतीय अधिकारी ने बताया, ‘हवाई हमले के बाद आइजोल शहर में आग लग गई थी.’ बाद में, सेना के लुंगलेई से आगे डेमागिरी तक घुसने के दौरान और हवाई हमलों का सहारा लिया गया.

केन्या और मलाया में ब्रिटिश उपनिवेशन के खिलाफ विद्रोह से सीख लेते हुए सेना ने ग्रामीण आबादी के पांच में से करीब चार हिस्से को अपनी भूमि से हटाकर कंटीले तारों और गार्ड चौकियों से घिरे गैरीसन गांवों में रहने को मजबूर कर दिया. रणनीति का उद्देश्य यह था कि विद्रोहियों को भोजन और रसद जैसी मदद न मिल पाए और साथ ही आत्मनिर्भर किसान समुदायों को राज्य पर निर्भर बना रहे.

हालांकि, सरकार ने वादा किया था कि पुनर्वास नीति में ‘सैन्य बल की कोई भागीदारी नहीं’ होगी. लेकिन पॉलिटिकल साइंटिस्ट सजल नाग के मुताबिक, वास्तविकता बहुत अलग थी. भोर होने से पहले सेना ने पूरे गांव को घेर लिया और उन्हें बाध्य कर दिया कि अपने साथ जो कुछ भी ले जा सकते हैं, उसे लेकर बैरिकेटिंग से घिर नए स्थानों पर चले जाएं. नए गांवों में आवाजाही को नियंत्रित करने के लिए परिवारों की तस्वीरें ली जाती थीं. मारपीट और उत्पीड़न एक आम बात हो गई थी.

नौकरशाह विजेंद्र जाफा ने लिखा है कि दारजो गांव के बुजुर्गों को उनके अनाज की आपूर्ति और घरों को नष्ट करने का आदेश दिया गया था और फिर बंदूक की नोक पर एक प्रमाणपत्र जारी करने के लिए मजबूर किया गया था कि उन्होंने अपने ही गांव को जला दिया था.

मलाया में ब्रिटिश डॉक्ट्रिन की बौद्धिक नींव रखने के लिए ख्यात जनरल गेराल्ड टेंपलर की ये टिप्पणी काफी प्रसिद्ध है कि विद्रोह को सफलता से कुचलना ‘जंगल में अधिक संख्या में सैनिक झोंकने में नहीं, बल्कि लोगों के दिलो-दिमाग पर छाने में निहित है.’ वहीं, इतिहासकार कार्ल हैक ने लिखा है कि इंपीरियल ब्रिटेन के औपनिवेशिक युद्धों की वास्तविकता यही है कि बड़े पैमाने पर कैदियों पर गोलीबारी की गई, लोगों को फांसी पर चढ़ाया गया, सामूहिक बलात्कार हुए, गाव के गांव जला दिए गए और आबादी के 10वें हिस्से को सुरक्षा घेरे में कैद रखा गया.

1978 में अर्थशास्त्री अमृता रंगासामी ने मिजोरम में फील्ड स्तर पर व्यापक पड़ताल के बाद कहा, ‘भारतीय सेना अंग्रेजों के गुलाम की तरह उनके ही नक्शेकदम पर चली.’ वो भी अंग्रेजों की तरह असफल रही, लेकिन भारत जिन विद्रोहियों से लड़ रहा था, उन्हें भी हार का सामना करना पड़ रहा था.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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