नई दिल्ली: यूके स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड केयर एक्सीलेंस (एनआईसीई) की एक सिफारिश उस देश के किशोरवय मधुमेह रोगियों को वहां की नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) के तहत एक आर्टिफिशियल पैंक्रियाज (कृत्रिम अग्न्याशय) लगवाने के लिए कवर करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है. हालांकि यह महंगी डिवाइस भारत में भी कुछ निजी स्वास्थ्य सुविधाओं में उपलब्ध है, लेकिन कई संस्थानों में इसके और अधिक किफायती (पॉकेट-फ्रेंडली) संस्करण को तैयार करने हेतु काम चल रहा है. किशोरवय मधुमेह या टाइप I मधुमेह एक ऑटोइम्यून रोग है जिसके तहत इंसुलिन का स्राव करने वाली अग्न्याशय की कोशिकाएं या तो नष्ट हो जाती हैं या कम क्षमता पर कार्य करती हैं. इसे आमतौर पर युवा लोगों में ही देखा जाता है.
भारत में 0-14 वर्ष आयु वर्ग के प्रति 1,00,000 बच्चों पर टाइप I मधुमेह के तीन मामले सामने आने का अनुमान है. कृत्रिम अग्न्याशय एक महंगा चिकित्सकीय विकल्प है, और कुछ अनुमानों के अनुसार इसकी कीमत $5000 से अधिक हो सकती है. लेकिन कई भारतीय संस्थान ऐसे मॉडल विकसित करने में भी लगे हुए हैं जो इस उपचार को और सस्ता बना सकते हैं.
इस आलेख के जरिये दिप्रिंट इस तकनीक और उसकी उपलब्धता के बारे में समझने का प्रयास कर रहा है.
एक उपकरण, न कि प्रयोगशाला में विकसित कोई अंग
अमेरिका स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डायबिटीज, डाइजेस्टिव एंड किडनी डिजीज एक कृत्रिम अग्न्याशय को एक ऐसे उपकरण के रूप में परिभाषित करता है, जो ‘स्वचालित रूप से आपके रक्त शर्करा (ब्लड ग्लूकोज) के स्तर पर नज़र रखता है, दिन के दौरान विभिन्न समय बिंदुओं पर आपके लिए आवश्यक इंसुलिन की मात्रा की गणना करता है, और फिर इसे वितरित करता है.’
कृत्रिम अग्न्याशय, जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, प्रयोगशाला में विकसित कोई अंग नहीं है, बल्कि एक उपकरण है जो लैंगरहैंस – अग्न्याशय का वाहिनी रहित (अंतःस्रावी) भाग जो हार्मोन (इंसुलिन सहित) का उत्पादन करता है और जो बाद में रक्त प्रवाह में स्रावित हो जाते हैं – के आइलेट्स द्वारा किए गए कार्य को सटीक बनाता है.
सामान्य रूप से काम करने वाले अग्न्याशय के मामले में, ये आइलेट्स रक्त शर्करा के स्तर को शारीरिक कार्यों के लिए आदर्श रेंज में बनाये रखने के लिए इंसुलिन प्रवाहित करते हैं.
टाइप I मधुमेह के रोगियों के मामले में ये आइलेट कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं. ऐसा अक्सर शरीर द्वारा उन्हें अपने ही एक हिस्से के रूप में पहचानने की बाधित क्षमता के कारण होता है, जिससे कि इन कोशिकाओं के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया बढ़ जाती है. वर्तमान में, ऐसे रोगियों के लिए एकमात्र विकल्प एक मॉनिटर का उपयोग करते हुए अपनी रक्त शर्करा के स्तर की लगातार जांच करना है, जिसका अर्थ यह होता है कि उन्हें बार-बार खुद को सुई चुभानी पड़ती है. इसके बाद उन्हें एक इंजेक्शन (जो और अधिक चुभन पैदा करते हैं) या एक पंप (जो अधिक महंगा होता है) के माध्यम से इंसुलिन लेना होता है.
अग्न्याशय के कृत्रिम संस्करण में पंप के अलावा आएक सेंसर और एक कैलकुलेटर भी लगा होता है जो आवश्यक इंसुलिन की मात्रा की गणना करता है.
अधिकांश कृत्रिम अग्न्याशय प्रणालियो में उपयोगकर्ता को खाने के समय उपभोग किए गए कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पता करने और उसे दर्ज करने की आवश्यकता होती है. इन्हें ‘हाइब्रिड’ कृत्रिम अग्न्याशय प्रणाली कहा जाता है, क्योंकि कुछ इंसुलिन स्वचालित रूप से दिया जाता है और कुछ दर्ज की गई जानकारी के आधार पर दिया जाता है.
ये प्रणालियां पूरे दिन के दौरान रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने में मदद करती हैं, जिससे टाइप I मधुमेह वाले लोगों के लिए अपने रक्त शर्करा के स्तर को (वांक्षित) सीमा के भीतर रखना आसान हो जाता है.
अमेरिका स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डायबिटीज एंड डाइजेस्टिव एंड किडनी डिजीज के अनुसार, रक्त शर्करा के स्तर को एक सीमा में रखने से ‘टाइप I मधुमेह रोगियों को अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के विकसित होने से बचाया जा सकता है और उनके दैनिक जीवन में भी सुधार हो सकता है.
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नाइस की सिफारिश क्या कहती है?
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड केयर एक्सीलेंस (एनआईसीई) वह संगठन है जो उभरती हुई स्वास्थ्य देखभाल (हेल्थकेयर) संबंधी तकनीकों का आकलन करता है और फिर इस बात की सिफारिश करता है कि क्या उनका उपयोग यूके में सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यक्रमों में किया जा सकता है.
ब्रिटेन में कृत्रिम अग्न्याशय व्यापक उपयोग हेतु सिफारिश की जानी चाहिए या नहीं, इस बात का मूल्यांकन करने वाली एक स्वतंत्र समिति के एक मसौदा मार्गदर्शन ने अब इस डिवाइस के पक्ष में अपना फैसला सुनाया है.
मंगलवार को जारी एक बयान में, एनआईसीई ने कहा, ‘एनआईसीई ने उन लोगों के लिए जो इंसुलिन पंप का उपयोग करने, वास्तविक समय या रुक-रुक कर निरंतर रूप से ग्लूकोज मॉनिटरिंग को स्कैन करने के बावजूद अपनी स्थिdiabeticति को नियंत्रित करने में असमर्थ हैं, इस तकनीक की पेशकश की जाती है; बशर्ते उनके ब्लड ग्लूकोज स्तर का दीर्घकालिक औसत इस बात की तरफ संकेत कर रहे हों कि वे दीर्घकालिक जटिलताओं के जोखिम में हैं. इसका तात्पर्य है औसत एचबीए 1 सी रीडिंग का 8.0% या उससे अधिक होना. एनआईसीई के दिशा निर्देश इस बात की अनुशंसा करते हैं कि लोगों को मधुमेह से संबंधित दीर्घकालिक जटिलताओं के जोखिम को कम करने के लिए अपने एचबीए 1 सी स्तर को 6.5% या उससे भी कम बनाये रखने का लक्ष्य रखना चाहिए.
एचबीए 1 सी एक माप है जो बताता है कि एक एचबी (हीमोग्लोबिन) अणु से कितनी रक्त शर्करा जुड़ी हुई है और फिर इसका उपयोग मधुमेह की प्रगति को मापने के एक उपाय के रूप में किया जाता है.
भारत में उपलब्धता
भारत में, टाइप I मधुमेह के उपचार के एक विकल्प के रूप में कृत्रिम अग्न्याशय लगाया जाना अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है. साल 2021 में, डॉक्टरों ने देश के पहले रोगी को डू-इट-योरसेल्फ आर्टिफीसियल पैंक्रियाज (डीआईवाईएपी) के साथ फिट किये जाने के बाद उसके अनुभव की सूचना दी थी. उनके अनुसार, रोगी ने ‘बेहतर समय-सीमा, हाइपोग्लाइसीमिया में बिताये गए नगण्य समय और जीवन की बेहतर गुणवत्ता’ की सूचना दी.
एक डीआईवाईएपी में एक इंसुलिन पंप (इसके लिए अक्सर रोगी द्वारा वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले पंप का ही फिर से उपयोग किया जाता है), और एक निरंतर रूप से को ग्लूकोज मापने वाला मॉनिटर शामिल होता है. यह आवश्यक इंसुलिन की मात्रा की गणना करने के लिए एक एल्गोरिदम का उपयोग करता है.
इस बीच, बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस (आईआईएससी) भारतीय रोगियों के लिए एक ऐसा उपकरण विकसित करने की परियोजना पर काम कर रहा है, जिसके लिए पिछले साल एक पायलट अध्ययन किया गया था.
आईआईएससी द्वारा जारी एक बयान के कहा गया है, ‘एक पायलट (प्रायोगिक) अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने एथिक्स कमिटी (नैतिकता समिति) से मंजूरी प्राप्त करने और रोगियों को सूचित करते हुए उनकी सहमति के साथ जनवरी से मार्च 2022 तक एमएस रमैया मेडिकल कॉलेज में 10 टाइप -1 मधुमेह रोगियों पर अपने एपी (आर्टिफिशियल पैंक्रियाज) सिस्टम का परीक्षण किया. इन दस सब्जेक्ट्स में से, चार सफल रहे, जिनके मामले में परीक्षण की अवधि के दौरान ब्लड ग्लूकोज सामान्य सीमा के भीतर था. शेष छह में से तीन आंशिक रूप से सफल रहे थे, लेकिन मुख्य रूप से हार्डवेयर से जुड़े मुद्दों के कारण उनके परीक्षण को बीच में छोड़ दिया गया.
(अुनवाद: राम लाल खन्ना | संपादन: ऋषभ राज)
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