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Tuesday, 19 November, 2024
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रेलवे का विस्तार, द्वितीय विश्व युद्ध की मांग- कैसे भारतीय बाज़ारों पर चला उषा सिलाई मशीन का जादू

उषा सिलाई मशीन को 1950 के दशक की महिलाओं के लिए एक संबल की तरह देखा जाता था और शादी के साजो-सामान में इसका प्रमुख स्थान हुआ करता था.

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यादगार के रूप में पुराने अखबारों की कतरनें इकट्ठा करने के शौकीन लोगों को वह विज्ञापन याद होगा जिसमें एक सिलाई मशीन के सामने बैठी मां-बेटी की जोड़ी बैठी नज़र आती थी. विज्ञापन पर बोल्ड अक्षरों में लिखा था, ‘उसे एक आदर्श गृहिणी बनने के लिए प्रशिक्षित करें – उसे एक उषा सिलाई मशीन खरीद कर दें.’ अगर मशीनें सशक्तीकरण का साधन हैं, तो उषा सिलाई मशीन को 1950 के दशक की महिलाओं के लिए एक संबल की तरह देखा जाता था और शादी के साजो-सामान में इसका प्रमुख स्थान हुआ करता था.

उषा सिलाई मशीन की कहानी 1935 में बिशन दास बासिल के साथ शुरू हुई, जिन्हें भारतीय इंजीनियरिंग उद्योग के इतिहास में अग्रणी माना जाना चाहिए. बासिल के पिता गंगाराम की लुधियाना में हलवाई की दुकान थी और बासिल को छोड़कर उनके सभी बच्चे इस व्यवसाय में शामिल हो गए. उन्होंने मैट्रिक से आगे की पढ़ाई की, एक स्कॉलरशिप ली और 1901 में रुड़की कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में पढ़ने लगे, जहां उन्हें ब्रिटेन में विशेष ट्रैनिंग के लिए एक और स्कॉलरशिप मिली. 1906 में भारत लौटने पर, बासिल कलकत्ता में डाक और तार विभाग में कार्यरत हो गए.

अपनी ‘असाधारण’ प्रतिभा के कारण, वे जल्द ही केंद्रीय टेलीग्राफ कार्यालय से जुड़ी एक वर्कशॉप के सुपरिटेंडेंट बन गए. रिसर्च एंड एक्सपेरिमेंटल सेल में बैठ कर उन्होंने टेलीग्राफ और टेलीफोन प्रणालियों में इस्तेमाल आने वाले कई डिवाइस को तैयार किया. इन प्रयासों ने उन्हें एहसास कराया कि कैसे प्राथमिक साधनों के लिए भारत की निर्भरता विदेशों पर अधिक थी और वह इस चकाचौंध भरी असमानता को ठीक करना चाहते थे. इस दिशा में उन्होंने अपने मित्र बी.के. रोहतगी से बिजली के पंखों के निर्माण के लिए एक पेटेंट लिया, जो उस समय भारत में नहीं बने थे. इस प्रकार 1923 में इंडिया इलेक्ट्रिक वर्क्स की नींव रखी गई और पहली बार भारत में बिजली के पंखों का निर्माण किया गया.

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उषा सिलाई मशीन का पुराना विज्ञापन | स्पेशल अरेंजमेंट

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पहली उषा मशीन का प्रोटोटाइप

जैसे ही उनकी रिटायरमेंट करीब आने लगी, बासिल ने एंटरप्रेन्योरशिप में कदम रखने का फैसला किया. इम्पोर्ट के आंकड़ों से पता चला कि 1934 में 60,000 सिलाई मशीनें इम्पोर्ट की गईं थीं और यह आंकड़े निश्चित रूप से बढ़ने थे. उन्होंने 25 लैंसडाउन रोड, कलकत्ता में अपने स्टाफ क्वार्टर में एक कमरे को एक वर्कशॉप में तब्दील कर दिया और एक स्वदेशी सिलाई मशीन बनाने के लिए एक प्रोटोटाइप के रूप में जर्मन पीएफएएफएफ (Pfaff) सिलाई मशीन के बारे में पढ़ना शुरू किया. उस समय भारत के मैनुफैक्चरिंग उद्योग की स्थिति ऐसी थी कि एक प्रोटोटाइप की प्रतिलिपि बनाने और फिर से बनाने के लिए मिलिंग, ड्रिलिंग, खराद, प्रेस या केपस्टर के लिए कोई उपकरण नहीं थे. ऐसी कोई वर्कशॉप नहीं थी जहां पंप, जैक, हिंज, हैंडल, नॉब, फास्टनर, बोल्ट, हुक रैक, सैडल, वेइंग मशीन आदि उत्पादों को खरीदा या किराए पर लिया जा सके.

भारत में स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग का विकास रेलवे के साथ शुरू हुआ, जिससे पुलों और इस्पात संरचनाओं का निर्माण हुआ. इसलिए उपकरण और प्रशिक्षित श्रमिकों ने जूट, कपास, कोयला और छोटी मशीनों के निर्माण जैसे अन्य स्पानिंग उद्योगों में प्रवेश करना शुरू कर दिया था.

इन सभी कारणों से, भारतीय सिलाई मशीन के मॉकअप को फिर से बनाने में बासिल को पूरा एक साल लग गया. अगले दो साल तक, बासिल ने इस प्रोटोटाइप को ठीक करने में अपना समय और सेविंग्स लगाना जारी रखा. यह कच्चा, जर्जर और अनाकर्षक था लेकिन अगर सावधानी से संभाला जाए तो यह मशीन सिलाई कर सकती है. उसके बाद, बासिल ने 75 कर्मचारियों पर 25,000 रुपये की एक बड़ी राशि खर्च की, जो फिटर, असेंबलर, टर्नर, मिलर्स और फाउंड्री वर्कर्स थे, 25 कास्ट पार्ट्स जैसे स्क्रू, पिन, वॉशर और स्प्रिंग बनाने के लिए. फिर भी, अच्छी क्वालिटी के पुर्जे जैसे शटल, बॉबिन, फीड डॉग, सुई आदि Pfaff की दुकानों से खरीदे जाते थे. 1936 के अंत तक 25 सिलाई मशीनें बनकर तैयार हो गईं और बेसिल ने ब्रांड का नाम अपनी सबसे छोटी बेटी उषा के नाम पर रखा.

उषा की सेल्स टीम ने प्रदर्शनों के लिए घर-घर एक मशीन पहुंचाई. इसने ‘देशभक्ति और स्वदेशी आंदोलन’ की प्रबल अपील की, लेकिन उनकी मशीनें नहीं बिक रही थीं: उनका पेंट असमान था, सिलाई की गति धीमी थी, आधार और स्टैंड फिट नहीं थे और मशीन के पहिये और स्टैंड में तालमेल नहीं था, जिससे बार-बार धागा फंस जाता था.

इस समय तक, बासिल पर 92,000 रुपये का कर्ज था. सुधार करने या सिस्टम को फिर से तैयार करने के लिए पर्याप्त उपकरण, उत्पादन तंत्र और संसाधन नहीं थे. परियोजना को एक मृत अंत का सामना करना पड़ा.


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डीसीएम मिल्स और जय इंजीनियरिंग वर्क्स की मुलाकात

इस बीच, बासिल के सप्लायर्स में से एक ने उन्हें डीसीएम मिल के मालिक लाला श्री राम से मिलवाया, जो हमेशा इंजीनियरों और इनोवेटर्स से मिलने के लिए तैयार रहते थे और बासिल के साहस और तप से वह पहले से प्रभावित थे. एक सिलाई मशीन एक सटीक वस्तु है जिसमें 220 चीज़ों का निर्माण शामिल है – उनमें से कुछ इतने छोटे और जटिल हैं कि उन्हें बनाने के लिए 30 प्रक्रियाओं की ज़रूरत होती है. कुल मिलाकर, एक सिलाई मशीन बनाने में 1,800 ऑपरेशन लगे, जिसके लिए विभिन्न उपकरणों, जिग्स, और कुछ विशेष कच्चे माल की आवश्यकता थी, जो उस समय भारत में निर्मित नहीं होते थे. बेसिल की कंपनी जय इंजीनियरिंग वर्क्स (JEW) अपने समय से काफी आगे थी, लेकिन ठीक इसी वजह से लाला श्रीराम जैसे कारोबारी के लिए चुनौती और साहस दोनों कठिन और रोमांचकारी थे.

At USHA fan factory L to R: Shri Dhar, TR Gupta, Dr BC Roy, Chief Minister, West Bengal, Lala Shri Ram | Special arrangement
उषा पंखे के कारखाने में बाएं से दाएः श्री धर, टीआर गुप्ता, डॉ बीसी रॉय, मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल, लाला श्री राम | स्पेशल अरेंजमेंट

2 मार्च 1938 को, JEW के बोर्ड को भंग कर दिया गया और एक नई पब्लिक लिमिटेड कंपनी का एक नया बोर्ड बनाया गया, जिसमें लाला श्री राम, उनके विश्वस्त प्रबंधक हंस राज गुप्ता और एम.जी. भगत शामिल थे, साथ ही तीन और प्रतिष्ठित उद्योगपति – पदमपत सिंघानिया, केएल पोद्दार और करमचंद थापर. यह तथ्य कि इतने प्रसिद्ध उद्योगपति इस ‘मिशन’ का हिस्सा बनने के लिए सहमत हुए हैं, एक ‘स्वदेशी’ उद्योग बनाने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है.

कोलकाता के प्रिंस अनवर शाह रोड पर 31 बीघा ज़मीन खरीदी गई. कंपनी ने नए कर्ज और शेयर पूंजी का एक नया हिस्सा हासिल किया. मेसर्स करम अली और आरपी लाहिड़ी इंजीनियरों और ठेकेदारों को यूरोप से मंगाई गई मशीनों और औज़ारों को रखने के लिए कारखाने की इमारत बनाने का काम सौंपा गया था.

उत्पादन बाधाओं को दूर करने और बिक्री टीमों, कमीशन एजेंटों, शोरूम, डेमो इकाइयों, मार्केटिंग योजनाओं, ग्राहक शिकायत इकाइयों और विज्ञापन बजट और टीमों को छांटने के लिए लाला श्री राम ने कलकत्ता का मासिक दौरा करना शुरू किया.


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युद्ध की मांग, बंपर मुनाफा

एक कुशल ‘स्वदेशी’ सिलाई मशीन के उत्पादन और बिक्री को कारगर बनाने के इस हर संभव प्रयास के बावजूद, कंपनी ने 1939 में 38,000 रुपये के नुकसान के साथ अपने खाते बंद कर दिए. द्वितीय विश्व युद्ध के भूत ने शत्रुता की जापानी घोषणा के साथ अपना सिर उठाया. कलकत्ता पर हवाई हमलों और बम विस्फोटों के निहित खतरे के साथ, आतंक फैल गया और बड़ी संख्या में कारखाने के श्रमिक अपने गांवों के लिए रवाना हो गए. लाला श्री राम ने जय के प्रबंधकों को लिखा, ‘यदि खतरा अधिक गंभीर हो जाता है, तो मैं नहीं चाहता कि कोई पैसे के लिए अपनी जान जोखिम में डाले. अगर हम अपने लोगों को बचा लेंगे तो हम फिर से काम कर पाएंगे.’

इन परिस्थितियों में, उषा सिलाई मशीन परियोजना को लगभग छोड़ दिया गया था. इसके बजाय मशीन कारखाने ने युद्ध की मांग के लिए – रेलवे सिग्नलिंग उपकरण, पानी के मीटर, लोहे की पिकेट, जीप कारों के लिए चेसिस, डायल संकेतक, गर्म पानी के बॉयलर, तूफान लालटेन और ऊषा पंखे जैसे सामान का उत्पादन करना शुरू कर दिया

वस्तुएं सटीकता और मूल्य के मामले में भिन्न थीं, लेकिन कारखाने के बारे में बासिल के तकनीकी ज्ञान ने, अपने स्वयं के अव्यवस्थित तरीके से, बड़े पैमाने पर इन वस्तुओं का उत्पादन किया.

कंपनी के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 1942 जय इंजीनियरिंग वर्क्स के लिए 6,83,677 रुपये के बंपर लाभ के साथ बंद हुआ. लाला श्री राम ने तब अपने सभी उद्योगपति मित्रों को एक पत्र संबोधित किया, ‘इतने वर्षों तक, मुझे लगा कि मैंने अपने सभी दोस्तों को एक असफल उद्यम में उलझा दिया है, जिसमें वे मेरे लिए शामिल हुए. लेकिन कंपनी की स्थिति अब अच्छी है, इसलिए यदि कोई चाहे तो उचित मूल्य पर अपने शेयर का निपटान कर सकता है और कंपनी में अपनी रुचि को समाप्त कर सकता है.’ लेकिन किसी ने उनके प्रस्ताव का लाभ नहीं आठाया.

लाला श्री राम युद्ध के लाभ से अप्रभावित रहे और सभी को याद दिलाते रहे कि युद्ध की असामान्य परिस्थितियां जल्द ही समाप्त हो जाएंगी और कंपनी को फिर से बाज़ार की ताकतों के सामने झुकना होगा इसलिए उन्हें नवाचार, इंजीनियरिंग और उत्पाद की उत्कृष्टता पर ध्यान देना चाहिए. उन्होंने कारखाने के फर्श पर और प्रशासन, वित्त, बिक्री और खरीद विभागों में अत्यंत सक्षम प्रबंधकों को नियुक्त करने के लिए युद्धकाल का उपयोग किया.


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पंखे, सिलाई मशीन, स्थायी काम

बिशन दास बासिल एक शानदार इंजीनियरिंग दिमाग और एक उत्साही इनोवेटर थे, लेकिन एक कारखाने के प्रबंधक के रूप में उनके कौशल सीमित थे. अंत में, दिसंबर 1943 में, बासिल ने इस्तीफा दे दिया और कंपनी ने उन्हें प्रारंभिक उत्पाद डिजाइन के लिए रॉयल्टी का भुगतान किया, साथ ही युद्ध लाभ के लिए अतिरिक्त राशि के साथ-साथ नए उद्यम शुरू करने के लिए 25,000 रुपये की राशि भी दी.

नए प्रबंधन को लिखे एक नोट में, लाला श्री राम ने लिखा, ‘हमें चांदनी के पीछे नहीं भागना चाहिए. हमें अपनी ऊर्जा को ठोस और स्थायी काम – शांतिकाल की नौकरियों पर केंद्रित करना चाहिए, यानी उषा सिलाई मशीन, बिजली के पंखे, प्रेशर कुकर जैसी नागरिक आवश्यकताओं को पूरा करना ताकि हम आयातित वस्तुओं से लड़ सकें.’

1946 के बाद से, सभी प्रकार की चुनौतियों के बावजूद, जय इंजीनियरिंग वर्क्स गहन गतिविधियों से गुज़रा और 1947 में यह प्रति माह 1,000 सिलाई मशीनों के उत्पादन लक्ष्य तक पहुंचने में सफल रहा.

कलकत्ता में बार-बार होने वाले दंगों के बाद, लाला श्री राम ने श्रमिकों के घरों में कार्यशालाओं के समूह बनाने की एक प्रणाली बनाई ताकि कोई बिना वेतन के न रहे और आपूर्ति श्रृंखला अखंड रहे. जब कंपनी के दो वरिष्ठ प्रबंधन कर्मियों की मृत्यु हो गई, तो उनके बेटों चरत राम और भरत राम को सेवा में लगाया गया. जब भी मजदूरों की हड़ताल होती थी, लाला श्री राम संवाद की शुरुआत करने और काम फिर से शुरू करने के लिए मजदूरों की सभाओं में जाने के लिए जाने जाते थे.

Credit: Special arrangement
फोटोः स्पेशल अरेंजमेंट

1951 से 1961 के दशक में, जय इंजीनियरिंग वर्क्स – उषा सिलाई मशीन और उषा पंखों की मूल कंपनी ने बिक्री में नौ गुना और सकल अचल संपत्तियों में पांच गुना वृद्धि की. मार्च 1962 तक, जय की शेयर पूंजी 2 करोड़ रुपये के स्तर को पार कर गई.

किसी भी चीज़ से ज्यादा, स्वदेशी प्रतिभा और प्रणालियों का उपयोग करके वास्तव में एक अभिनव इंजीनियरिंग इकाई बनाई गई थी. उषा सिलाई मशीन एक पसंदीदा ब्रांड था जो अगले आठ दशकों तक बाज़ार पर हावी रहा.

यह लेख बिजनेस हिस्ट्रीस नामक श्रृंखला का एक हिस्सा है, जो भारत में प्रतिष्ठित व्यवसायों की खोज कर रहा है, जिन्होंने कठिन समय और बदलते बाज़ारों का सामना किया है. सभी लेख यहां पढ़ें.


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