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Wednesday, 20 November, 2024
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आपको चुनौती देना विपक्ष का गुनाह नहीं जिम्मेदारी है प्रधानमंत्री जी!

अभी जो हालात हैं, उसके मद्देनजर प्रधानमंत्री से पूछने का मन होता है कि वे ऐसे जो मुसकुरा रहे हैं, कौन-सा गम है जो छुपा रहे हैं?

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लोकसभा चुनाव की औपचारिक घोषणा में अभी देर है, लेकिन उससे जुड़ी राजनीतिक दलों की सरगर्मियां पल भर की भी देरी गवारा नहीं कर पा रहीं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो अपनी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की ‘अब तक की सबसे बड़ी’ और बहुप्रचारित बैठक के पहले से ही रैलियों का देशव्यापी सिलसिला चला रखा है. इस सिलसिले में फिलहाल, उनके पास दो बड़ी सुविधाएं हैं. पहली यह कि अभी उन पर किसी आदर्श आचार संहिता की बंदिश नहीं है और दूसरी यह कि राजनीति में ऐसी नैतिकता गुजरे जमाने की चीज हो गई है कि सरकारी पार्टी को सरकारी खर्चे पर खुल्लमखुल्ला वोट मांगने में कोई बुराई नजर आये या इससे परहेज बरतने की जरूरत महसूस हो.

इसलिए वे जहां भी जा रहे हैं, अपने दायित्व से जुड़ा कोई काम करें या नहीं, दो काम जरूर कर रहे हैं. पहला विपक्ष पर बरसने का और दूसरा अपने अगले राज्याभिषेक के लिए मतदाताओं का आशीर्वाद मांगने का. इस क्रम में वे ऐसा जताते भी चले जा रहे हैं कि जैसे विपक्ष का चुनाव में उनके सामने चुनौतियां खड़ी करना उसका संवैधानिक या लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, बल्कि राजनीतिक गुनाह हो और उनकी सरकार के खिलाफ एकजुट होने की कोशिशें करके वह कोई बड़ा अपराध कर रहा हो.


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वे कहते हैं कि उनके द्वारा लूट रोक देने के कारण लुटेरे उनके खिलाफ एक हो रहे हैं तो कतई फिक्र नहीं करते कि इससे न सिर्फ विपक्ष बल्कि असहमतियों के आदर के सर्वथा अनिवार्य लोकतांत्रिक आदर्श का भी अनादर होता है. उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की बात करें तो वे तो अरसे से विपक्षी दलों को सांप-छुछूंदर, चूहे और नेवलें आदि न जानें क्या-क्या बताते आ रहे हैं. मोदी सरकार के खिलाफ आवाजें उठाने वालों को ‘देशद्रोही’ करार देने का उनकी जमात का शगल तो खैर अब पांच साल पुराना हो चुका है.

विपक्ष है कि फिर भी ‘अपराधों’ से बाज नहीं आ रहा. अलबत्ता, अकूत सरकारी संसाधनों से प्रधानमंत्री की जुगलबन्दी के मुकाबले उसकी शक्ति व सामथ्र्य की सीमा बहुत संकरी है, इसलिए फाइनल मुकाबले की पीठिका का बड़ा हिस्सा अभी सवाल-जवाब तक ही सीमित है.

पहले प्रधानमंत्री के ही सवाल लें तो उनमें सबसे बड़ा यह है कि अगर वे (यानी प्रधानमंत्री) इतने ही खराब हैं और उनकी सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है तो विपक्ष को उनके खिलाफ महागठबंधन या मोर्चा बनाने की कवायद क्यों करनी पड़ रही है? कोई विपक्षी पार्टी उनसे अकेली लोहा लेने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा पा रही?

हम जानते हैं कि आज की राजनीति में सीधे जवाब देने का नहीं जवाबी सवाल पूछने का चलन है. इस लिहाज से विपक्ष के लिए प्रधानमंत्री के इस सवाल का सबसे उपयुक्त जवाबी सवाल प्रधानमंत्री की रैलियों की ओर ही ले जाता है. मसलन, अगर प्रधानमंत्री ने वाकई उतना ही अच्छा काम किया है, जितना वे कह रहे हैं, तब तो उनकी वापसी बेहद आसान होनी और उसके लिए किसी प्रचार की जरूरत ही नहीं पड़नी चाहिए. फिर क्यों उन्हें इस कदर नये सब्जबागों वाले प्रचार पर निर्भर करना पड़ रहा है? क्यों वे 2014 के लोकसभा चुनाव के ‘विकास के महानायक’ के ऊंचे आसन से उतरकर अयोध्या में राममन्दिर निर्माण के ऐसे मामले में जा उलझे हैं, जिससे जुड़ा देश का लोकतांत्रिक इतिहास गवाह है कि उसमें उलझने वाली कोई भी सरकार अपनी वापसी संभव नहीं कर पाई?


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फिर, एक खुलासे के अनुसार, क्या यह जनता की अदालत में जाने से पहले उनके आत्मविश्वास खो देने जैसा नहीं है कि वे विपक्षी नेताओं को जनता की निगाहों में गिराने के लिए सरकारी अफसरों को कुछ न कुछ करने को उकसाते रहते हैं और उनके वित्तमंत्री को चार महीनों के अंतरिम बजट को ‘सौगातों’ की ऐसी बारिश में डुबोना पड़ा है, जिसे वोट पाने के लिए वोटरों को खैरात बांटने जैसा कहा जा रहा है?

इस आत्मविश्वासहीनता की जड़ें भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अमित शाह द्वारा पार्टी कार्यकर्ताओं को दी गई इस चेतावनी में ढूढ़ी जा सकती हैं कि अगर अबकी बार चूके तो दो सौ साल के लिए गुलाम हो जायेंगे. तिस पर हद यह कि शाह डरे हुए हैं कि इस बार भाजपा हार गई तो लोकसभा के चुनाव 2219 में ही संभव होंगे!

शाह का यह डर तब है, जब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में विपक्षी महागठबंधन का उनसे नहीं, सीधे जनता से ही मुकाबला है यानी जनता उनकी सरकार के पक्ष में उठ खड़ी होने वाली है. देश के भविष्य को लेकर वे इतने गहरे अविश्वास के शिकार हैं, तो इस विडम्बना को इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता है कि दरअस्ल, चुनाव में हार के जिस डर को प्रधानमंत्री अपनी दर्पोक्तियों से छिपाना चाहते हैं, वह पार्टी अध्यक्ष के मुंह से नाना रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है. कोढ़ में खाज यह कि उन्हें उससे उबरने का 2014 जैसा कोई मैजिक भी नहीं सूझ रहा.


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याद कीजिए, 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा और उसके प्रचारतंत्र ने किस तरह देश भर में मोदी मैजिक का भ्रमजाल रचा था और किस तरह अच्छे दिन आने वाले हैं, चाय पे चर्चा, मां गंगा ने बुलाया है, जैसे कई जुमलों को नाटकीय ढंग से बरबस लोगों की जुबान पर बैठा दिया था. इतना ही नहीं, इस तंत्र ने लगातार जताया था कि देश जैसी अभूतपूर्व दुर्दशा से गुजर रहा है, उसका एकमात्र इलाज नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार ही है, जो आयेगी तो देश की किस्मत बदल डालेगी. फिर तो लोगों ने भाजपा पर यकीन कर उसको न सिर्फ लोकसभा में भारी बहुमत दिया, बल्कि बाद के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी जिताया. अलबत्ता, जहां नहीं जिताया, उसने जोड़-तोड़कर वहां भी सरकारें बनाईं और उन्हें लेकर उठाये गये सवालों की पूरी तरह अनसुनी कर दी.

लेकिन जैसी कि एक कहावत भी है-इस बड़े देश के अरबों लोगों को लम्बे समय तक ‘बनाते’ रहना संभव नहीं था, सो, नहीं हुआ और मोदी सरकार के कार्यकाल के अंतिम दौर में पहुंचते पहुंचते लगता है कि उन्हें सच्चाई समझ में आ गई है. स्वाभाविक ही वे पूछने लगे हैं कि अच्छे दिन अब तक क्यों नहीं आए और अब तक नहीं आये तो अब कब आएंगे? इस सवाल का जवाब न भाजपा दे पा रही है और न प्रधानमंत्री. पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद वे इसके सामने निरुत्तर हैं.

बेचैनी व बौखलाहट में भाजपा को यह भी याद नहीं रह गया है कि आचार्य विनोबा भावे कह गये हैं कि स्वस्थ लोकतंत्रों में चुनाव लड़े नहीं खेले जाते हैं. इसलिए अमित शाह यह भी कह रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव पानीपत की तीसरी लड़ाई जैसा है. इसे भाजपा नेताओं द्वारा अक्सर अपनी सुविधा के लिहाज से की जाने वाली इतिहास की गलत व्याख्या भर नहीं माना जा सकता.


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लेकिन जानकार कहते हैं कि अभी तो यह इब्तिदा है. डर की यह इब्तिदा जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, वे उसको भगाने के लिए नये नारों और जुमलों या कि सब्जबागों की ओर बढ़ जायेंगे. उनके लोग ऐसे ही नहीं कह भी रहे कि सामान्य वर्ग को दस प्रतिशत आरक्षण का मास्टरस्ट्रोक इकलौता नहीं है. जाहिर है कि ऐसे और भी मास्टरस्ट्रोक आयेंगे. लेकिन चुनाव में आखिरी फैसला इस कसौटी पर होगा कि विपक्ष उनके मास्टरस्ट्रोकों से डरकर उन्हीं जैसे आचरण पर उतर आता है या प्रायः डर के आगे छिपी रहने वाली जीत से साक्षात्कार के लिए उनका सच्चा विकल्प बन पाता है.

बहरहाल, अभी जो हालात हैं, उनके मद्देनजर प्रधानमंत्री से पूछने का मन होता है कि वे ऐसे जो मुसकुरा रहे हैं, कौन-सा गम है जो छुपा रहे हैं? और होता है तो इस तथ्य में शरण लेना भी गवारा नहीं करता कि जो प्रधानमंत्री अपने पांच सालों के कार्यकाल में असुविधाजनक सवालों के जवाब देने की आदत ही नहीं डाल पाये, वे इस सवाल का जवाब भी नहीं ही देने वाले.

(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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