30 जनवरी, 1948 वह काला दिन है जब शाम के साढ़े पांच बजे महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई. यह दिन काला इसलिए भी है क्योंकि जहां गांधी की हत्या उनके वैचारिक विरोधी नाथूराम गोडसे ने की, वहीं गांधीवाद की कसमें खाने वालों ने अगली सुबह तक गांधीवाद की भी हत्या कर दी थी. नाथूराम गोडसे मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में थे और हिन्दू राष्ट्र नाम के एक मराठी पत्र के संपादक थे. वह हिन्दू महासभा के सामान्य सदस्य भी थे. युवावस्था में गोडसे ने कुछ समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में भी बिताए थे. वैचारिक मतभेदों के कारण वह संघ से अलग हो गए थे.
हिन्दू महासभा सभा से गोडसे के जुड़े होने के कारण 30 जनवरी की रात को ही पुणे और मुम्बई में हिन्दू महासभा, आरएसएस और अन्य हिंदूवादी संगठन से जुड़े लोगों और कार्यालयों पर हमले शुरू हो गए. डॉ कोएनराड एल्स्ट की पुस्तक ‘वाय आई किल्ड द महात्मा (Why I Killed the Mahatma) के अनुसार 31 जनवरी की रात तक मुम्बई में 15 और पुणे में 50 से अधिक हिन्दू महासभा कार्यकर्ता, संघ के स्वयंसेवक और सामान्य नागरिक मारे दिए गए और बेहिसाब संपत्ति स्वाहा हो गई. 1 फरवरी को दंगे और अधिक भड़के और अब यह पूरी तरह जातिवादी और ब्राह्मणविरोधी रंग ले चुका था. सतारा, कोल्हापुर और बेलगाम जैसे ज़िलों में चितपावन ब्राह्मणों की संपत्ति, फैक्ट्री, दुकानें इत्यादि जला दी गई. औरतों के बलात्कार हुए. सबसे अधिक हिंसा सांगली के पटवर्धन रियासत में हुई.
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मुंबई में स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के घर पर भी हमला हुआ. सावरकर तो बच गए लेकिन उनके छोटे भाई डॉ नारायण राव सावरकर घायल हो गए और इसी घाव के कारण सन 1949 में उनकी मृत्यु हो गई. नारायण राव एक स्वतन्त्रता सेनानी और एक समाज सुधारक थे लेकिन समाज से बदले में उन्हें पत्थर ही मिल सका. उस समय तक दंगों पर प्रेस की रिपोर्टिंग पर बहुत सारी बंदिशें थीं. लेकिन एक अनुमान के अनुसार मरने वालों की संख्या हज़ार से कम न थी. ये सब अहिंसा को अपने जीवन का मूलमंत्र मानने वाले गांधी के नाम पर हुआ. कोएनराड इन दंगों की तुलना सिख विरोधी दंगों से करते हैं. वे लिखते हैं कि जहां सिख विरोधी दंगो की सच्चाई देश वाकिफ है, वहीं महाराष्ट्र के इन दंगों की न कभी कोई चर्चा हुई और न किसी को कोई सजा मिली.
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ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी की हत्या को कांग्रेस के अंदर के ही एक धड़े ने एक राजनीतिक मौके के तौर पर देखा. गांधी के हस्तक्षेप से नेहरू प्रधानमंत्री तो बन गए थे लेकिन पार्टी में उनकी खास नही चलती थी. कांग्रेस के दक्षिणपंथी हिंदूवादी धड़े के नेता सरदार पटेल थे. पटेल की कांग्रेस संगठन में ज़बरदस्त पकड़ थी. लेकिन सरदार पटेल के गृहमंत्री रहते हुए एक धुर दक्षिणपंथी द्वारा गांधी की हत्या हुई थी. नेहरू के करीबी नेताओं ने खुलेआम सरदार पर गांधी की सुरक्षा में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया. कुछ लोगों ने दबी जुबान में सरदार को इस षड्यंत्र का हिस्सा तक बता दिया.
कांग्रेस के अंदर के दक्षिणपंथियों को पछाड़ने के लिए नेहरू ने गांधी की हत्या को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. इसकी परिणाम सन 1950 में दिखा जब दक्षिणपंथी माने जाने वाले पुरुषोत्तम दास टण्डन को हटाकर नेहरू स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे. यही कांग्रेस के अंदर नेहरू युग की औपचारिक शुरुआत थी.
नेहरू ने गांधी की हत्या को कांग्रेस के अंदर ही नही बल्कि बाहर के प्रतिद्वंदियों को निबटाने के लिए भी इस्तेमाल किया. मनोहर मलगावकर की पुस्तक ‘ द मेन हूं किल्ड गांधी- The Men Who Killed Gandhi’ में गोडसे के वकील एलबी भोपतकर बताते हैं कि तत्कालीन सरकार के विधि मंत्री डॉ भीमराव अंबेडकर ने निजी रूप से उन्हें बताया था कि सबूत न होने के बावजूद नेहरू हर कीमत पर सावरकर को इस हत्याकांड से जोड़ना चाहते थे. क्योंकि एकबार गांधी हत्याकांड में सावरकर गिरफ्तार हो जाते तो उनकी राजनीतिक चुनौती हमेशा के लिए समाप्त हो जाती. पूरे मुकदमे के दौरान पुलिस सावरकर के विरुद्ध किसी भी तरह का प्रमाण पेश करने में नाकाम रही. लेकिन आज भी 70 वर्ष बाद भी नेहरूवियन सेकुलरिज्म के पैरोकार सावरकर को गांधी हत्या में सह-अभियुक्त बताते नही थकते.
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न्यायालय को दिए अपने बयान में नाथूराम गोडसे ने कहा कि सन 1932 में आरएसएस संस्थापक डॉ हेडगेवार के प्रभाव में वह संघ से जुड़ा था लेकिन जब सन 1937 में वीर सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने तब गोडसे ने संघ से नाता तोड़ कर हिन्दू महासभा के साथ जाने का निश्चय किया. गोडसे मानते थे कि हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा राजनीतिक कार्यक्रमों के माध्यम से ही हो सकती है.
हिन्दू महासभा ने भी गोडसे को महासभा के कार्यकर्ता के रूप में स्वीकार किया. लेकिन इसके बाद भी तत्कालीन सरकार ने आरएसएस को गांधी हत्या के षड्यंत्र का दोषी माना. यही नहीं हिन्दू महासभा पर तो कोई प्रतिबन्ध नही लगा लेकिन आरएसएस, जिसके साथ गोडसे का पिछले 11 वर्षों से कोई सम्पर्क नही था, पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
प्रश्न उठता है कि संघ पर प्रतिबंध क्यों लगा और हिन्दू महासभा पर क्यों नही? इसका कोई सीधा उत्तर तो नही है. लेकिन कुछ इस तरह समझा जा सकता है. वर्षों के काला पानी की सजा ने सावरकर के शरीर को कमजोर कर दिया था. इसलिए सावरकर ने हिन्दू महासभा की कमान डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सौंप दी थी. डॉ मुखर्जी गांधी और कांग्रेस के प्रति नरम माने जाते थे.
सरदार पटेल के अनुरोध पर उन्होंने 1946 के चुनाव में हिन्दू महासभा के गिने चुने उम्मीदवार ही उतारे थे और वे उम्मीदवार भी असफल रहे थे. लेकिन युवा और समर्पित प्रचारकों से लैस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तेजी से पूरे भारत मे पांव पसार रही थी. विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से भारत पहुंचे शरणार्थियों की सेवा और सुरक्षा में अपना योगदान देकर संघ तेजी से लोकप्रिय हो रहा था. ऐसे में पतन की ओर अग्रसर हिन्दू महासभा से ज्यादा बड़ा खतरा उत्थान की ओर अग्रसर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था. ऐसे में संघ को ही प्रतिबंधित होना था.
लेकिन तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों का अभी एक्सपोज़ होना बाकी था. अगस्त 1948 में गांधी हत्या के षड्यंत्रों से संघ के सदस्य बाइज़्ज़त बरी हो गए. इसके बाद संघ प्रमुख गोलवलकर गुरुजी ने नेहरू को पत्र लिखकर संघ से प्रतिबन्ध हटाने की मांग की. लेकिन सरकार ने पहले तो आनाकानी की और फिर कई अपमानजनक शर्तें सामने रख दी.
संघ प्रमुख का कहना था कि जब प्रतिबन्ध गांधी हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप पर लगा है और इस आरोप को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है तो प्रतिबन्ध स्वतः ही हट जाना चाहिए. लेकिन संघ को इन प्रतिबन्धों को हटाने के लिए सत्याग्रहों और संघर्षों से गुजरना पड़ा और अंततः कुछ शर्तों के साथ संघ से प्रतिबन्ध हटाया जा सका.
गांधी निस्संदेह अपने समय की सबसे बड़ी राजनीतिक हस्ती थे. इसलिए उनकी हत्या का भी भारतीय राजनीति पर बहुत गम्भीर असर पड़ा. भारत का विभाजन इतनी बड़ी त्रासदी थी कि उसने देश के हिन्दू मानस को झकझोर कर रख दिया था. लोगों में कांग्रेस के लिए ही नही, गांधी के लिए भी गुस्सा था. लेकिन एक दक्षिणपंथी हिन्दू द्वारा उनकी हत्या ने उनके राजनीतिक जीवन का निरपेक्ष आकलन लगभग असम्भव कर दिया.
संघ प्रमुख गोलवलकर गुरुजी को जब महात्मा गांधी की हत्या और संघ को उसमें घसीटे जाने की जानकारी मिली तब उन्होंने मौजूद कार्यकर्ताओं से कहा कि संघ 30 वर्ष पीछे चला गया. तब संघ की स्थापना को मात्र 22 वर्ष हुए. यानी 22 वर्षों का संघर्ष और भविष्य सब दांव पर लग गया. हिन्दू महासभा हमेशा के लिए समाप्त हो गई और कांग्रेस के अंदर के हिंदूवादी नेता नेपथ्य में धकेल दिए गए. इस सहस्त्राब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी, भारत के विभाजन पर कभी भी एक ईमानदार बहस नही हो सकी और इस विभाजन के दोषी भी इतिहास की स्क्रूटिनी से आराम से बच निकले.
(गांधी की हत्या और उसके परिणाम शीर्षक से ये लेख लोपक.इन में प्रकाशित हुआ था. इसे उनकी अनुमति से पुन:प्रकाशित किया जा रहा है.)
(लेखक एक कंपनी के वित्त विभाग में कार्यरत है और www.lopak.in में स्तंभकार है.)
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