scorecardresearch
Wednesday, 24 April, 2024
होममत-विमतपुण्यतिथि विशेष: कौन देखता था महात्मा गांधी की सुरक्षा

पुण्यतिथि विशेष: कौन देखता था महात्मा गांधी की सुरक्षा

एक सवाल ये भी कि क्या तब बिड़ला हाउस के भीतर कोई भी मजे से प्रवेश पा सकता था? क्या उधर आने वालों की कोई छानबीन नहीं होती थी?

Text Size:

महात्मा गांधी 9 सितंबर,1947 को अंतिम बार दिल्ली आए. वे शाहदरा रेलवे स्टेशन पर उतरे. वहां उन्हें उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल और स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृतकौर लेने पहुंचे थे. सरदार पटेल ने वहां ही बापू से कहा कि अब उनका वाल्मिकी मंदिर ( मंदिर मार्ग) में रहना सुरक्षा की दृष्टि से सही नहीं होगा. वैसे भी वहां पर अब पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के रहने की व्यवस्था की गई है. इसलिए अब उनके रहने की व्यवस्था अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) पर स्थित बिड़ला हाउस में कर दी गई है.

नोआखाली और कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगों की आग को बुझा कर दिल्ली आ रहे बापू ने पटेल की सलाह को मान लिया. वे वाल्मिकि मंदिर परिसर में 1अप्रैल 1946 से 10जून, 1947तक रहे थे. वे शाम के वक्त मंदिर से सटी वाल्मिकी बस्ती में रहने वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाते थे. उनकी पाठशाला में खासी भीड़ हो जाती थी. वे इधर ही रहना चाहते थे. पर फिलहाल 78 साल के बापू असहाय थे.


यह भी पढ़ें: पुण्यतिथि: महात्मा गांधी का वह सपना जो 98 साल से अधूरा है


उन्हें सीधे बिड़ला हाउस में ले जाया गया. उन्होंने वहां पर पहुंचते ही सर्वधर्म प्रार्थना सभा भी शुरू करवा दी. उसमें बहुत से दिल्ली वाले शामिल होने लगे. पर वहां पर बीच-बीच में तब अप्रिय स्थितियां पैदा हो जातीं जब कोई व्यक्ति कुरान की आयतों के पढ़े जाने का विरोध करता. इस कारण कई बार बीच में ही प्रार्थना सभाओं को स्थगित भी किया जाने लगा. निश्चित रूप से उस दौरान दिल्ली में वातावरण बेहद विषाक्त हो चुका था.

दरियागंज, बेगमपुर ( मालवीय नगर के पास), पहाड़गंज,करोल बाग वगैरह में दंगे थम ही नहीं रहे थे. दिल्ली से सैकड़ों मुसलमान इस्लाम के नाम पर बने देश पाकिस्तान में जा रहे थे. ये पुराना किला और हुमायूं का किला परिसर में डेरा जमाए हुए थे. उन्हें इंतजार सरहद के उस पार ट्रेन से जाने का इंतजार था. ये लोधी रोड के रेलवे स्टेशन से पाकिस्तान के सफर पर निकल रहे थे. जाहिर है, तब विमान से पाकिस्तान जाने वाले तो गिनती के ही थे. उस दौर में दिल्ली में एकमात्र हवाई अड्डा सफदरजंग एयरपोर्ट ही था.

बहरहाल, दंगों को रुकवाने के लिए बापू उपवास रख चुके थे. उपवास 13-18 जनवरी तक चला था. उसके बाद यहां पर स्थितियां नियंत्रण में आ गई थीं. पर बापू की जान के हत्यारे भी अपनी रणनीति को अंतिम रूप दे रहे थे. 20 जनवरी को उनकी प्रार्थना सभा के दौरान विस्फोट हुआ. बाद में ये भी पता चला कि वो एक क्रूड देसी किस्म का बम था जिसमें नुकसान पहुंचाने की ज्यादा ‘कैपासिटी’ नहीं थी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

उस विस्फोट के लिए मदन लाल पाहवा नाम के शख्स को पकड़ा गया. वो गांधीजी को चोट पहुंचाना चाहता था. वो नाथूराम गोडसे,गोपाल गोडसे,नारायण आप्टे,विष्णु करकरे वगैरह का साथी था. ये सब गांधी जी की जान के प्यासे थे ही. जिस दिन धमाका हुआ था, उसी दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने ये कहा कि जिस किसी ने भी ये कोशिश की थी उसे मेरी तरफ से माफ कर दिया जाए.

ये सब 20 जनवरी को टैक्सी लेकर बिड़ला हाउस पहुंचे थे. इनकी बैठकें कनॉट प्लेस के मरीना होटल और मंदिर मार्ग के हिन्दू महसभा भवन में भी हो रही थीं.

इनका इरादा ये था पहले प्रार्थना सभा में बम फेंका जाएगा. जब वहां पर भगदड़ मच जाएगी तो बापू पर गोलियां बरसा दी जाएंगी. पाहवा और विष्णु करकरे पहले बिड़ला हाउस में पहुंच जाते हैं. शेष को टैक्सी ड्राइवर सुरजीत सिंह लेकर आता है. सुरजीत सिंह बाद में सरकारी गवाह बन गया था. मदन लाल पाहवा वहां पर एक फोटोग्राफ़र के रूप में पहुंचता है. वहां उसने धमाका किया. पर उसका असर कमजोर रहा. इसके बाद उसके साथी वहां से निकल भागे. उन्हें लगा होगा कि आज बात नहीं बनेगी.

बहरहाल, इतनी भयावह घटना के बाद कायदे से बिड़ला हाउस की सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद किया जाना चाहिए था. पर क्या इस बाबत कोई प्रयास हुए? अगर प्रयास किए गए होते तो बापू मारे नहीं जाते. बापू के अंतिम दिन के एक-एक पल का खुलासा करने वाले पत्रकार स्टीफन मर्फी लिखते हैं- ’20 जनवरी को हुए हमले के बाद बिड़ला हाउस में 30 पुलिसकर्मियों की तैनाती कर दी गई थी.

नेहरु और पटेल के इस आग्रह को बापू ने मान लिया था. पर जब उन पर गोडसे गोली चलाता है, तब उनके साथ रहने वाले सादी वर्दी वाला पुलिसकर्मी ए.पी. भाटिया गैर-हाजिर होता है. उस दिन उसकी कहीं और ड्यूटी लगा दी जाती है. उसके स्थान पर बापू की सुरक्षा में कोई तैनात नहीं होता. बापू के संग रहने वाले गुरुबचन सिंह भी नहीं थे. वो बापू के अटैंडेंट का काम करते थे.’

एक सवाल ये भी कि क्या तब बिड़ला हाउस के भीतर कोई भी मजे से प्रवेश पा सकता था? क्या उधर आने वालों की कोई छानबीन नहीं होती थी? मतलब ये कि जिन सुरक्षाकर्मियों को बिड़ला हाउस की सुरक्षा व्यवस्था का जिम्मा था,वे क्या कर रहे थे? भाटिया की 30 जनवरी को किसने और क्यों किसी अन्य जगह पर ड्यूटी लगा दी थी? अब इन सवालों के जवाब कोई नहीं देगा? हां, ये ठीक है कि 30 जनवरी,1948 को चांदनी चौक इलाके में सफाई कर्मी अपनी मांगों के समर्थन में बड़ा प्रदर्शन कर रहे थे. इसलिए काफी सुरक्षा कर्मी वहां भेज दिए गए थे.

तो क्या भाटिया भी चांदनी चौक में ही थे? मतलब बापू को मरने के लिए अकेले छोड़ दिया गया था. अफसोस तो ये देखिए कि बापू के साथ सुबह-शाम रहने वाली उनकी निजी चिकित्सक डा. सुशीला नैयर भी उस दिन नहीं थीं. वो पाकिस्तान गई हुई थीं. पर उन्हें गोली मारे जाने के कुछ देर के बाद डा. डी.पी भार्गव और डा.जीवाजी मेहता वहां पहुंच गए थे. डा.मेहता ने बापू को मृत घोषित किया था.

बापू की निर्विवाद रूप से महानतम जीवनी ‘दि लाइफ ऑफ महात्मा गांधी’ में लुई फीशर लिखते हैं- ‘नेहरु भी तुरंत बिड़ला हाउस पहुंच गए थे. वे बापू के खून से लथपथ शरीर से लिपटकर रो रहे थे. फिर बापू के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी, शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद भी बिड़ला हाउस आ गए.’

एक सवाल ये भी कि क्या बापू को वाल्मिकी मंदिर से बिड़ला हाउस में शिफ्ट करना सही था? वाल्मिकी मंदिर के पुजारी कृष्ण विद्यार्थी मानते हैं कि  ‘यहां बापू को कोई मार नहीं सकता था. वे हम सबके बीच में सुरक्षित रहते थे. पर वे कथित सुरक्षित स्थान में मार दिए गए.’

(वरिष्ठ पत्रकार हैं और पुस्तक गांधीजी दिल्ली- अप्रैल 12,1915- जनवरी 30,1948 एंड वियोंड के लेखक हैं)

share & View comments